रविवार, मार्च 19

पहाड़

कुछ लोग उसे

पहाड़ कहते थे, कुछ पत्थरों का ढ़ेर

उन सभी का अपना-अपना मंतव्य

उनके अपने विचारों से गढ़ा सेतु था 

आघात नहीं पहुँचता शब्दों से उसे 

परंतु अभी भी 

टुकड़ों-टुकड़ों में तोड़े जाने की प्रक्रिया 

या कहें…

खनन कार्य अब भी जारी था  

कार्य प्रगति पर था 

सभी के दिलों में उल्लास था  

पत्थर उठाओ, पत्थर हटाओ की रट 

 सुबह से शाम तक हवा में गूँजती

हवा भी अब इस शोर से परेशान थी  

लाँघ जाता उसके लिए पत्थर 

टकरा जाता वह कहता था पहाड़

परंतु अब वह फूल नहीं था 

उसे फूल होना गवारा नहीं था 

उसे मसला जाना गवारा नहीं था।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-03-2023) को  "चैत्र नवरात्र"   (चर्चा अंक 4650)   पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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  3. बेहद भावपूर्ण रचना।

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  4. समय बदल रहा है और मान्यताएँ भी

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