मीरा — एक अंतरध्वनि
कविता / अनीता सैनी
१७ जून २०२५
....
अंतः स्वर
ध्वनि और दृश्य का
एक गहरा द्वंद्व है।
धरती के गर्भ से
फूटा था जो
उष्ण लावा —
अब शीतल राख बन चुका है।
बिखरे भावों में उलझा
एक चोटिल जीवन —
जो जीना तक
भूल चुका है।
हाथों में
एकतारा — या तानपुरा,
वाणी में
झरता है
निस्संग प्रेम…
यह तुम्हारे
दृश्यों का द्वंद्व है —
जहाँ
ध्वनि को तुम “भजन” कहते हो,
और
दृश्य को — “मीराँ”।
सच्चे प्रेम में सारे द्वंद्व खो निर्द्वन्द्व एक हो जाते है । बहुत सुंदर रचना ... !
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में शनिवार 21 जून 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंवाह!प्रिय अनीता ,बहुत खूबसूरत सृजन!
जवाब देंहटाएंअंतर्मन के द्वंद्व को बाहर निकालना आसान नहीं,,,बहुत सही,,,
जवाब देंहटाएं