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बुधवार, जुलाई 31

नारी ज़ात के लोथड़े को पुरुष ज़ात के गिद्ध नोंचते मिले



थक गयी  जब मैं,
 शब्दों  की  बे-बाकी  से,
ख़ामोशी की राह चुनी, 
तय हुआ
 चलने से पहले, 
 ख़ामोश रहूँगी 
 मरने से पहले, 
कुछ सुनूँगी न कहूँगी
बस ठूँठ बन चलती रहूँगी, 
सफ़र के  हमसफ़र बने ,
  कुछ  एहसास ,
थकते-थकाते ,
रूठते-मनाते ,
डग साँसों  की  भरते,
जीवन के पड़ाव को , 
उस पार पहुँचाने का वादा किया, 
अवाक रह गयी  !
जब एक जंगल में  भटक गयी ,
रूह  काँप  गयी  जब,
लुप्त हो चुके,
 पुरुष-ज़ात  के  गिद्ध ,
न जाने कहाँ से ?
नारी ज़ात के लोथड़ों  को नोंचते मिले !
कुछ सुडोल काय ,
 कुछ हड्डियों के पिंजर, 
क्षीण हो चुकी शक्ति, 
साँसों से झूझते ,
अपने ही अस्तित्त्व की, 
भीख माँगते मिले, 
तप रहा तन,
काल की भट्ठी पर,
सिहर गयी जब वह,  
ख़ामोशी से जलते मिले, 
व्यवस्था के नाम पर
 कुछ अवसरवादी  कौवे,
काँव-काँव करते,
आपस में झगड़ते मिले, 
 ख़ामोश  रही  क्योंकि 
मैं  सुरक्षित  हूँ  ?
उसी जंगल के एक कोने में,
अपनी ही साँसों की गिनती में,
परन्तु अब हर साँस ,
किसी के अधीन मिलीं  !

-  अनीता सैनी 

38 टिप्‍पणियां:

  1. नारी उत्पीड़न पर कठोर प्रहार करती प्रस्तुति

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  2. संचालिका रचना ।
    बुद्धिजीवी यों का कलेवर हिल जाएगा पर निराधम कर्ताओं तक बात कौन पहुंचाएगा?

    जवाब देंहटाएं
  3. संघातिक पढ़ें ,संचालिका को

    जवाब देंहटाएं
  4. वााााह !
    बहुत ही सटीक एवं सराहनीय प्रस्तुति।

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  5. बेहतरीन रचना सखी

    जवाब देंहटाएं
  6. वाह!!प्रिय सखी ,बहुत ही मर्मस्पर्शी ....।

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  7. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (02-08-2019) को "लेखक धनपत राय" (चर्चा अंक- 3415) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय चार्च मंच पर स्थान देने के लिए
      सादर

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  8. नारी उत्पीड़न पर सहज रोष की अभिव्यक्ति सराहनीय व प्रशंसनीय है। समाज को आईना दिखाती इस रचना के लिए शुभकामनाएं ।

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  9. जब न्याय में विलम्ब होता है...तो न्याय का अर्थ नहीं रह जाता...ये रचना पूरी व्यवस्था के ध्वस्त होने की ओर इशारा करती है...वो समाज कभी उन्नति नहीं कर सकता जो नारी का सम्मान करना और करवाना न जानता हो...😢

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  10. व्यवस्था के
    नाम पर कुछ कौवे,
    काँव-काँव करते,
    आपस में झगड़ते मिले |
    बस ऐसे ही काँव-काँव कर के हम दोष दूसरे के सर मढ़े जा रहे हैं।

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  11. नारी मन की कातरता भरे भावों को बखूबी बयां करती इस रचनाके लिए तुम्हे विशेष बधाई प्रिय अनिता | ये विवशताएँ नारी के हमकदम चलती हैं और उसे पग पग पर सोचने के लिए विवश करती हैं कि उसका दोष आखिर क्या है ? नारी होना अथवा पुरुष का देहलोलुप होना ? जिस धरा पर नारी के सर्वत्र पूजन का अमर उद्घोष गूंजता है वहां नारी मन की ये लाचारी किसी अभिशाप से कम नहीं | सस्नेह

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  12. निःशब्द ...
    बहुत मार्मिक रचना ...

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