मंगलवार, मार्च 28

भिक्षुक


वह भिक्षुक 

निरा भिक्षुक ही था !!

उसने हवा चखी, दिन-रात भोगे

रश्मियों को गटका

चाँद से चतुराई की 

यहाँ तक

पानी से खिलवाड़ करता

पेड़-पौधों को लीलता गया

मैंने कहा-

भाई! सुबह से शाम तक कितना जुटा लेते हो ?

वह एक टक घूरता रहा

परंतु वे आँखें उसकी न थीं 

कुछ समय पश्चात बड़बड़ाया 

वे शब्द भी उसके अपने कमाए न थे 

 गर्दन के पीछे

 अपने दोनों हाथ कसकर जकड़ता है 

दीवार का सहारा लेता है 

सोए विचारों को जगाने का प्रयास करता है 

परंतु वे विचार भी उसके अपने न थे 

 उसकी अपनी कमाई पूँजी कुछ न थी 

आँखें, न आवाज़ और न ही विचार 

उधारी पर टिका जीवन

 बद से बदतर होता गया 

पश्चाताप की अग्नि में

जलता हुआ आज कहता है-

मैं अपनी आवाज़

अपने विचार और आँखें चाहता हूँ

बहुत पीड़ादायक होता है भाई!

डेमोक्रेसी में आवाज़ का खो जाना।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, मार्च 19

पहाड़

कुछ लोग उसे

पहाड़ कहते थे, कुछ पत्थरों का ढ़ेर

उन सभी का अपना-अपना मंतव्य

उनके अपने विचारों से गढ़ा सेतु था 

आघात नहीं पहुँचता शब्दों से उसे 

परंतु अभी भी 

टुकड़ों-टुकड़ों में तोड़े जाने की प्रक्रिया 

या कहें…

खनन कार्य अब भी जारी था  

कार्य प्रगति पर था 

सभी के दिलों में उल्लास था  

पत्थर उठाओ, पत्थर हटाओ की रट 

 सुबह से शाम तक हवा में गूँजती

हवा भी अब इस शोर से परेशान थी  

लाँघ जाता उसके लिए पत्थर 

टकरा जाता वह कहता था पहाड़

परंतु अब वह फूल नहीं था 

उसे फूल होना गवारा नहीं था 

उसे मसला जाना गवारा नहीं था।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'