धर रूप स्नेह का,
वात्सल्य भाव से बरसना,
संघर्ष सजा ललाट पर ,
मैं कर्कश संसार में जीना चाहती थी |
करोगे कब तक जीना दुश्वार,
जो दोष नहीं था मेरा
करोगे कब तक उससे शृंगार,
मर-मरकर जीने की राह चुन,
मैं कर्कश संसार में जीना चाहती थी |
जब-जब लगी चाहत से गले ज़िंदगी,
तब-तब अँकुरित हुई कुबुद्धि समाज में,
गूँथी अनचाहे अपशब्दों की सतत शृंखला ,
कर कंठ पर धारण, मैं कर्कश संसार में जीना चाहती थी |
भावों का विकार सहज सरल,
निर्मल मन को द्रवितकर कुंठा से किया मलिन,
जग ने कह मनोरोगी किया तिरस्कार,
सब्र टूटा कब मेरा,प्रवाह उम्मीद लिये
मैं कर्कश संसार में जीना चाहती थी |
अंतरमन में जग ने जलाया पल-पल ,
क्रोध से भरा अवमानना का दीप,
वक़्त ने किया गुमराह,
भाग्य ने जकड़ी मोम-सी मासूम साँसें,
मैं कर्कश संसार में जीना चाहती थी |
न बढ़ाया मौत ने क़दम,
किया अग्रसर मेरे अपनों ने,
नैराश्य की पूड़ी खिला सानिध्य में,
भावुक मन अबला का साँसों से खेल गया,
मैं कर्कश संसार में जीना चाहती थी |
- अनीता सैनी
न बढ़ाया मौत ने क़दम,
जवाब देंहटाएंकिया अग्रसर मेरे अपनों ने
नैराश्य की पूड़ी खिला सानिध्य में,
भावुक मन अबला का साँसों से खेल गया,
मैं कर्कश संसार में जीना चाहती थी |
बहुत सुंदर रचना,अनिता दी।
सस्नेह आभार ज्योति प्रिय बहन
हटाएंसादर स्नेह
एक ऐसी अभिव्यक्ति जो एक सत्य घटना पर आधारित स्त्री की मनोदशा का अव्यक्त पहलू समाज के सामने रखती है.
जवाब देंहटाएंहत्या और आत्महत्या का मिश्रित रूप लिये यह ख़बर सारा दोष स्त्री पर मढ़ती है किन्तु इस रचना में स्त्री-विमर्श से जुड़े अनेक सवालों को समाज के समक्ष खड़ा किया गया है ताकि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न होने पर सामाजिक बहस अपना सफ़र तय करे.
दर्दभरी मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति हमें सोचने पर विवश करती है.
सहृदय आभार आदरणीय 🙏)
हटाएंआप ने रचना का मूल उद्देश्य समझा और बहुत ही सुन्दर समीक्षा की आप के विचारों ने बहुत ही प्रभवित किया | ख़बर के मुताबित सारा दोष स्त्री पर मढ़ दिया परन्तु उसे यहाँ तक पहुँचने वाला कौन था ? क्या कोई औरत पैदाइशी
मनोरोगी होती है? समाज में पनप रही ऐसी गतिविधियों पर बहस होनी ही चाहिये और गहन कारवाही भी उन अदृश्य हाथों को काटना चाहिये जो एक औरत यह क़दम उठाने पर विवश करते है |यह घटना कोई आम घटना नहीं है सोचते हुये रूह कांप जाती है|
तहे दिल से आभार आप का आप ने स्त्री की मनःस्थति को समझा |
प्रणाम
सादर
अंतर्मन में जग ने जलाया पल-पल ,
जवाब देंहटाएंक्रोध से भरा अवमानना का दीप,
वक़्त ने किया ग़ुमराह,
भाग्य ने जकड़ी मोम-सी मासूम साँसें,
मैं कर्कश संसार में जीना चाहती थी |स्त्री की दशा का बहुत ही मार्मिक चित्रण किया आपने सखी
सस्नेह आभार प्रिय सखी
हटाएंसादर स्नेह
भावों का विकार सहज सरल,
जवाब देंहटाएंनिर्मल मन को द्रवितकर कुंठा से किया मलिन,
जग ने कह मनोरोगी किया तिरस्कार,
सब्र टूटा कब मेरा,प्रवाह उम्मीद लिये
मैं कर्कश संसार में जीना चाहती थी |
बहुत ही हृदयस्पर्शी रचना...बहुत लाजवाब...
तहे दिल से आभार प्रिय सखी आप का,आप ने हमेशा मेरा
हटाएंउत्साहवर्धन किया है |
सस्नेह आभार
सादर
बहुत ही हृदयस्पर्शी रचना प्रिय सखी ..।असहाय नारी का मन खोल कर रख दिया आपने ।
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार प्रिय सखी परन्तु आज समाज ऐसी घटनाओं को बख़ूबी अंजाम दे रहा है| अगर आज हम सचेत नहीं हुये ..समाज दलदल में समा जाएगा |
हटाएंसादर स्नेह बहना
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (01-07-2019) को " हम तुम्हें हाल-ए-दिल सुनाएँगे" (चर्चा अंक- 3383) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सहृदय आभार आदरणीय चर्चा मंच पर मेरी रचना को स्थान देने के लिए
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सादर
पुरे समाज को कठघरे में खड़ा करती है ये रचना जो दिख रहा है और जो सच है उसमें बहुत फर्क है ऊपरी तौर पर आत्म हत्या दिखने वाली इस घटना की नीव काफी फहले से पड़ गई, रोज रोज के ताने और पुत्र की चाह जो कुंठा बन आत्महत्या की राह दिखाती है... हत्या का पुराना सड़यंत्र।
जवाब देंहटाएंबहुत विचारणीय प्रस्तुति।
सस्नेह आभार प्रिय कुसुम दी जी
हटाएंसादर
मुश्किलों के साथ जीने की ललक ... समाज के ज़ुल्म्प्न को सहते हुए इस समाज को आइना दिखाना ... सच के करीब लिखी रचना ...
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक ने हटा दिया है.
हटाएंतहे दिल से आभार आदरणीय उत्साहवर्धन समीक्षा हेतु
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सादर
बहुत ही हृदयस्पर्शी
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया आप का आदरणीय
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सादर