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शनिवार, मई 27

प्रतीक्षारत


बँधी भावना निबाहते 

हाथ से मिट्टी झाड़ते हुए

 खुरपी से उठी निगाहों ने 

 क्षणभर वार्तालाप के बाद 

अंबर से

गहरे विश्वास को दर्शाया

 चातक पक्षी की तरह

कैनवास पर लिखा था-

 प्रतीक्षारत!


"किसी बीज का वृक्ष

हो जाना ही प्रतीक्षा है।”

अज्ञेय के शब्दों के सहारे

कविता में

 स्वयं को आवाज़ लगाता

धोरे बनाता 

कुएँ से पानी

रस्सी के सहारे खींचता

बीज सींचता 

विश्वास में लिपटा

शून्य था पसरा 

आस-पास कोई वृक्ष न था

कुएँ से लौटी खाली बाल्टी 

उसमें पानी भी कहाँ था?


अनीता सैनी 'दीप्ति'


बुधवार, मई 17

योगी मन

साहित्य के गर्भ से जन्मा
श्वेत रुधिर कणिकाओं-सा 
प्रकृति का अनमोल अंश था 
दिनभर की थकान के बाद
आधी रात को आँखें मलते हुए 
सुनाता था लोरियाँ 
मेरे 'मैं' को सुलाने के लिए 
'अज्ञेय' तो कभी
'मुक्तिबोध' की कविताएँ पढ़ता 
एक-एक कविता को कई-कई बार पढ़ता 
मन जेष्ठ की तपती दुपहरी 
रोहिड़े के फूलों से भाव बीनता 
जादू की छड़ी था 
दुःख से नहीं प्रेम से उपजा  
दुःख में भी प्रेम ही लिखता
चर-अचर निस्वार्थ भाव से निहारता 
उसी भाव से स्वयं को देखना सिखाया
बहुत कठिन होता है
स्वयं को निरपेक्ष भाव से देखना
गहन मनोयोग के बाद उसी ने समझाया।


  @अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, मई 11

उसने कहा


"उस महल की नींव में

न जाने कितने ही मासूम परिंदे 

दफ़नाए गए हैं 

महल की रखवाली के लिए

कितना कुछ दफ़न है ना 

हमारे इर्द-गिर्द।"

उसने मेरी ओर देखते हुए कहा 

मैंने पूछते हुए टोका 

"और उस घर की नींव में?"

ख़ामोशी से घूरता रहा वह

 ख़ुद की परछाई को पानी में

घिस चुकी इच्छाएँ

तैर रही थीं 

मछली की तरह 

उन्हें उच्चारना ही नहीं 

उकेरना भी भूल गया 

भावशिल्प ही नहीं

शब्द शिल्प भी 

आँखें धुँधरा गई 

बेमौसम की बारिशें पीकर  

पलकें भीगी न बूँद छलकी

वे बस बुद्धमय हो गईं।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, मई 4

मैं का अंकुर

 'इसलिए' 'किसलिए' मिलकर
 रिश्तों को दफ़नाने के लिए
जब गहरी खाई खोदने लगे 
'आप' से 'तुम' और 'तू' पर
ज़बान का लहजा अटक जाए 
'तू'-'तू' के इस खेल में
'मैं' के बीज का अंकुर फूटने लगे 
भावों की नदी अविरल 
दिन-रात उसे सींचने लगे  
तब तुम थोड़ा-सा
लाओत्से को पढ़ लेना।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शनिवार, अप्रैल 29

एक और चिट्ठी


सुरमई साँझ होले-होले

उतरने लगे जब धरती पर 

घरौंदो में लौटने लगे पंछी 

तब फ़ुर्सत में कान लगाकर 

तुम! हवा की सुगबुगाहट सुनना

 बैठना पहाड़ों के पास 

 बेचैनी इनकी पढ़ना

संदेशवाहक ने

नहीं पहुँचाए  संदेश इनके 

श्योक से नहीं इस बार तुम 

सिंधु से मिलना 

जीवन के कई रंग लिए बहती है

तुम्हारे पीछे  पर्वत के उस पार 

जहाँ उतरी थी सांध्या 

तुम कुछ मत कहना

एक गीत गुनगुना लेना 

छू लेना रंग प्रीत का

हाथों का स्पर्श बहा देना 

छिड़क देना चुटकी भर थकान

आसमान भर परवाह

प्रेम की नमी तुम पैर सिंधु में भिगो लेना।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शनिवार, अप्रैल 15

तथागत


अबकी बार

पूर्णिमा की आधी रात को 

गृहस्थ जीवन से विमुख होकर 

जंगल-जंगल नहीं भटकेंगे तथागत 

और न ही

पहाड़ नदी किनारे खोजेंगे सत 

उन्होंने एकांतवास का

मोह त्याग दिया है 

त्याग दिया है 

बरगद की छाँव में

आत्मलीन होने के विचार को 

उस दिन वे मरुस्थल से

मिलने का वादा निभाएंगे

भटकती आँधियाँ 

उफनते ज्वार-भाटे

रेत पर समंदर के होने का एहसास  देख 

जागृत होगी चेतना उनकी 

वे उसका का माथा सहलाएंगे

तपती काया पर

आँखों का पानी उड़ेलेंगे 

मरुस्थल का दुःख पवित्र है

उसे आँसुओं से धोएंगे 

उसकी  देह के 

बनते-बिगड़ते धोरों की मुट्ठी में

बंद हैं

तुम्हारी स्मृतियों के मोती।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

मंगलवार, मार्च 28

भिक्षुक


वह भिक्षुक 

निरा भिक्षुक ही था !!

उसने हवा चखी, दिन-रात भोगे

रश्मियों को गटका

चाँद से चतुराई की 

यहाँ तक

पानी से खिलवाड़ करता

पेड़-पौधों को लीलता गया

मैंने कहा-

भाई! सुबह से शाम तक कितना जुटा लेते हो ?

वह एक टक घूरता रहा

परंतु वे आँखें उसकी न थीं 

कुछ समय पश्चात बड़बड़ाया 

वे शब्द भी उसके अपने कमाए न थे 

 गर्दन के पीछे

 अपने दोनों हाथ कसकर जकड़ता है 

दीवार का सहारा लेता है 

सोए विचारों को जगाने का प्रयास करता है 

परंतु वे विचार भी उसके अपने न थे 

 उसकी अपनी कमाई पूँजी कुछ न थी 

आँखें, न आवाज़ और न ही विचार 

उधारी पर टिका जीवन

 बद से बदतर होता गया 

पश्चाताप की अग्नि में

जलता हुआ आज कहता है-

मैं अपनी आवाज़

अपने विचार और आँखें चाहता हूँ

बहुत पीड़ादायक होता है भाई!

डेमोक्रेसी में आवाज़ का खो जाना।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, मार्च 19

पहाड़

कुछ लोग उसे

पहाड़ कहते थे, कुछ पत्थरों का ढ़ेर

उन सभी का अपना-अपना मंतव्य

उनके अपने विचारों से गढ़ा सेतु था 

आघात नहीं पहुँचता शब्दों से उसे 

परंतु अभी भी 

टुकड़ों-टुकड़ों में तोड़े जाने की प्रक्रिया 

या कहें…

खनन कार्य अब भी जारी था  

कार्य प्रगति पर था 

सभी के दिलों में उल्लास था  

पत्थर उठाओ, पत्थर हटाओ की रट 

 सुबह से शाम तक हवा में गूँजती

हवा भी अब इस शोर से परेशान थी  

लाँघ जाता उसके लिए पत्थर 

टकरा जाता वह कहता था पहाड़

परंतु अब वह फूल नहीं था 

उसे फूल होना गवारा नहीं था 

उसे मसला जाना गवारा नहीं था।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, फ़रवरी 26

औरतें


तुम ठीक ही कहते हो!

ये औरतें भी ना…बड़ी भुलक्कड़ होती हैं 

बड़ी जल्दी ही सब भूल जाती हैं

भूल जाती हैं!

चुराई उम्र की शिकायत दर्ज करवाना

ऐसी घुलती-मिलती हैं हवा संग कि 

धुप-छाव का ख़याल ही भूल जाती हैं 

भूलने की बड़ी भारी बीमारी होती है इन्हें

याद ही कहाँ रहता है कुछ

चप्पल की साइज़ तो छोड़ो

अपने ही पैरों के निशान भूल जाती हैं 

मान-सम्मान का ओढ़े उधड़ा खेश 

गस खाती ख़ुद से बतियाती रहती हैं

भूल की फटी चादर बिछाए धरणी-सी 

परिवार के स्वप्न सींचती रहती हैं 

बचपन का आँगन तो भूली सो भूली

ख़ून के रिश्तों के साथ-साथ भूल जाती हैं!

चूल्हे की गर्म रोटी का स्वाद

रात की बासी रोटी बड़े चाव से खातीं 

अन्न को सहेजना सिखाती हैं 

सच ही कहते हो तुम

ये औरतें भी न बड़ी भुलक्कड़ होती हैं 

समय के साथ सब भूल जाती हैं।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'