गुरुवार, जून 20

" पीपल के पत्तों की पालकी "




समृद्धशील  संस्कृति,

 संस्कारों से सराबोर , 

सहनशीलता  की  पराकाष्ठा, 

समेटे  समय  का  दौर |


बंधुत्व   से   बँधी, 

बरगद  ने  सुना   बखान, 

पीपल  के  पत्तों  की  पालकी,

 मानव  को  मानवता  का  वरदान ,

  समय   के  कंधों   पर,   हो   सवार 

  करने   चली ,  दुनिया  का  उद्धार |


देवदूत  वे   दादा-दादी, 

 दिया   दामन   दायित्व    का,

बन  सितारे   नाना-नानी,

महकाया  आँगन  संस्कारों  का 


मन    मानव   का  मलिन   हुआ,

  महका   महत्व    मंसूबो   का, 

   दबा  द्वेष  उर  में , किया  क़त्ल सद्भावों का 

   दर्द  का  मरुस्थल   दिया    दहका |


सजी   संर्कीणता   सपनों   में,

सड़ने   लगे   सब  संस्कार  ,

जीवन   दुष्कर  हुआ,  जनमानस  का ,

घोला  परिवेश   में   विकार |

- अनीता सैनी 

शनिवार, जून 15

पितृत्व की छाँव

             
               
पिता  के  सान्निध्य   की  छाँव,
 पति  की  आँखों  में  तलाशती,
जिंदगी  के  सफ़र  में  कब,
 मोतियाबिन्द की  शिकार  बनी 
यादों  के  फ़टे  पन्नों  में  ढूंढ़ने  लगी |

वक़्त  के  कटघरे   में  खड़ी, 
 हिम्मत  का  वृक्ष,  हृदय में लगाती ,
अतीत के  गलियारें  से  गुजरती,   
पितृत्व  की   छाँव   तलाशने   लगी |

अविकल  शब्दों  की  पल -पल पुकार,  
चिंतामग्न  टहलकदमी  पिता  की ,
 ढ़लती  ज़िंदगी, वक़्त का  अभाव,
जकड़ा   जिम्मेदारियों   ने  क़दम,
अब वो  आँखें  इंतजार  में  धसने लगी |


ख़ामोशी  में  सिमटे  खिलखिलाते  लम्हें ,
अनायास  ही  बातों  में  उलझते, 
अँकुरित    पितृ   स्नेह   के  बीज,  
  नम   आँखों   की   बौछार   से, 
 करूणा   भाव   में   बहने   लगी  |

          - अनीता सैनी 

गुरुवार, जून 13

पुरखे वक़्त को आईना दिखा गये



दिवास्वप्न की परछाई, 
पुरखे,  सूर्य  का भ्रम  बता गये, 
वक़्त को  शमशीर, कर्म को साथी,
क़दमों को राह  दिखा  गये |

मधुर वाणी,  मिथ्या  मन  की  ,
 शब्दों का झोल, समझा गये, 
जला स्वार्थ की सिगड़ी,पुकार पुण्य को, 
 पाखंड का चेहरा दिखा गये |

तसव्वुर तहख़ाने में छुपा, 
वास्तविकता का दामन, हाथों में थमा गये ,
देशप्रेम   का  जज़्बा,
जूनून की मशाला  जला गये |

ख़्वाब पानी के बुलबुले, 
सच  के  साथ चलना सिखा  गये, 
इज्ज़त  की  दो  रोटी ,
स्वाभिमान  की पगड़ी थमा  गये |

तलाश  सतरंगी जीवन की,
 तारों का प्रिय परिधान दे गये , 
फूल - सी खिली तमन्ना, 
भोर को अर्पण कर गये |

न तपे तन  तेज़ तन्हाइयों से, 
लेप चंदन का लगा गये , 
महकता रहे आँगन,  
पेड़ यादों का लगा गये |

- अनीता सैनी 

सोमवार, जून 10

ड्योढ़ी पर बैठी इंसानियत



दृश्य  में  दृश्य, 
ड्योढ़ी   पर   बैठी   इंसानियत, 
  मटमैले  रंगों का पहन  परिधान,
ग़ुम  हो  रहे  अस्तित्व  का  लिये दर्द,
पीपल  के  सूखे  पत्तों  सी   सूख  रही |

आँखों  से  टपकती, मनोभावों की  पीड़ा,
समय  के  हाथों  अंकुरित  
संकीर्णता का बीज, 
अंतर्मन से, 
हैवानियत  के  लिबास  में  लिपटा  इंसान, 
इंसानियत   अपनी   खो   रहा |

दरकिनार  कर  सुकून  की  चंद  साँसें,
पीट  रही  अभाव  का  ढ़िढोरा,
बन भाग्य  विधाता,
जीवन  से   लिपटी   किस्मत  का 
ज्ञाता  कहलाने   में  मग्न हो रहा |

साँसों   के   बहाव   में  बहती  पीड़ा 
पल - पल  जूझ   रही  ख़्वाहिशें, 
बनी  अंतर्वेदना, 
उपजा  हिंसक  रूप  मानव   मन  में,  
इंसानियत  का  कर  रहा  क़त्ल  सरेआम,  
तृष्णा का  पुतला  धरा  पर  पनपा,  यही  गाथा,
वक़्त,   प्रकृति  के  कण - कण  को  सुना  रहा |

- अनीता सैनी 

रविवार, जून 9

दृश्य अटारी बॉर्डर का



मूल्य   शाश्वत  जीवन   का,
इन  आँखों  ने आज  बताया,
अटारी   बॉर्डर  पर  देख  शौर्य  बहनों   का,  
गुरूर  से  धड़कता  सीना, 
देश   प्रेम  का  सच्चा  अर्थ  समझ   आया |


जज़्बा -ए -जूनून, देख  क़दमों  की ललकार,
स्मरण  रानी लक्ष्मी  बाई  का  हो आया,
रग-रग  में  दौड़ता  देश  प्रेम,  हाथों  में  उठी  तलवार, 
दृश्य  वह  रण  सा  आँखों   में   उभर  आया |


कण - कण  में   गूँज  शौर्य  की , 
साहस से सराबोर सरहद, नज़ारा राज पथ का  उभर आया, 
छ: फिट उठे  क़दम, क़दमों की ललकार, हाथ  के पँजे  में शिकार , 
दुश्मन  का  कलेजा  धराशाही  नज़र आया |


आँखों  में   तेज़,  दहाड़  शेर -ए -हिंद  की, 
बौखलाहट में पाकिस्तान , दौड़ता नज़र आया, 
सीमा  के  प्रखर  प्रहरी  सैनिकों  का  उत्साह,
आसमां  की  बुंलदियों  को  छूता  नज़र  आया |

- अनीता सैनी

शनिवार, जून 1

क़हर दिमाग़ ने ढा दिया



                                           
कृशकाय  पगडंडियों  पर  दौड़ते  गाँवों   को,  
 शहरों  की  सड़कें   निगल गयीं |

अपनेपन  की  ख़ुशबू   से  खिलखिलाती,  
गलियाँ  राह  शहर  की   भटक  गयीं|

 भूला    मिट्टी  की   ख़ुशबू ,
 शौहरत   की  महक दिल-ओ-दिमाग़  में  छा  गयीं  |

मासूम  दिल  पर  दिमाग़  ने  क़हर   ढा  दिया,  
छीन  पीपल  की  छाँव, फ़ुटपाथ  पर ज़िंदगी   सो  गयी |

 मालिकाना  हक़ का  रौब ,  मुस्कुराती  फ़सलें   छोड़ ,
बन  मज़दूर   मज़दूरी   को    मुहताज़, 
 वही   मेहनत   पगार  हाथों   में  थमा  गया |


कठघरे  में   जिंदगी, स्वाभिमान  की  पगड़ी  ले  गयी,  
दो  वक़्त  की  रोटी , नशे  का  व्यापारी  बना  गयी |


शब्दों   में   सुभाशीष,  हाथों  में   देश  का  भविष्य,   
बदली   शब्दों  की  लय,   लाचारी   सीने   से  लगा  गयी |


हुआ   घायल   मन ,  तन  ने   साथ   छोड़   दिया, 
नशे  ने   जकड़ा,    दीनता   हाथ   फैला   गयी |

सोई   मानवता  जाग  उठी,  धूम्रपान   से  तन  को  छुड़ा,  
इंसान   को   इंसानियत    का   पाठ   पढ़ा   गयी |

                      - अनीता सैनी