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मंगलवार, मई 8

वेदना प्रकृति की

                                     

                                     भाग -2
सहसा ! फिसल गयी  वह 
या चलते-चलते बदल गयी  
चक्षु  क्यों  चकरा गये  ?
क़दम क्यों  लड़खड़ा गये? 
कुदरत फूट पड़ी क्यों ?
अंदर ही अंदर टूट पड़ी क्यों? 
फैला पायी  बस इतना 
मनुज की निर्बोध आँखें |
सहम गयी  क़ुदरत भी आज 
तरु-तरूवर भी सूखे, 
चित्रभानु का रुख़ भी तेज़
वारिद क्यों रहा न मेरा 
मनुज को  अब होश कहाँ ? 
मिजाज़ मेरा छूट रहा घंमड मेरा टूट रहा 
थी कभी प्रवृत्ति  हूँ आज विकृति के कगार पर 
अक़्ल का अज़ण खुदगर्ज़ मनुज 
जर्जर आँचल सूख रहा क्यों ?
मंडरा रहे बादल काल के 
विचलित मन या  भ्रम मेरा 
डोर समय की सिमट रही या धीरे-धीरे टूट रही 
ग्रास काल का बन रही या समय ख़त्म हुआ अब मेरा
ताना-बाना यादों का बुन रही क़ुदरत आज 
 चंद्रभानु के तेवर तेज़, शशि की ठण्डी छाँव है आज 
शशि संग अनुराग अमर वक़्त निकृष्ट साथ अजर है |

- अनीता सैनी 




    

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