आँखें पथरायी-सी,
बैठी चौखट के पार ,
दर्द के धागे, सुकून की सिलाई,
तुरपन रिश्तों की हर बार ,
समय में गोते खा रही,
ढूढ़ रही अपना घर-द्वार।
जग ने रीत बनायी ऐसी,
दो आँगन दो द्वार,
बचपन दिल में समेट लिया,
भूल मात-पिता, भाई-बहन का प्यार,
समय के भवँर गोते खा रही ,
ढूढ़ रही अपना घर-द्वार।
श्रद्धा सुमन से सींच रही ,
दो आँगन, दो परिवार ,
सुख जीवन में त्याग रही,
विश्वास का पात्र किया तैयार ,
समय में गोते खा रही ,
ढूढ़ रही अपना घर-द्वार।
सपने अपनों के बुन रही,
समय से कर बैठी तक़रार,
जीवन राह में राही बनी,
बुन आशियाने के नाजुक तार,
समय में गोते खा रही,
ढूढ़ रही अपना घर-द्वार।
अनीता सैनी
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