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सोमवार, अक्तूबर 1

क्षितिज



पेड़ों की फुनगी पर  बैठी,
आज सुनहरी शाम,
हर्षित मन, नयन
उम्मीद के द्वार।

विचलित  मन,
तरसती आँखें, बेचैनी-सी 
हिये  के  पार,

धीरे-धीरे क़दम बढ़ाती,
मायूसी से करती तक़रार,
पहुँची निशा मिलने द्वार ।

अरमानों की बरसी बदरी,
गोधूलि  की बेला  छिटकी,
हुई  आहट  द्वार,
चित्रभानु मिलने पहुँचा,
अब धरा  के  द्वार 

पेड़ों  की फुनगी पर  बैठी,
आज सुनहरी शाम,
हर्षित  मन, नयन
उम्मीद  के  द्वार।

 @ अनीता सैनी 

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