सोमवार, अप्रैल 27

इस दौर के दोहरे प्रहार


मैंने अपने ही आचार विचारों को,  
सत्य संदर्भ के साथ जोड़ दिया,  
इस दौर के दोहरे-तिहरे प्रहार ने,   
अशेष मानवता को निचोड़ लिया। 

गौण गरिमा बरकरार उनकी रहे, 
उक्ति से समय पर संवार लिया,  
सवेदंनाओं की तपन से तपता मन,  
मुँह खोलने पर धिक्कार दिया। 

हुनरमंदों के बिखरे हुए हैं हुनर,   
देख खेतिहर एक पल रो दिया,  
सफ़ेदपोशी तय करेगी क़ीमत देख, 
अश्रुओं ने पीड़ा को ही धो दिया। 

स्वप्नसुंदरी भविष्य की बल्लरी को, 
आत्मीयता से सींचो और बढ़ने दो, 
खोल दो हृदय से चतुराई की गाँठ, 
गाड़ दो बल्ली रस्सी का सहारा दो। 

©अनीता सैनी 

13 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (29-04-2020) को   "रोटियों से बस्तियाँ आबाद हैं"  (चर्चा अंक-3686)     पर भी होगी। -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    कोरोना को घर में लॉकडाउन होकर ही हराया जा सकता है इसलिए आप सब लोग अपने और अपनों के लिए घर में ही रहें। आशा की जाती है कि अगले सप्ताह से कोरोना मुक्त जिलों में लॉकडाउन खत्म हो सकता है।  
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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    1. सादर आभार आदरणीय चर्चामंच पर स्थान देने हेतु.
      सादर

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  2. वाह..... अद्भुत शानदार रचना

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    1. सादर आभार आदरणीय दीदी आभारी हूँ आपकी
      सादर

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  3. इस दौर के दोहरे-तेहरे प्रहार ने,
    अशेष मानवता को निचोड़ लिया।

    सही कहा आपने ये प्रहार बची-खुची मानवता को भी निचोड़ रहे हैं
    हुनरमंदों के बिखरे हुए हैं हुनर,
    देख खेतिहर एक पल रो दिया,
    सफ़ेदपोशी तय करेगी क़ीमत देख,
    अश्रुओं ने पीड़ा को ही धो दिया।
    बहुत ही मर्मस्पर्शी लाजवाब सृजन।

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    1. सादर आभार आदरणीया दीदी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
      आभार हूँ दीदी आपकी

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  4. बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  5. हृदयस्पर्शी सृजन अनीता ! सस्नेह...

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  6. "हुनरमंदों के बिखरे हुए हैं हुनर,
    देख खेतिहर एक पल रो दिया,
    सफ़ेदपोशी तय करेगी क़ीमत देख,

    अश्रुओं ने पीड़ा को ही धो दिया।"...

    वाह! बहुत ख़ूब! तीखा कटाक्ष!
    हुनरमंद हों या खेतिहर इनके श्रम और उत्पाद की क़ीमत सत्ताधारी राजनीति तय करती है जबकि राजनीति के साथ अपनी मिलीभगत के चलते उद्योगपति अपने उत्पाद की क़ीमत स्वयं तय करते हैं।
    हालाँकि रचना सीधे-सीधे प्रहार करती नज़र नहीं आती है फिर भी देश हुए समाज के छल-कपट से भरे ज्वलंत मुद्दों की ओर पाठक का ध्यान आकृष्ट करती है।


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    1. सादर आभार आदरणीय सर सुंदर सारगर्भित समीक्षा हेतु.
      आशीर्वाद बनाये रखे.

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