ठिठुर रही ज़िंदगी
सड़क किनारे मानव,
मन बेहाल रहा !
ओस की बूँदें,
झुँझला रही ज़िंदगी
हवा का झौंका,
हठ के ताव लगा रहा !
सूरज निकले,
रात ढले,
इसी इंतज़ार में मन,
अलाव जला रहा !
ठिठुरन जानी-पहचानी,
वक़्त की रही बेमानी,
सुलग रही आग पेट की,
क़िस्मत से हार न मानी,
सड़क किनारे ज़िदगियों का,
यही हाल रहा !
#अनीता सैनी
सुंदर रचना, चिन्तन पूर्ण। शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंसह्रदय आभार आदरणीय
हटाएंसादर
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (04-11-2020) को "चाँद ! तुम सो रहे हो ? " (चर्चा अंक- 3875) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सुहागिनों के पर्व करवाचौथ की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआदरणीया अनिता सैनी जी, नमस्ते👏! बहुत भावपूर्ण रचना। ये पँक्तियां अच्छी हैं:
जवाब देंहटाएंसुलग रही आग पेट की,
क़िस्मत से हार न मानी,
--ब्रजेन्द्रनाथ