ज़िद की झोली कंधों पर लादे आए !
शब्दों के झुरमुट को
चौखट से लौटाया मैंने
ओस की बूँदों ने बनाया बंधक
बग़ीचे की बेंच पर ठिठुरते देखे!
मुझ बेसबरी से रहा नहीं गया
बहलाने निकली उन्हें
परंतु चाहकर भी कुछ कहा नहीं गया
तो क्या सभी सँभालकर रखते हैं ?
शब्दों के उलझे झुरमुट को
क्योंकि शब्दातीत में समाहित होते हैं
अर्थ के अथाह भंडार
झरने का बहना चिड़िया का चहकना
प्रभात की लालिमा में क्षितिज का समाना
या निर्विकार चित्त की संवेदना तो नहीं शब्द?
मरु से मिली ठोकरें सिसकती वेदना तो नहीं है?
कृत्रिम फूलों पर मानव निर्मित सुगंध हैं शब्द?
तो क्या? भावों के भँवर में उलझी ज़िंदगियाँ हैं ?
अंतस का पालना झुलाती शब्दों को मैं
तभी तो,चाहकर भी कुछ कहा नहीं गया।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-12-20) को "शब्द" (चर्चा अंक- 3923) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत शुक्रिया प्रिय कामिनी दी चर्चामंच पर स्थान देने हेतु।
हटाएंहृदयस्पर्शी।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया।
बहुत बहुत शुक्रिया अनुज।
हटाएंझरने का बहना चिड़िया का चहकना
जवाब देंहटाएंप्रभात की लालिमा में क्षितिज का समाना
या निर्विकार चित्त की संवेदना तो नहीं शब्द?
शब्दों की महिमा अपरम्पार है कभी ये स्नेहसुधा कभी मारक तीर तो कभी ज्ञानचक्षु खोलने वाले हैते हैं । भावपूर्ण सृजन ।
कृपया होते हैंं पढ़ें .
हटाएंदिल से आभार प्रिय दी आपकी प्रतिक्रिया मिली सृजन सार्थक हुआ।
हटाएंसादर
लाजवाब शब्द.....बेहतरीन भाव
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया सर।
हटाएंसुन्दर, सारगर्भित रचना..
जवाब देंहटाएंदिल से आभार आदरणीय दी।
हटाएंनिर्विकार चित्त की संवेदना।
जवाब देंहटाएंवाह! दार्शनिक पंक्तियाँ।
बहुत बहुत शुक्रिया अनुज।
हटाएंमौन भी एक शब्द है ... पंछियों की चहचाहट के बीच ... द्जब्दों को सार्थक अत्ढ़ देना ही उनकी व्याख्या है ...
जवाब देंहटाएंसार्थक शब्द ...
हटाएंबहुत बहुत शुक्रिया सर मनोबल बढ़ाने हेतु।
हटाएंसारगर्भित रचना..
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया सर।
हटाएंहर एक शब्द जैसे जीवित हो चले हैं, हर एक पंक्ति में ज़िन्दगी का सार उभर चला हो - - बेहद ख़ूबसूरत रचना, पढ़ते पढ़ते निःशब्द कर जाती है आपकी कविता, साधुवाद - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया सर आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा सृजन सार्थक हुआ।
हटाएंसादर प्रणाम
नियति प्रिय...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर।
बहुत बहुत शुक्रिया।
हटाएंचाहकर भी कुछ कहा नहीं गया । फिर भी बहुत कह दिया इन शब्दों ने । अभिनंदन अनीता जी इस श्रेष्ठ सृजन के लिए ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया सर।
हटाएंक्षर से अक्षर की सुंदर यात्रा । अति सुंदर ।
जवाब देंहटाएंदिल से आभार प्रिय दी।
हटाएंदिल को छूती बहुत सुंदर रचना, अनिता।
जवाब देंहटाएंदिल को छूती बहुत सुंदर रचना, अनिता।
जवाब देंहटाएंदिल से आभार आदरणीय ज्योति बहन।
हटाएंशब्दों की उलझन सदा मस्तिष्क को प्रभावित करती है,
जवाब देंहटाएंक्योंकि शब्द जबतक स्याही में नहीं ढ़लते या आवाज़ में नहीं बदलते निरर्थक हैं बस मस्तिष्क का जंजाल भर, कभी व्यथित कभी हर्षित कभी उपेक्षित कभी आनंद देने वाले ।
पन मन की तहो में जब तक घुमड़ते है मनोदशा अनुरूप भाव देते हैं।
शब्दों की विचलित मनोदशा का अभिनव सृजन।
दिल से आभार प्रिय कुसुम दी आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।आशीर्वाद बनाए रखे।
हटाएंसादर
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" (1987...अब आनेवाले कल की सोचो...) पर गुरुवार 24 दिसंबर 2020 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया पाँच लिंकों पर स्थान देने हेतु।
हटाएंसादर
परंतु चाहकर भी कुछ कहा नहीं गया
जवाब देंहटाएंतो क्या सभी सँभालकर रखते हैं ?
शब्दों के उलझे झुरमुट को
क्योंकि शब्दातीत में समाहित होते हैं
अर्थ के अथाह भंडार
सुंदर शब्द संयोजन !!!
बहुत श्रेष्ठ सुंदर रचना !!!
दिल से आभार प्रिय शरद दी।
हटाएंअंतस का पालना झुलाती शब्दों को मैं
जवाब देंहटाएंतभी तो,चाहकर भी कुछ कहा नहीं गया।
बहुत बहुत सुन्दर
बहुत बहुत शुक्रिया सर।
हटाएंआशीर्वाद बनाए रखे।
तो क्या सभी सँभालकर रखते हैं ?
जवाब देंहटाएंशब्दों के उलझे झुरमुट को
क्योंकि शब्दातीत में समाहित होते हैं
अर्थ के अथाह भंडार
सभी कहाँ सम्भाल पाते हैं कुछ तो अपने मन का बोझ फेंक देते हैं दूसरों के ऊपर शब्द को अपशब्द बनाकर....जो शब्दों का अर्थ जानते हैं दूसरों के मन भावों की कदर करते हैंवे भी सम्भाल पाते हैं शब्दों के इस झुरमुट को.... अपने ही अंंतस के पिलने में झुलाकर।
बहुत सुन्दर सार्थक लाजवाब सृजन।
दिल से आभार आदरणीय सुधा दी।
हटाएंसादर