कुछ लोग उसे
पहाड़ कहते थे, कुछ पत्थरों का ढ़ेर
सभी का अपना-अपना मंतव्य
अपने ही विचारों से गढ़ा सेतु था
आघात नहीं पहुँचता शब्दों से उसे
परंतु अभी भी
टुकड़ों-टुकड़ों में तोड़े जाने की प्रक्रिया
या कहें…
खनन कार्य अब भी जारी था
कार्य प्रगति पर था
सभी के दिलों में उल्लास था
पत्थर उठाओ, पत्थर हटाओ की रट
सुबह से शाम तक हवा में गूँजती
हवा भी अब इस शोर से परेशान थी
लाँघ जाता उसके लिए पत्थर
टकरा जाता वह कहता था पहाड़
परंतु अब वह फूल नहीं था
उसे फूल होना गवारा नहीं था
उसे मसला जाना गवारा नहीं था।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'