माँ के पास शब्दों का टोटा
हमेशा से ही रहा है
वह कर्म को मानती है
कहती है-
”कर्मों से व्यक्ति की पहचान होती है
शब्दों का क्या कोई भी दोहरा सकता है।”
उसका मितभाषी होना ही
मेरी लिए
कविता की पहली सीढ़ि था
मौन में माँ नजर आती है
मैं हर रोज़ उसमें माँ को जीती हूँ और
माँ कहती है-
”मैं तुम्हें।”
जब भी हम मिलते हैं
हमारे पास शब्द नहीं होते
कोरी नीरवता पसरी होती है
वही नीरवता चुपचाप
गढ़ लेती है नई कविताएँ
माँ कविताएँ लिखती नहीं पढ़ती है
मुझ में
कहती है-
"तुम कविता हो अनीता नहीं।"
@अनिता सैनी 'दीप्ति'