शनिवार, जनवरी 27

सुनो तो

सुनो तो / अनीता सैनी

२६जनवरी २०२४

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देखो तो!

कविताएँ सलामत हैं?

मरुस्थल मौन है मुद्दोंतों से

अनमनी आँधी  

ताकती है दिशाएँ।


पूछो तो!

नागफनी ने सुनी हो हँसी

खेजड़ी ने दुलारा हो

बटोही

गुजरा हो इस राह से 

किसी ने सुने हों पदचाप।


सुनो तो ! 

जूड़े में जीवन नहीं

प्रतीक्षा बाँधी है

महीने नहीं! क्षण गिने हैं 

मछलियाँ साक्षी हैं 

चाँद! आत्मा में उतरा 

मरु में समंदर!

यों हीं नहीं मचलता है।

               

    

सोमवार, जनवरी 22

तुम्हारे पैरों के निशान

तुम्हारे पैरों के निशान / अनीता सैनी

२०जनवरी २०२४

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उसने कहा-

सिंधु की बहती धारा 

बहुत दिनों से बर्फ़ में तब्दील हो गई है

उसके ठहर जाने से 

विस्मय नहीं

सर्दियों में हर बार

बर्फ़ में तब्दील हो जम जाती है 

न जाने क्यों?

इस बार इसे देख! ज़िंदा होने का

भ्रम मिट गया है

दर्द की कमाई जागीर

अब संभाले नहीं संभलती 

पीड़ा से पर्वत पिघलने लगे हैं 

दृश्य देखा नहीं जाता  

दम घुटता है 

ऑक्सीजन की कमी है?

या

कविता समझ आने लगी हैं।

                      

शुक्रवार, जनवरी 12

नदी

नदी / अनीता सैनी ‘दीप्ति’
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कई-कई बार, कि हर बार 
तू बह जाने से रह गई?
कुछ तो बोल! क्रम भावों का टूटा 
आरोह-अवरोह बिगड़ा भाषा का 
कि कविता सांसें सह गई?

कैसे सोई धड़कन?
दरख़्त के दरख़्त कट गए!
हरी लकड़ियाँ चूल्हे में रोई नहीं?
मरुस्थल हुई मानवता या 
ज्वार नथुनों से बहा नहीं ?
क्वाँर की बयार कह गई 
कैसे रही तू ज़िंदा?
कैसे जीवन सह गई?

महामौन बिखरा अंबर का 
कैसे लौटी हवा आँगन की?
भावना विचलित बादलों की
गरजती हुए कह गई- “कि एक नदी के
सूखने भर की देर थी?
 कि जो भाषा न समझे उन्हें
प्रतिकों की परिभाषा समझ आने लगी?