शनिवार, दिसंबर 21

समझ फुसफुसा रही है




समझ सभी की समझ से फुसफुसा रही है, 
किसी की ज़्यादा किसी की कम दौड़ लगा रही है, 
हदों के पार ताकती कुछ तो बुदबुदा रही है, 
झुरमुट बना कभी झाँकती दरीचे से, 
कभी ख़ुद को महफूज़कर रही है |

सन्नाटें संग दौड़ती मनगढंत कहानी सुना रही है,  
सुने-सुनाये को दोहराती चीख़ती जा रही है,
समझ ही है जिसे समझ का अभाव समझा रही है,  
  सही क्या है ग़लत क्या है अनुमान पर थिरकती,  
हर एक के दिमाग़ का फ़ितूर बन,  
न चाहते हुए दंगों का हिस्सा बन रही  है |

ज़ुबाँ से ज़िंदगियों को ज़िंदा निगल रही है,
शब्दों के जहां में शब्दों से शब्दों के बाण चला रही है,  
जागरुकता का यह कैसा अभियान चला रही  है, 
हृदय पर आक्रोश का मचलता कैसा सैलाब है, 
खेल किसी का समझ से खेल कोई रहा है,  
तलाश रहा मन कहाँ शांति की मशाल है | 

 ज़माने को प्रभुत्त्व की यह कैसी ख़ुमारी चढ़ी है,
वक़्त को मेरे ईश्वर यह हुआ क्या है,
 इंसान अब इंसान नहीं धर्म का दरोगा बन गया है, 
मानवीय सिद्धांतों को दरकिनार कर,
क्यों स्वयं को विराजमान कर ख़ुदा बन गया है |

 © अनीता सैनी 

14 टिप्‍पणियां:

  1. एक जागरूक कवि का हृदय मन जब आसपास होने वाली घटनाओं को आत्मसात करके अपनी कलम के जरिए उस दर्द को अपनी कागज में उतारता है निश्चिंत ही पढ़ने वाली की मन में कवि की भावनाएं जो वो कहना चाहता है सीधे अंदर तक चली जाती है...
    वर्तमान में हो रही हर घटनाओं को आपने बहुत ही बेहतरीन ढंग से कलमबंद किया है..। बिल्कुल सही कहा इंसान अब इंसान नहीं रहा वह धर्म का दरोगा हो गया और धर्म को लेकर दंगे करता है धर्म को लेकर सवाल करता है धर्म को लेकर अपने विचार रखता है बहुत ही गहरी बात आपने आपकी कविता में आज कही,
    बेहतरीन कविता आपको बहुत-बहुत बधाई

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    1. बहुत सारा स्नेह प्रिय अनु सुन्दर और सारगर्भित समीक्षा हेतु.
      सादर स्नेह

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  2. मैंने अभी आपका ब्लॉग पढ़ा है, यह बहुत ही शानदार है।
    मैं भी ब्लॉगर हूँ
    मेरे ब्लॉग पर जाने के लिए
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    1. सहृदय आभार आदरणीय उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
      सादर

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  3. अगर कुर्सी पर बैठा हुआ शख्स खुद को खुदा समझ रहा है तो तुम उसको सज्दा करो, उसकी क़दम-बोसी करो, उसकी इबादत करो और उसके नाम का कलमा पढ़ो. अपने ज़मीर की कभी मत सुनो. करो वही जो कि आज का आक़ा चाहता है.
    इस से उसको सुकून मिलेगा और तुमको इनामात और कोई अच्छा सा ओहदा !

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    1. सादर नमन आदरणीय सर आप का आज को लताड़ना वाज़िब है. और राजनीति का जो चेहरा सामने आ रहा है सायद शब्द नहीं है परन्तु क्या हर बात का विरोध सही है इस प्रावधान की खामियाँ क्या है जो इस तरह इस का इसु बनाया जा रहा. क्या बेवज़ह मज़हब के नाम की खाई खोदना ठीक है.

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  4. ज़माने को प्रभुत्त्व की यह कैसी ख़ुमारी चढ़ी है,
    वक़्त को मेरे ईश्वर यह हुआ क्या है,
    इंसान अब इंसान नहीं धर्म का दरोगा बन गया है,
    मानवीय सिद्धांतों को दरकिनार कर,
    क्यों स्वयं को विराजमान कर ख़ुदा बन गया है |
    वाह!!!!
    बहुत ही लाजवाब समसामयिक चिन्तनपरक रचना

    खेल किसी का समझ से खेल कोई रहा है,
    तलाश रहा मन कहाँ शांति की मशाल है |
    एकदम सटीक....

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    1. सादर आभार आदरणीया दीदी जी सारगर्भित समीक्षा हेतु.
      सादर

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  5. वक़्त को मेरे ईश्वर यह हुआ क्या है,
     इंसान अब इंसान नहीं धर्म का दरोगा बन गया है,

    बिलकुल,आज के हालत के दर्द की झलक स्पष्ट दिख रही हैं ,बस खुद विवेक जागृत रखें ,सादर स्नेह

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    1. सादर आभार आदरणीया कामिनी दीदी जी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
      सादर सस्नेह

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