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सोमवार, जून 29

वह देह से एक औरत थी

[चित्र साभार : गूगल ]                             
   वह देह से एक औरत थी              
उसने कहा पत्नी है मेरी 
वह बच्चे-सी मासूम थी 
उसने कहा बेअक्ल है यह
अब वह स्वयं को तरासने लगी
उसने उसे रिश्तों से ठग लिया 
वह मेहनत की भट्टी में तपने लगी 
उसने कर्म की आँच लगाई 
 वह कुंदन-सी निखरने लगी 
 वह उसकी आभा को सह न सका 
उसकी अमूल्यता को आंक न सका 
वह सीपी के अनमोल मोती-सी थी 
अब वह उसके तेज को मिटाने लगा 
उसने उसे उसी के विरुद्ध किया
औरत को औरत की दुश्मन कह दिया
देखते ही देखते उसने उसके हाथ में 
 मूर्खता का प्रमाण-पत्र थमा दिया 
उनमें से एक की आँखें बरस गईं   
उसे औरतानापन कह पीटा गया
वहाँ सभी पुरुष के लिबास में थे 
मैंने भी अपने अंदर की औरत को 
आहिस्ता-आहिस्ता ख़ामोश किया 
  पूर्णरुप से स्वयं का जामा बदला 
उस औरत को मिटते हुए देखने लगी |

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, जून 25

एक चिट्ठी वर्तमान के नाम

                                           
समय की दीवार पर दरारें पड़ चुकीं थीं
सिमटने लगा था जन-जीवन
धीरे-धीरे इंसान संयम खो रहा था 
  मानव अपने हाथों निर्धारित 
किए समय को नकार चुका था
 उसने देखा अतीत कराह रहा है 
उसकी आँखें धँस चुकीं थीं 
चिंता से उसका चेहरा नीला पड़ चुका था   
 एक कोने में अंतिम सांसें गिन रहा था
 उसके ललाट पर चिंता थी
 चिंता में  छिपे थे कुछ जीवनोपयोगी विचार 
जो वो वर्तमान को देना चाहता था 
 वह बार-बार वर्तमान से आग्रह करता
 चारपाई के पास बैठने का 
परंतु वर्तमान की गोद में भविष्य था
जैसे ही वर्तमान बैठना चाहता भविष्य रोने लगता
भविष्य के रोने से वर्तमान विचलित हो उठता 
वह कभी अतीत से कुछ सीख नहीं पाया
  देखते ही देखते एक दिन अतीत ने
 जीवन की अंतिम सांस ली
उसी दिन बहुत तेज़ बारिश हो रही थी 
उसी बरसात में अतीत भी बह गया
उसके हाथ में एक चिट्ठी थी
 वह चिट्ठी वर्तमान के लिए थी
वर्तमान एक ज़िम्मेदारी के साथ आगे बढ़ रहा था 
उसे भविष्य की परवरिश की फ़िक्र सता रही थी
   अतीत की वह चिट्ठी कभी पढ़ ही नहीं पाया
 उसे वहीं समय की दीवार में छिपा दिया
पता ही नहीं चला कब वर्तमान 
अतीत की शैया पर लेट गया 
 समय का दोहराव हुआ,
वर्तमान भविष्य को गोद में लिए वहीं खड़ा था 
 अब उसे अतीत की कही बात याद आने लगी 
 परंतु उसके पास वह  समझ नहीं थी
 जो उससे पहले वाले अतीत के पास थी 
 उसे चिट्ठी याद आयी जो वहीं 
समय की दीवार में दबी थी। 
 उसने कँपकपाते होठों से वह चिठ्ठी पढ़ी -

प्रिय वर्तमान,

           जब यह चिट्ठी तुम्हारे हाथ में होगी,
मैं तुमसे बहुत दूर जा चुका होऊँगा
 तुम्हारे पास उस समय इतना वक़्त भी नहीं होगा 
कि तुम मेरे बारे में  विचार कर सको 
तुम्हें भविष्य की फ़िक्र है, होनी भी चाहिए
 मैं देख रहा हूँ 
तुम्हारी इच्छाएँ भविष्य को लेकर तुम से द्वंद्व कर रहीं हैं
भविष्य को निखारने की चाह तुम्हें भटकाव का रास्ता न दिखा दे
मैं यह नहीं कहता कि तुम मुझे सीने से लगाए रखो
 परंतु कभी-कभार साइड मिरर समझ देखना भी ज़रुरी होता 
भविष्य को गिरने से बचाने के लिए
मुझे आज भी याद हैं
 जब मैं स्वयं की पीठ थपथपाया करता था
छोटी-छोटी ख़ुशियों पर मुस्कुराया करता था 
मेरी राह में भी अनगिनत रोड़े थे
 परंतु मैंने विवेक नहीं खोया
कुछ परिस्थितियाँ संयोग से बनतीं हैं
 कुछ हम स्वयं बनाते हैं 
आगे बढ़ने की चाह किसकी नहीं होती 
परंतु मैं अपना दायरा कभी नहीं भूला 
प्रभाव को नहीं गुणवान को दोस्त बनाया करता था 
अमेरिका,ब्रिटेन बुरे नहीं परंतु मैंने रुस से हाथ मिलाया था 
 अंतिम समय में 
मैं तुमसे कुछ कहना चाहता था 
तुम कौनसे नशे में थे!
तुमने करतूत चीन की भुलाई क्यों ?
गलवान घाटी को लहू से नहलाया क्यों ?
 मैं नहीं भविष्य यही प्रश्न दोहराएगा
मेरे प्रश्न पर एक और प्रश्नचिह्न लगाएगा।

तुम्हारा अतीत 
25/06/2020

©अनीता सैनी 'दीप्ति' 

मंगलवार, जून 23

दोहन दिमाग़ का



                                       

स्वयं की सार्थकता दर्शाते 
पंखविहीन उड़ना चाहते ऐसे चितेरे हैं।   
दुविधा में फिरते मारे-मारे   
देख रुखी-सूखी डालें समय की 
सभ्यता के जंगल में विचरते
  बदलते लिबास ऐसे बहुरुपिये बहुतेरे हैं। 

जीवन-वृक्ष की काटते टहनियाँ 
 जतन से बीनते स्वप्नरुपी डंठल। 
प्रत्येक डंठल पर लाचारी जताते  
फिर भी आज्ञा कह एकत्रित करते। 
उम्र की टोकरी अकारण  ढोते  
प्रगति की पवन का पीटते कोरा ढिंढोरा हैं।  

 संकुचित हो वे आड़े-तिरछे चलते  
निगाह चुराए कुछ भयभीत-से हैं। 
फुसफुसाहट अक्षर नवसाक्षर की-सी 
उलझन लिए दबे स्वर में कलरव-से गा उठे। 
मायावी लताओं से गूँथी व्यवहार की टहनियाँ 
प्रकृति का नहीं दोहन मानव दिमाग़ का होना है। 

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

शुक्रवार, जून 19

क्षणभंगुर नहीं थे वे



सत्ता की भूख से 
भरी थी वह मिट्टी 
तब खिले थे 
परोपकार के सुंदर सुमन। 
सेकत गढ़ती उन्हें 
हरसिंगार स्वरुप में। 
विलक्षण प्रभाव देख 
 दहलती थी दुनिया। 
क्षणभंगुर नहीं थे वे 
अनंत काल तक 
हृदय पर शीतल पवन-सा
 विचरते विचार थे।  
भाव-गांभीर्य का उन्माद 
 सभाचातुर्य की लहर 
स्वयं में विशिष्ट 
और अविस्मरणीय थे वे।   
जीवन उनका 
पेड़ की लुगदी होना नहीं था।  
सत वृक्ष के पुंकेशर से गढ़े
 सत्य के पुष्प थे वे। 
राजनीति के दोहरे धरातल पर खिली 
दुर्लभ मंजरी थी उसने कहा था मुझे। 
विचारों की गंध से 
ये विहग उसके इर्द-गिर्द विचरते। 
सुरक्षा का संभालते थे दायित्त्व। 
उसके तेज को 
धारण करते थे आँखों में।  
आज एकाएक 
करुण स्वर में वे पुकारते दिखे। 
बर्फ़ की शिला में सुरक्षित जीवित थे
आज भी वे जीवनमूल्य। 
कलाम जी अटल जी के जैसी देह गढ़ते 
सत्ता की मिट्टी पर खिलते हैं 
मानवता की मोहक महक लिए। 

©अनीता सैनी 'दीप्ति'



बुधवार, जून 17

बिडंबना घाटी की पड़ोसी न बदल पाई

  

लहू से सने शरीर राह की अथक ललकार 
विधि ने लिखे मानव के अनकहे अधूरे थे अधिकार। 
लंबे सफ़र की सँकरी गली के दूसरे मोड़ की लड़ाई 
बिडंबना घाटी की  पड़ोसी न बदल पाई। 

कच्ची डोरियाँ पुनीत सूत से बँधे बँधन बाँधती 
द्बेष-तृष्णा अंहकार के चलते वे रिश्ते आरियों से काटती। 
और न जाने कितनी बार जाएगी वह छली   
उजड़ी राह आँखों के कोर में खारा पानी लिए जली। 

एक नदी की दो धारा दोनों का सार्थक था प्रवाह 
ठौर ढूँढ़ते अविरल बहते न माँगते कभी छाँह। 
कौन आंके मोल इस अनमोल शीतल जल का 
मूल्य गढ़ता पड़ोसी मूल्यहीन विचारों में न मिली थाह। 

© अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, जून 14

हृदय की फटन से सांसें फटकन-सी लगी



 हृदय की दरारों से सांसें फटकन-सी लगीं। 
पीड़ा आँगन में पसरी थी अदृश्य याचक की तरह। 
आँखें झुकाए नमी से हृदय की फटन छिपा रही थी। 
 कभी स्वाभिमान के मारे शब्दों से ढाका करती थी उन्हें। 

बिवाई समझ हृदय में मोम गलाकर भरा करती थी मैं। 
 गंगाजल छिड़ककर सांसें उपयोगी बनाया करतीं थीं। 
परंतु वे आँखें अब सहारा तलाश रहीं थीं। 
उसकी बिखरती मनःस्थिति को मैं संभाल न सकी। 

मेरे हृदय का गलना उस वक़्त व्यर्थ था महज दिखावा
क्योंकि उसके हृदय की फटन से प्रश्न रिस रहे थे
और में निरुत्तर थी। 
यह मैं और मेरे देश की भटकती व्यवस्था थी। 
हम व्यवस्थित दहलीज़ की झिर्रियों से झाँक रहे थे। 

© अनीता सैनी 'दीप्ति'

शनिवार, जून 13

स्वतंत्र चित्त से


उल्लास से कहता उजाले की दहलीज़ पर।  
स्वतंत्र चित्त से जीवन की उस ढलान पर।  
झोली फैलाए याचक याचना की उम्मीद पर। 
आँखों की झपकी भर अस्मिता उधार माँगता। 

 न ही अंधकार का पहरा था न ही दीन था। 
 अनदेखे रुप में काँटों से  करता मिन्नतें।   
 सौ गुना सूद के साथ लौटाने की बात पर। 
 पैरों में कंकड़ की चुभन उधार माँगता। 

  अकुलाहट के भँवर में तड़पता अहर्निश। 
 भीख में फैलाता झोली हर एक द्वार पर।  
 शब्दों से नहीं आँखों से बरसाता इच्छा। 
साथ साया हो उसका यही उधार माँगता। 

  अपनेपन की सिहरन रिश्तों की बेड़ियाँ। 
  लड़खड़ाते शब्दों से सांसों के द्वार खोलता।
मौन याचक न जाने वह कौन था। 
  पेड़ की छाल से कठोरता उधार माँगता। 

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

शुक्रवार, जून 12

'एहसास के गुँचे' का अनावरण करती बेटी साक्षी '


 कल 'एहसास के गुँचे' मेरा प्रथम काव्य-संग्रह छपकर मेरे हाथ में पुस्तक के रूप में आया तो ख़ुशी का ठिकाना न रहा। यह ख़ुशी आपके साथ साझा करते हुए भावातिरेक से आल्हादित हूँ। 

ब्लॉग लिखते-लिखते ख़याल आया कि लेखन को पुस्तक का रूप दिया जाय और अपने सृजन को कॉपी राइट के तहत सुरक्षित किया जाय। प्रकाशक की खोज में अक्षय गौरव पत्रिका में प्राची डिजिटल पब्लिकेशन का विज्ञापन मिला। स्क्रिप्ट भेजी गयी जो स्वीकृत हुई। पुस्तक प्रकाशन की अनेक जटिल प्रक्रियाओं से गुज़रते हुए पुस्तक छपते-छपते लॉकडाउन का दौर शुरू हुआ तो प्रकाशन कार्य जहाँ का तहाँ रुक गया। जून 2020 में अनलॉक-1 की शुरुआत हुई तो कल (11 जून 2020) 'एहसास के गुँचे' मुझ तक पहुँची।
आपको यह सूचना देते हुए मन प्रफुल्लित है। अपने सृजन को पुस्तक रूप में देखना सुखद अनुभूति से भरता समय है। आपके स्नेह और आशीर्वाद की अपेक्षा है।      

180 पेज की पुस्तक 'एहसास के गुँचे' तीनों फ़ॉर्मेट में उपलब्ध है-
1. हार्ड कवर (ISBN 978-9387856-13-5 ) मूल्य 450 रुपये 
2. पेपर बैक  (ISBN 978-93-87856-14-1) मूल्य 240 रुपये 
3. ई-बुक  ( 978-93-87856-19-6 ) मूल्य   120 रुपये
प्रकाशक : प्राची डिजिटल पब्लिकेशन, मेरठ 
प्रकाशन वर्ष : 2020 

विभिन्न ऑनलाइन स्टोर्स (अमेज़ॉन,गूगल बुक्स, इंडी बुक्स,प्राची डिजिटल पब्लिकेशन आदि ) पर पुस्तक उपलब्ध करा दी गयी है। 

 @अनीता सैनी 

गुरुवार, जून 11

रण है जीवन


व्योम से बरसती धूप देखकर 
बादल का टुकड़ा दौड़कर आ गया। 
कब जागेगा सोया मानस? 
धरा की परतें पिघलीं पानी सोख गया।  

मुग्ध मलयज के झोंकें 
लेप चंदन का हृदय को भा गया। 
सुख-समृद्धि की पनपती इच्छा  
नीम के बौर-सी मिठास भा गयी। 

जीवन-रण चेत उठी सूखी लहू की धार 
सुन सूखे पत्तों-सी दूरन्त मद्धिम पुकार। 
हिलोरें भरती स्मृतियाँ दिगंत पर बैठीं  
टेसुओं संग मधुदूत निज गीत गा गया। 

बिखरे भाव बीधता हिमालय पर्वत 
सीने के अनगिनत घाव छिपा गया। 
प्रीत  की मनसा बाँधे पैरों से पाहन 
श्वेत बिस्तर हिम का भा गया।

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

शनिवार, जून 6

जाने मन मसी का क्यों टूट रहा !


सागर के सूनेपन में उलझन 
है ज्वार-भाटा में दुःख फूट रहा। 
मर्मान्तक वेदना लिखती क़लम 
जाने मन मसी का क्यों टूट रहा !

पुरवाई  फूल-पत्तों संग गाती 
है बँधन खुशबू का छूट रहा।  
चाँद-तारों के साथ नीलांबर 
जाने भाग्य धरा का क्यों फूट रहा !

 अधिकारबोध मानव दर्शाता 
है धरणी का एक-एक टुकड़ा पीड़ा को पीता। 
 बँटवारे की व्यथित मनसा मानव की ढोता 
 जाने समय विधि को क्यों लूट रहा !

भानु की किरणें प्रभात लिखतीं  
है चंद्र शीतल चाँदनी छिटकाता।  
सृष्टि संज्ञा त्याग नित गढ़ती पथ पर 
जाने कर्म से सत्कर्म क्यों छूट रहा !

©अनीता सैनी  'दीप्ति'

गुरुवार, जून 4

अभिनय



आसमानी पंडाल से सजा था 
अनुकरण का वह भव्य रंगमंच। 
 अभिनय की सार्थकता दर्शाने में
 व्यस्त था जीवन। 

 कभी ताकता स्वयं को 
कभी जाँचता अभिनय को। 
धमनियों में उफनता जुनून
 किरदार करना था जीवंत। 

हर कोई हर किसी के निभाए 
अभिनीत किरदार को नकारता। 
समर्थकों के समर्थन से था
 आकलन जीवंत अभिनय का। 

 टूटने-बिखरने का हक नहीं था 
उनमें  से किसी किरदार को। 
टूटने-बिखरने वाले की सांसें 
छीन लीं जातीं या लील जाता अभिनय। 

 कलाकार कलाकारी में मुग्ध रहते 
और देह पत्थर रुप में ढलती गई। 
 सूखती संवेदना पथराई आँखें 
वह जीवन नहीं अभिनय था। 

मैं भी अभिनय के उस दौर में 
धूप से तपा पाषाण बनती गई। 
संताप न वेदना न साथ अश्रुओं  का 
ज़ेहन में एक विचार अभिनय था। 

© अनीता सैनी  'दीप्ति'


मंगलवार, जून 2

कुछ पंछी



तारों भरी रात शीतल आकाश में कुछ पंछी
 डैने सिकोड़े निकले हैं उन्मुक्त उड़ान पर। 
नींद में ऊँघता है जब पृथ्वी का कण-कण 
तब गंत्तव्य में ढूँढ़ते हैं अनुत्तरित प्रश्न । 

अरण्य में खोजते सांस बिला जीवन 
दंश में साहस बटोरते अमल विनय से। 
धैर्य का पुष्प खिलाते अर्द्धयामिनी में 
उम्मीद बाँध पैरों पर चलते इत्मिनान से। 

मुग्ध हैं चाँदनी बिखेरते चाँद को देख  
तुहिन-कणों से प्राप्त प्रेम के कण बीनकर। 
अंतस से फूटते करुण स्वर हैं गूँजते  
भारमुक्त हो संज्ञा में तिरते पाहन के। 

अँधियारी रात बिछड़ते कुछ साथी 
कुछ ज़ख़्मी हो लौटते उड़ान भरने को।  
हवा की स्वरबंदी धरा से अथाह स्नेह 
झींगुरों की आवाज़ में ठहरे वे सुस्ताने को। 

© अनीता सैनी 'दीप्ति'