वक़्त के साथ दौड़
लगाती ज़िंदगी की
वक़्त से आगे
निकलने की चाह,
निगाहों से ओझल
होते गंतव्य
की ओर बेसुध
ज़िंदगी का दौड़ना ,
कभी न पूरी होने
वाली लालसा,
के उद्वेग से मन
अपनों ओर सपनों,
को कुचलता ऐसे
गंतव्य पर मिला
जहा पश्चाताप
उसकी राह ताक रहा।
मासूमियत से सराबोर
खिलखिलाते फूल
अभी महके भी नहीं कि
उन्हें ज़िंदगी का कड़वा सच
अनुभव की खोखली छाप से
मापन का सिलसिला प्रारंभ किया।
नन्हे क़दमों ने
कुछ डग न भरे,
कि उसे ज़िंदगी की
रेस का घोड़ा
बना मैदान में उतार दिया।
उम्मीद की पोटली
उनके शीश पर सवार ,
ख़ुद न चलने का बहाना
उसे दौड़ा दिया।
अपनी नाकामी छिपा
रेस पर दाँव लगा
ख़ुद के कंधों का वज़्न
मासूमों पर ढो दिया।
जिसने धूप, छाँव में
फ़र्क़ ही न किया,
उन्हें ज़िंदगी में इनके
मायने बता दिये।
किताबी-ज्ञान को शिक्षा
मासूमों की ज़िदगी को उलझा
अनुभव को दरकिनार किया।
कंधों पर बढ़ता वज़्न
ज़िंदगी की दौड़ लगाते मासूम
यही दास्तां कह रहे
न जाने किस सोच का अत्याचार सह रहे।
#अनीता सैनी
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