धरा ने धैर्य रुप धरा,
सह रही असीम पीड़ा ,
मानव का मनमाना राज्य ,
निरकुंशता की नग्न क्रीड़ा,
उत्पीड़न राज्य चहु ओर,
क्रूर बन बैठा शूर,
दफ़्न कोख में,
जला रहे काया ,
तड़पता मन,
द्वेष की दावाग्नि,
ध्वस्त हो रहा अस्तित्त्व ,
ह्रदय में अतृप्त व्यथाएँ,
देख ! मानव धरा पर बेटी की छाया।
पल -पल अस्तित्त्व जता रहीं ,
नारी की करुण कथाएँ ,
परिपाटी से किया सरोबार,
मानव मुख मोड़,
देह नारी की रहा झकझोर,
हृदय के दुःख का क्षोभ त्यागकर,
नित्य बढ़ रही किस ओर
धरा निवेदित नारी से
" सहते रहना, कुछ न कहना
लौट धरा पर, फिर नहीं आना "
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