@अनीता सैनी 'दीप्ति'
गूँगी गुड़िया
अनीता सैनी
रविवार, 10 जनवरी 2021
बिछोह में

सोमवार, 4 जनवरी 2021
यथार्थ
आज-कल यथार्थ
लोकप्रियता के शिखर पर है
सभी को यथार्थ बहुत प्रिय है
जहाँ देखा वहीं
यथार्थ के ही चर्चे हैं
अँकुरित विचार हों या
कल्पना की उड़ान
शब्दों की कोंपलों में
यथार्थ की ही गंध मिलती है
मन-मस्तिष्क में उठते
भावों की तरंगें हों या
क़ागज़ पर बिखरे शब्द
यथार्थ ही कहते हैं
हर कोई यथार्थ के चंगुलों में
यथार्थ खाते हैं,यथार्थ पहनते हैं
यथार्थ संग सांसें लेते हैं
यथार्थ के आग़ोश में बैठी
ज़िंदगियाँ हिपनोटाइज़ हैं
जिन्हें समझ पाना बहुत कठिन
समझा पाना और भी कठिन है।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, 31 दिसंबर 2020
31 दिसंबर
वह चला गया
कुछ बड़बड़ाते हुए
फिर कभी न लौटने के
वादे के साथ
ख़ामोशी की धुँध में
उदासी को ओढ़े
मानवमंशा से मिले ज़ख़्मों को
स्वाभिमान की चादर से
बार-बार ढकता हुआ
पलकें झुकाए
न हिला न डुला
न कुछ बोला
बस चला गया चुपचाप।
मन की वीथियाँ
बुहारती-बुहारती
थक गई थी मैं
थकान मेरे कंधों पर
ज़िद से आ बैठी
और एक-दो तमाचे मैंने भी जड़े
एक क्षण पलकें उठाईं
दिल की गहराइयों में उतर
गलती पूछी थी उसने
फिर ओढ ख़ामोशी की चादर
कुछ कहा न सुना
अनसुने कर मेरे अहसास
बस चला गया चुपचाप।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, 27 दिसंबर 2020
सुराही पर
बहुत दिनों से बहुत ही दिनों से
सुराही पर मैं तुम्हारी यादों के
अक्षर से विरह को सजा रही हूँ
छन्द-बंद से नहीं बाँधे उधित भाव
कविता की कलियाँ पलकों से भिगो
कोहरे के शब्द नभ-सा उकेर रही हूँ।
उपमा मन की मीत मिट्टी-सी महकी
रुपक मौन ध्वनि सप्त रंगों-सा शृंगार
यति-गति सुर-लय चितवन का क़हर
अक्षर-अक्षर में उड़ेला मेघों का उद्गार
शीतल बयार स्मृतियों के पदचाप
मरु ललाट पर छाँव उकेर रही हूँ।
प्रीत पगे महावर संग मेहंदी का लेप
काँटों की पीड़ा कलियों से छिपाती
अनंत अनुराग भरा घट ग्रीवा तक
जगत उलाहना हँस-हँस लिखती
किसलय पथ उपहार जीवन का
वेदना उन्मन चाँद की उकेर रही हूँ।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, 24 दिसंबर 2020
कुरजां और प्रेम
पाहुन कुरजां
स्मृतियाँ छोड़ ज़ेहन में
उड़ जाते हैं सुने नभ में
प्रभात के मोती सज़ा
दूधिया पँखों पर
पी संदेश है सुनाता
मन-विथियों में विचरता
खुली आँखों में स्वप्न लिए
कुहासे में है खो जाता
होठों पर चुप्पी लिए
भावना से छूना
आना और चले जाना।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'

सोमवार, 21 दिसंबर 2020
शब्द
ज़िद की झोली कंधों पर लादे आए !
शब्दों के झुरमुट को
चौखट से लौटाया मैंने
ओस की बूँदों ने बनाया बंधक
बग़ीचे की बेंच पर ठिठुरते देखे!
मुझ बेसबरी से रहा नहीं गया
बहलाने निकली उन्हें
परंतु चाहकर भी कुछ कहा नहीं गया
तो क्या सभी सँभालकर रखते हैं ?
शब्दों के उलझे झुरमुट को
क्योंकि शब्दातीत में समाहित होते हैं
अर्थ के अथाह भंडार
झरने का बहना चिड़िया का चहकना
प्रभात की लालिमा में क्षितिज का समाना
या निर्विकार चित्त की संवेदना तो नहीं शब्द?
मरु से मिली ठोकरें सिसकती वेदना तो नहीं है?
कृत्रिम फूलों पर मानव निर्मित सुगंध हैं शब्द?
तो क्या? भावों के भँवर में उलझी ज़िंदगियाँ हैं ?
अंतस का पालना झुलाती शब्दों को मैं
तभी तो,चाहकर भी कुछ कहा नहीं गया।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, 17 दिसंबर 2020
कशमकश की सीलन
तुम बहुत मजबूर हो!
दरख़्त के तने का खुरदरापन
दर्शाता है कशमकश की सीलन
शाख़ पर झूलती ज़िम्मेदारी
समय से पहले पत्तों का पीलापन
बात यहीं से शुरु करनी चाहिए।
हम भूलने लगे हैं दरख़्त की छाँव
उस पर बने पक्षियों के आशियाने
महकते खिलखिलाते सुर्ख़ फूल
टहनियों से नाज़ुक संबंधों को
अब विचारों के फटे कंबल से
थकते अहसास झाँकने लगे हैं।
प्रेम की पगडंडियों से परे हम
पहुँच गए हैं पथरीले रास्तों पर
झंझावातों के काँटे कुरेदते-कुरेदते
उलझनों के घने कोहरे में विलीन
चलने लगे हैं नींद के पैरों से
समझौते की सड़क के किनारे-किनारे।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'

मंगलवार, 15 दिसंबर 2020
कैसे?
बहुत भिन्न हैं वे तुम लोगों से
तुम्हारे लिए वाकचातुर्यता शग़ल है
तलाशते हैं वे संबल तुम्हारे कहे शब्दों में
तुम षड्यंत्र की कोख से
नित नए पैदा करते हो शकुनी
हुज़ूर! समय पर फेंके पासे कैसे छिपाओगे?
तुम तरक़्क़ी की सीढ़ियों को
गोल-गोल घुमावदार बनाते हो
उन पर ग़लीचा गुमान का बिछाया
अपेक्षा को उन्नति का जामा
उद्देश्य को लिबास प्रगति का पहनाया
कूड़े के ढ़ेर पर महल मंशा का कैसे सजाओगे?
ज़िद को सफलता का मफलर
उस पर तमगेनुमा बटन जड़वाए
फटे कुर्ते पर रफ़ू नुमा सिलाई
धागे को सुंदरता के ढोंग से ढका है
भविष्य की काया से लपेटी हैं कतरन
कड़ाके की बहुत ठंड है दिसंबर में
तुम असफलता कैसे छिपाओगे?
@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, 6 दिसंबर 2020
बहुत बुरा लगता है
अनदिखे में तुम्हारे होने का आभास
दिल को इतना भी बुरा नहीं लगता
बुरा नहीं लगता इंतज़ार के दरमियाँ
पनपने वाले प्रेम को पोषित करना।
बुरा नहीं लगता शब्दों के सागर में
भावनाओं के ज्वार-भाटे का उतार-चढ़ाव
बुरा नहीं लगता पैरों को भिगोती लहर का
किनारे पर आकर लौट जाना।
बुरा नहीं लगता उतावलेपन में झाँकती
ज़माने की ऐंठन भरी उलाहना से
कभी-कभी खटकता है समय का
स्मृतियों के सिरहाने बैठ सहलाना।
बुरा नहीं लगता हवा की आहट से
विचलित धड़कनों को सुलाना
परंतु बहुत बुरा लगता है तुम्हारे द्वारा
पुकारे जाने की आवाज़ को अनसुना करना।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
