बुधवार, फ़रवरी 9

बसंती बेला



मरू धरा रे आँगण माही

सज बसंती संसार है।।

मोर-पपीहा झूमे-गावे 

बरस रह्या मद्यसार है।।


भाव पखेरू मुग्ध मगण हो 

डाळ-डाळी पर झूळतो।

कोपळ सतरंगा री फुट्ये

कसूमळ बदळा घूळतो।

कण-कण राग आलाप सोवे 

बदळी ढके आसार है।।


भूंगळ भेरी मशका तुरही

होंठा बाँसुरी ताण है।

हिवड़े हिलोर अळगोजा री 

पूँगी साध री शाण है।

दशुं दिशायाँ भर हिळकोरा 

जळ तरंगी अपसार है।।


उपवण धोरा लाग्य सोवणा

डाळ्य-डागळ कोंपल फूट।

खेत-खळिहान कुआँ-बावड़ी

 लिपट्य बेल-बूटा टूट।

दोणों हाथ लुटावे कुदरत

मंगळ  घड़ी अभिसार है।।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


शब्दार्थ 

आँगण -आँगन।

मद्यसार- शब्द मुग्ध होने के भाव से है।

मगण-मगन।

हिलोर-ऊँची लहर।  

डाळ-डाळ-डाल डाल।

कोपळ-कोंपल।

फुट्ये-नव अंकुर आना।

डूबयों-डूबना।

बादळ-बादल।

भूंगळ, भेरी,मशका,तुरही,अळगोजा-

यह राजस्थान के प्रशिद्ध वाद्य यंत्र हैं।

हिळकोरे-तरंग।

मंगळ-मंगल।

लिपटी,लिपटना-आलिंगन करना।

22 टिप्‍पणियां:

  1. बसन्त ऋतु में मरूधरा की प्राकृतिक सुन्दरता खेत खलिहानों और। पल्लवित सरसों में देखते ही बनती है । मनोरम दृश्यों को सजीव करता अप्रतिम सृजन अनीता जी !

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    1. हृदय से आभार आदरणीय मीना दी जी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
      सादर स्नेह

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10.02.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4337 में दिया जाएगा| आप इस चर्चा तक जरूर पहुँचेंगे, ऐसी आशा है|
    धन्यवाद
    दिलबाग

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    1. हृदय से आभार सर मंच पर स्थान देने हेतु।
      सादर

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  3. मरूभूमि की माटी की उर्वरता चाहे अन्य माटियों की उर्वरता से कुछ भिन्न हो, वसंत तो उस पर भी अपना प्रभाव दर्शाता ही है। वहाँ भी खेत-खलिहानों और कुओं-बावड़ियों में वासंती गंध उतरती ही है, कोयल वहाँ भी कूकती है, मयूर वहाँ भी झूमता है तथा कसूमल रंग वहाँ भी बिखरता है। मैं चाहे कहीं भी रहूँ, चाहे किसी भी भाषा में स्वयं को अभिव्यक्त करूं; राजस्थान मेरे हृदय में बसता है, राजस्थान की संस्कृति मेरे रोम-रोम में व्याप्त है। मरूधरा के ग्रामीण क्षेत्र में जन्मा एवं पला-बढ़ा हूँ। आपके राजस्थानी गीत बहुत-सी स्मृतियों को उनके ऊपर आई समय की धूल को उड़ाकर पुनः नवीन कर देते हैं। तुरही, अलगोजा एवं भेरी जैसे वाद्य स्वयं न भी सुने हों तो उनके विषय में अनंत कुशवाहा, विजयदान देथा एवं लक्ष्मीकुमारी चूंडावत द्वारा प्रस्तुत कथाओं में तो पढ़ा ही है। स्मरण होता है ग्राम्य अंचल में होने वाले उन विवाहों का जिनमें ऐसे वाद्य बजा करते थे एवं ऐसे किसी भी समारोह का उत्सव सरीखा वातावरण कई सप्ताहों तक विद्यमान रहा करता था। आज राजस्थानी भाषा की रचनाएं पढ़ना ही दुर्लभ हो गया है। ऐसे में आपके प्रयास भी किसी वासंती वायु के झोंके से कम नहीं। अत्यंत प्रशंसनीय गीत रचा है आपने।

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    1. हृदय से आभार आदरणीय जितेंद्र जी सर आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया मेरा संबल है भाषा के प्रतिक्रिया आपका उदार दृष्टि कोण सराहनीय है।
      आपकी प्रतिक्रिया मेरी ऊर्जा है।
      सादर

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    1. हृदय से आभार आदरणीय माथुर जी सर।
      सादर

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    1. हृदय से आभार आदरणीय जिज्ञासा जी।
      सादर

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  6. प्रिय अनिता अपनी माटी, अपनी हवा, अपनी परम्पराएं और अपनी भाषा सब जीवन की उत्कृष्ट धरोहर हैं, हम दूर रहते हैं पर फिर भी हमारे हर व्यक्तिक परिचर्चा दिनचर्या में राजस्थानी परम्पराएं दूध में मिश्री सी घुली हैं,आप बहुत भाग्यशाली हो अपने हर आनंद को अपने में से रही आत्मा सा भोग रही हो,और इतने प्यारे गीत अपनी बोली में लिख रही हो ।
    बहुत ही मनोरम बसंत वर्णन।किया आपने लगता है पतझर की आँधियों सी हवाएँ अब हार कर बैठ गई हैं और पौधों पर नई कोंपले फूटने लगी है , मोर, पपीहा, गिलहरियाँ और पेड़ों पर निंबौलियाँ खेतों से पहले की बाड़ियाँ निपजने लगी है।
    हरियाली दिखने लगी है, अब तो आम पर भी मिंझर आने लगे हैं।
    और आप सब को देख रहीं हैं हम सिर्फ महसूस कर रहें हैं।
    बहुत सुंदर सृजन।👌👌🌷🌷

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    1. आपका स्नेह मिला दी अपार हर्ष हुआ। आपका स्नेह संबल है। यह आभासी जीवन यथार्थ से बहुत सुंदर है बहुत ही सुंदर। ब्लॉग जगत से मिला स्नेह जैसे संभाले नहीं संभल रहा है।
      आपकी प्रतिक्रिया से लग रहा है ज्यों में आपके पास बैठी हूँ और आपकी सारी बातें सुन रही हूँ।
      कितना रचा बसा है गाँव हमारे हृदय में शहरी जीवन से तो अब घुटन होने लगी है।
      आपका स्नेह मिला अत्यंतहर्ष हुआ।
      स्नेह आशीर्वाद बनाए रखें।
      सादर प्रणाम

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  7. आंचलिक भाषा के विस्तार को बाखूबी अंजाम दे रही हैं आप ...
    एक से बढ़ कर एक रचनाएं ...

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  8. मन आह्लादित हुआ इस बसंती बेला में। अति सुन्दर सृजन।

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    1. हृदय से आभार आदरणीय अमृता दी जी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
      सादर

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