शनिवार, जनवरी 28

बोधि वृक्ष



नर्क की दीवार खंडहर
एकदम खंडहर हो चुकी है
हवा के हल्के स्पर्श से 
वहाँ की मिट्टी काँप जाती है
कोई चरवाह नहीं गुजरता उधर से
और न ही
पक्षी उस आकाश पर उड़ान भरते हैं 
मुख्य द्वार पर खड़ा 
 बोधि वृक्ष
बुद्ध में लीन हो चुका है एकदम लीन 
उसने समझा 
समय की भट्टी में
मनोविकारों के साथ 
धीरे-धीरे
जलने में ही परमानंद है
ख़ुशी हँसाती है न दुख रुलाता है
और न ही कोई विकार सताता है
भावनाओं की इस
मौन प्रक्रिया में शब्द विघ्न हैं 
प्रकृति के साथ एकांतवास वैराग्य नहीं 
प्रेम है कोरा प्रेम
सच्चे प्रेम की अनुभूति है 
प्रकृति मधुर संगीत सुनाती है
आकाश बाँह फैलाए तत्पर रहता है
गलबाँह में जकड़ने हेतु
अंबर प्रेमी है
उसकी आवाज विचलित करती है 
अनदिखे में होने का आभास
कोरी कल्पना नहीं
अस्तित्व है उसका 
उसकी पुकार को  
अनसुना नहीं किया जा सकता
सम्राट अशोक भी दौड़े आए थे 
उसकी  पुकार पर
नर्क के द्वार को लाँघते हुए 
बुद्ध में लीन होने।

@अनीता सैनी 'दीप्ति

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर कविता।

    जवाब देंहटाएं
  2. नमस्ते,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 20 अप्रैल 2023 को 'राहें ही प्रतिकूल हो गईं, सोपानों को चढ़ने में' (चर्चा अंक 4657) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    जवाब देंहटाएं