सोमवार, जून 30

छलावा


छलावा / अनीता सैनी
२८जून २०२५
…..

प्रत्येक स्त्री जानती है —
हर दूसरी स्त्री की पीठ पर
जन्मजात
एक छलावा बैठा होता है।

फिर भी,
न जाने —
किस कवि की, किस कविता की
पंक्तियों के
सोए भाव बोल पड़े हैं—

कि वह,
गौखों और झरोखों से झाँकता
आसमान का एक टूटता तारा है,
जिसके कंधे पर मन्नतों की पोटली है।

उसके पास न पंख हैं, न आँखें —
फिर भी वह
देखना और उड़ना सिखाता है।

सूरज की
पहली किरण का रसपान कर
वह उठता है,
इसीलिए
पूर्णिमा के चाँद-सा चमकता है।

और अंततः —
स्त्री की दृष्टि में उतरकर
वह
एक नया आकाश रच देता है।

शुक्रवार, जून 20

दरकन

दरकन
……

कविता / अनीता सैनी
१७ जून २०२५

आओ! कुछ देर बैठो!!
दिखाऊँ तुम्हें
एक टूटा हुआ आदमी —
हौसले को
रफ़ू करता हुआ।

अभावग्रस्त —
न ढांडस की डोर,
न अपनेपन का थान,
न पराएपन की कतरन।

"टूटा हुआ आदमी?
अभावग्रस्त?
ढांडस की डोर?
अपनेपन का थान?
पराएपन की कतरन?"
चश्मे से बाहर झाँकती
आँखें बोलीं।

हाँ!
आदमी अपने से
टूट जाता है,
दरक जाता है —
स्त्री थोड़ी है वह
जो तोड़ी जाएगी —
इस बार नाक-मुँह
एक साथ बोले।



गुरुवार, जून 19

मीरा — एक अंतरध्वनि


मीरा — एक अंतरध्वनि
कविता / अनीता सैनी
 १७ जून २०२५
....

अंतः स्वर 
 ध्वनि और दृश्य का
 एक गहरा द्वंद्व है।

धरती के गर्भ से
 फूटा था जो
 उष्ण लावा —
 अब शीतल राख बन चुका है।

बिखरे भावों में उलझा
 एक चोटिल जीवन —
 जो जीना तक
 भूल चुका है।

हाथों में
 एकतारा — या तानपुरा,
 वाणी में
 झरता है
 निस्संग प्रेम…

यह तुम्हारे
 दृश्यों का द्वंद्व है —
 जहाँ
 ध्वनि को तुम “भजन” कहते हो,
 और
 दृश्य को — “मीराँ”।

रविवार, जून 1

कोख से कंठ तक

कोख से कंठ तक / अनीता सैनी
३०मई २०२५
….

भ्रम के बादल
भाव रचते हैं
आत्मा की गीली मिट्टी में —
प्रेम के अंखुए फूटते हैं।

तुमने देखा ही होगा —
मरुस्थल की कोख में
हिलोरे लेता समंदर,
मृगमरीचिका नहीं —
नागफनी को जन्म देता है।

और फिर,
उस नागफनी को
प्रेम में धीरे-धीरे सूखते हुए
भी,
तुमने देखा ही होगा?

और यदि
तुमने नहीं देखा —
तो बस इतना 
कि कैसे
उसके लिखे एक-एक प्रेम-पत्र,
उसी की काया पर उग आए थे
कांटे बनकर।