शुक्रवार, सितंबर 26
चेतना का मानचित्र
शनिवार, सितंबर 20
प्रतीक्षा में खड़ी हूँ
रविवार, सितंबर 14
नमी की आवाज़
नमी की आवाज़
✍️ अनीता सैनी
दुपहर अब भी दूरियों को खुरचती है,
बादलों ने करवट नहीं बदली—
फिर भी बरसात उतर आती है।
वे पगडंडियाँ जंगल तक नहीं पहुँचतीं,
पेड़ पानी पीकर
नदियों की प्यास भुला देते हैं।
ओसारे में टपकती बोरियाँ
भीतर रखे दाने भिगो देती हैं।
दीवारों से सीलन रिसती है,
कोनों का दिया बुझकर
धुआँ छोड़ जाता है।
दिन—
आँगन में भीगी लकड़ियाँ समेटता है।
साँझ—
कागज़ का थैला सँभालते हुए
अनाज के संग
समय का भार भी ढोती है।
भूल जाते हैं सब—
गली के उस मोड़ पर
वही कौआ काँव-काँव करता है।
पाँवों के निशान मिटते नहीं,
मिट्टी में धँसकर
अस्तित्व की जड़ों में बदल जाते हैं।
हवा खिड़कियाँ झकझोरती है,
चूल्हे की हांडी उबलकर
घर की निस्तब्धता को गूँज में बदल देती है।
बरामदे के पौधे
अधिक पानी पीकर झुक जाते हैं—
मानो विनम्रता का भार उठाए हों।
रात के हाथ
आटे में भीगकर सफेद हो जाते हैं।
सन्नाटा
अपनी थाली बजाकर याद दिलाता है—
कि बरसात अब भी होती है।
और तुम्हारे पाँव हैं कि —
पराई धरती पर भी
अपनी मिट्टी खोज लेते हैं।