बुधवार, अप्रैल 23

स्मृति के छोर पर

स्मृति के छोर पर / अनीता सैनी

२२ अप्रैल २०२५

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अपने अस्तित्व से मुँह फेरने वाला व्यक्ति,

उस दिन

एक बार फिर जीवित हो उठता है,

जब वह धीरे-धीरे

अपने अब तक के, जिए जीवन को

भूलने लगता है।


उसे समझ होती है तो बस इतनी कि

धीरे-धीरे भूलना

और

अचानक सब कुछ भूल जाना —

इन दोनों में अंतर है।

एक जीवन है,

तो दूसरा मृत्यु।


उसे जीवन मिला है —

वह धीरे-धीरे स्वयं को भूल रहा है,

क्योंकि वह अब भी

भोर को ‘भोर’ के रूप में पहचानता है।

जब वह सुबह उठता है,

तो वह

सुबह को ‘सुबह’ के रूप में पहचानता है।


वह

‘न पहचान पाने’ की पीड़ा को भी पहचानता है।


वह दिन में नहीं सोता —

इस डर से नहीं कि रात को उठने पर

कहीं वह रात को

‘रात’ के रूप में पहचान न पाया तो,

बल्कि इसलिए 

कि वह 

दिन को ‘दिन’ के रूप में पहचानता है,

और स्वयं को पुकारता है 

टूटती पहचान की अंतिम दीवार की तरह।


शनिवार, अप्रैल 19

नीरव सौंदर्य

नीरव सौंदर्य / अनीता सैनी

१८अप्रैल २०२५

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आश्वस्त करती

अनिश्चितताएँ जानती हैं!

घाटियों में आशंकाएँ नहीं पनपतीं;

वहाँ

मिथ्या की जड़ें

गहरी नहीं, अपितु कमजोर होती हैं।


वहाँ अंखुए फूटते हैं

उदासियों के।


जब उदासियाँ

घाटियों में बैठकर कविताएँ रचती हैं,

तब उनके पास

केवल चमकती हुई दिव्य आँखें ही नहीं होतीं,

अपार सौंदर्य भी होता है।


नाक, सौंदर्य का एक अनुपम उदाहरण है,

जिसकी रक्षा आँखें आजीवन करती हैं।

वे यूँ ही नहीं कहतीं—

"कविता प्यास है न हीं तृप्ति

बस

एक घूंट पानी है।"

सोमवार, अप्रैल 14

प्रतीक्षा का अंतिम अक्षर

प्रतीक्षा का अंतिम अक्षर / अनीता सैनी
१४अप्रेल २०२५
……
और एक दिन
उसके जाने के बाद
उसकी लिखी वसीयत खँगाली गई।

कमाई —
धैर्य और प्रतीक्षा।

लॉकर नहीं कोई,
दीवारों ने मुँहज़बानी सुनाई।

समय गवाह था —
न कोई कोर्ट-कचहरी,
न कोई दावा करने वाला।

गहरी विडंबना की घड़ी थी वह...
उस एक दिन,
वे पाँव से कुचली गईं।