सोमवार, सितंबर 28

भ्रम का भार


उसके रुँधे कण्ठ में पानी नहीं था 
शर्म स्वयं का खोजती अस्तित्व 
चित्त से उलझ कोलाहल में लीन 
भावबोध से भटक शब्द बन चुकी थी।

शब्द मौन साधे स्वर की खोज में 
दरकती चुप्पी संग सन्नाटे से मिला 
उधार के शब्दों ने शब्द माँगे भाव से भीगे 
हृदय के कपाट पर चाहत मलने के लिए।

चोट के अनंत निशान नवाँकुर से उभरे 
कुछ व्यर्थ के शब्द बिखरे मन आँगन में 
अर्थ के नुकीले दाँत प्रभाव में खिसियाए 
निंदा के ठहरे होंठ भी द्वेष में थिरके।

घाव बबूल के काँटों से गहरे पड़े मन में 
शब्द सहमे चित्त का उद्गार बिका बाज़ार में 
देख जीवन लकीरों का टूटा डेढ़ापन 
भ्रम का भार तड़प-तड़पकर रोया।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शनिवार, सितंबर 26

वर्तमान की पीर


 कुछ दौड़  कुछ होड़ हारने की  
पेपर पर स्याही उड़ेल गलाने की   
किसानों का निवाला छीनने की थी 
देह दर्द से टूटी थी आसमान की  
शब्दों में पीड़ा पनपी थी धरती के 
प्रसन्नचित जीवन अश्रुपूर्ण लिबास में 
अंतस अधीर  बेचैनी झरता पात थी 
डर देहरी पर बिस्तर बिछाए बैठा  था।

चौराहों  की रौनक छीन ली गई 
गलियों को उनकी हैसियत बताई 
पत्थर पर पैर पल-पल जीवन को 
मारने के लिए मजबूर किया गया 
सफ़ेद चील ने तजरबा के कान छिदवाए 
संस्कार कह रस्मों की माला पहनाई।

2020 का  बर्बरतापूर्ण भयावह रुप 
दीवारों को चुप्पी की चादर ओढ़ाई 
निर्ममता की हदें ढहाता दिमाग़ का पानी 
संतोष को निगलता छद्म की अगुवाई में था 
क़दमों तले वर्तमान को कुचलता साहिर था।

इंसानों के कलेजे को काट तरक़्क़ी को 
तनावमुक्त करने का वादा गढ़ा  
विश्व व्यथित घुटन में देश का समीर 
विकृति मानव के मस्तिष्क पर सवार 
घटनाओं की नहीं यह वर्तमान की पीर थी।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

सोमवार, सितंबर 21

मर्तबान


मर्तबान को सहेज रखती थी रसोई में 
मख़मली यादें इकट्ठा करती थी उसमें मैं 
जब भी ढक्कन हटाकर मिलती उन  से 
उसी पल से जुड़ जाती अतीत के लम्हों से 
चिल्लर जैसे खनकतीं थीं वे यादें दिल में 
एक जाने-पहचाने एहसास के साथ  
उसे छूने पर माँ के हाथों का स्पर्श
 महकने लगता अंतरमन के कोने में 
जब कभी भी वह  हाथ से फिसलता 
डर मुट्ठी में समा हृदय में उतर जाता  
कहीं टूट न जाए ,छूट न जाए 
फिसल न जाए हाथ से मेरे 
माँ का साथ आशीर्वाद समझ 
अनजाने में उससे बातें करने लगी 
गंभीर मुद्रा में वह मेरी बात सुनता 
कभी-कभी माँ का चेहरा उभर आता उसमें 
आज मेरे हाथ से टूट बिखर गया मर्तबान ।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, सितंबर 17

तरक़्क़ी की महक


अबोध मन को समझाना न झुँझलाना तुम 
आश्वासन की पटरी पर अंधा बन न लेटा करे।
तरक़्क़ी की महक फैलाती दौड़ती है लौहपथगामिनी !
उत्साह के झोंके की रफ़्तार को यों न बाँधा करे।

तुम समझ नहीं पाओगे पकड़ नहीं पाओगे गति को 
गोल-गोल घूमती गंतव्य का अभाव है अभी भी ।
उन्नति के बादल गढ़ती ज़हरीले धुआँ से 
अपेक्षा को पालना झुलाना निरर्थक है अभी भी।

तुम समझ के पतवार बाँधो हवा को समझो 
निर्जीव प्रयासों को जीवितकर पानी पिलाओ।
एक आँख से न ही दोनों आँखों से जग को निहारो 
सूखे कुएँ की पाल पर झूलती टहनी पर बैठी 
  चमगादड़ की चाकरी को न पुकारो अभी भी।

तुम भींत पर बने विभिन्न भिंतीचित्र नहीं हो 
न ही क़र्ज़ का भार उठाए कमर से कटे किसान हो 
डूँगर पर टहलते बिन तार के खंभे न बनो 
न ही खंडहर में पड़े लावारिश पाषाण बनो 
वीरानियाँ पहने पालते हो सांसों को अपनी 
तुम चाँदनी को निहारो उसी की बातें किया करो 
वह जागीर है प्रतिष्ठा है शीश पर रखी पगड़ी है तुम्हारी।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

बुधवार, सितंबर 16

यादें


विहंग दल की भाँति 
डैने फैलाए लौट आतीं हैं यादें 
वे इंसान नहीं कि 
नहीं लौटे दोबारा 
बंधनों की दहलीज़ 
लाँघ मिलतीं हैं अपनत्व से
पुकारतीं हैं 
अपनों की परछाई बन  
उन्हीं के स्वर में 
नयन गढ़ लेते हैं भावों की 
 गुँथी से जीवित छायाचित्र 
सेवा भाव का यह सागर 
हर लेता है मन की पीड़ा 
तब सुकून का सैलाब 
सवार होता है हर सांस पर 
एक वक़्त के खाने में
 उड़ेल समर्पण 
गाय,कौवे में उन्हें 
तलाशती है अंतर्चेतना   
अँजुरी में भरा पानी 
श्राद्धपक्ष में श्रद्धा के पुष्प बन 
अंतस की नमी से 
आँखों के भिगों देता है कोर
अपनों की याद में।

@अनीता सैनी'दीप्ति'

गुरुवार, सितंबर 10

विचित्र खेल है खेलते जाना है !


 समय को समझ के फेर में उलझाते हुए 
हृदय की अगन को सुलगाते  रहना है। 
शालीनता के मुखौटे की आड़ में 
ईर्ष्या  के छाले शब्दों पर जड़ते जाना है। 

विचित्र खेल है परंतु खेलते  जाना 
खेलने वाला हर व्यक्ति को विजेता कहलाना है। 
आम आदमी  को मौलिकता का चश्मा लगाना  
मिथ्या की बेल पर यथार्थ को चढ़ाते जाना है।  

घर न घरवालों की परवाह 
विवेक की कोख में अहम को पालना है।  
महत्वाकांक्षा के धरातल पर 
पौध द्वेष की सींचते दर्शकों को लुभाते जाना है। 

उलझनों की खाई खोदते हुए 
गद्दी पर आधिपत्य बनाए रखना है। 
सफलता के वृक्ष लगाने के बहाने से 
वर्तमान को दफ़नाना भविष्य को छलते जाना है। 
बस यही खेल आज खेलते जाना है !

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शनिवार, सितंबर 5

चुप्पी की दीवार


आँधी को देखकर अक्सर मैं 
सहम-सी जाया करती थी 
धूल के कण आँखों में तकलीफ़ बहुत देते 
न चाहते  हुए भी वे आँखों में ही समा जाते 
समय का फेर ही था कि आँधी के बवंडर में छाए 
अँधरे में भी किताबें ही थामे रखती थी 
हँसने वाले हँसते बहुत थे
विचारों की उलझन शब्दों की कमी 
सदा ख़ामोश ही रहती 
तब और आज भी मेरी प्रीत पाहुन-सी थी 
दोस्ती के  चंद सिक्के भी थे मेरी मुठ्ठी में 
पहले दादा फिर दादी सास अंत में पापा की 
थामी थी अँगुली मैंने 
जाने अनजाने में हम बाप-बेटी 
अक्सर उम्मीदों की पोटली बदलने लगे 
कभी पापा मेरे शीश पर रखते 
कभी में पापा को थमा देती 
मैं उनका स्वाभिमान भी बनी  अभिमान भी 
दो रास्ते दो मंज़िलें एक साथ तय करने लगे 
संस्काररुपी गहने भी मिले  
उम्र से अधिक समझ के मोती भी मिले 
संघर्ष की बल्लरी पर सफलता के पुष्प भी खिले 
समय के इस मोड़ पर वह अँगुली 
आज स्थूल-सी लगी
ज़ुबाँ नहीं आँखें पुकारती-सी लगीं  
और मैंने चुप्पी की दीवार गढ़ी उसपर  
ज़िम्मेदारी की एक तस्वीर टाँग दी।

@अनीता सैनी'दीप्ति'


शुक्रवार, सितंबर 4

क्यों मौन है?


 मोती-सी बरसे बूँदें धरा के आँचल पर 
तब पात प्रीत के धोती है बरसात 
पल्लवित लताएँ चकित हैं अनजान-सी 
रश्मियाँ अनिल संग जोहती जब बाट है  
ऊँघते स्वप्न की समेटे दामन में सौग़ात 
पुकारती आवाज़ का कोलाहल क्यों मौन है?

धैर्य बादलों का टूटा या नभ से छूटा भार 
शनै:-शनै: तम का घटाओं ने गढ़ा आकार है  
जुगनुओं की बिखरी पाती पर शोक 
खिलते कमल के असुवन का पहने हार है 
गिरती गाज को देखकर मूँदे नयनों को 
चमक की मुस्कान पर आह्नान क्यों मौन है?

सीपी की कोख में विचलित मोती की वेदना
 हिम हिय पर तैरते श्यामल घन का बरसना 
 प्रभात कपोल पर भविष्य शिशु का सिसकना 
नक्षत्र बूँद का हरण मुकुल का मुरझाना 
स्वप्नशाला की शैया पर अट्हास का आहना  
निशा नींद के उच्छवास पर वर्तमान क्यों मौन है?

@अनीता सैनी 'दीप्ति'