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सोमवार, जनवरी 13

बालिका वधू

बालिका वधू / अनीता सैनी
११जनवरी २०२५
……
बालिका वधू—
एक पात्र नहीं है,
ना ही
सफेद पंखों वाली मासूम परी है।
जिसके पंख काट दिए जाते हैं,
हाथ की छड़ी छीन ली जाती है।
तब उसका जादू
घर की चारदीवारी में नहीं चलता,
और सिर पर रखा पानी का मटका
हाथों से बार-बार गिर जाता है।
कभी चूल्हे की रोटी जल जाती है,
और
जली रोटी उसे आत्मग्लानि से भर देती है।

वह भी नहीं,
जिसमें पूरा परिवार
पच्चीस-तीस वर्ष की युवती ढूंढ़ता है।
और वह भी नहीं,
जिसके
पायल-बिछुआ चुभने पर
मां के सामने बच्ची की तरह
बिलख-बिलखकर रोती है।
वह तो कतई नहीं,
जिसने घूंघट न निकालने की ज़िद में
सप्ताहभर खाने का मुंह न देखा हो।

यह एक गांठ है,
पुरुष के अहं की गांठ,
जिसे एक स्त्री ताउम्र गूंथती है—
रूप-रंग, हाव-भाव, स्वभाव
और चरित्र की जड़ी-बूटियों से।

और एक दिन पुरुष इसे
खोलने की जद्दोजहद में अंधा हो जाता है।
इतना अंधा कि वह
अंधेपन में कई-कई ग्रंथ रच देता है।
और समय इसे
समझ न पाने की पीड़ा से जूझता है।


रविवार, जनवरी 5

बुकमार्क


बुकमार्क / अनीता सैनी

३जनवरी २०२५

……

पुस्तक —

प्रभावहीन शीर्षक,

आवरण, तटों को लाँघती नदी,

फटा जिल्द,

शब्दों में 

उभर-उभरकर आता ऋतुओं का पीलापन,

कुछ पन्नों के बाद

पाठक द्वारा लगाया बुकमार्क

 उसे रसहीन बताता रहा।


पुस्तक के अनछुए पन्ने,

व्यवस्थित रहने का सलीका ही नहीं,

मौन में मधुर स्मृतियों को पीना सिखाते रहे।

उसे बार-बार हिदायत देते रहे—

न पढ़ पाने की पीड़ा में

 न अधिक चिल्लाकर रोना है,

और न ही

ठहाका लगाकर हँसना है।

चेतावनी—

सिले होठों से भाव अधिक मुखर होते हैं।


इतने शालीन ढंग से टिके रहना,

कि समय

पन्नों से हवा के ही नहीं,

आँधियों के भी आँसू पोंछ सके।


पुस्तक— 

कोने में 

स्वयं को पढ़ती है, पढ़ती है

तटों को तोड़ती एक-एक धारा को।

उसे न पढ़ पाने की पीड़ा नहीं कचोटती,

कचोटता है—

बिना पढ़े लगाया बुकमार्क।



सोमवार, दिसंबर 30

पथ की पुकार

पथ की पुकार / अनीता सैनी 
२८दिसंबर२०२४
तुम कभी मत कहना
कि संयुक्त परिवार टूट रहे हैं,
पुश्तैनी घर ढह रहे हैं।
जर्जर होते दरवाज़े
अब किसी का हाथ पकड़कर नहीं पूछते—
"तुम कौन हो?
कहाँ से आए हो?
और कहाँ जा रहे हो?"

मत पूछना कि घर का बड़ा बेटा
छत बनकर क्यों नहीं ठहरता।
खिड़कियाँ मौन क्यों हैं?

तुम माफ कर देना,
माफ करना आसान हो जाता है
जब पता चलता है
कि ये गलियाँ आपको इसलिए धकेल रही थीं,
ताकि आप उन रास्तों से मिल सको
जो आपको पुकारते रहे हैं।

 गहरी अनहद पुकार, एक धीमा स्वर,
जो आपकी आत्मा ने सुना हो,
आत्मा समझ को समझा सके 
 कि पथ पुकारते हैं, मंज़िल नहीं।

शनिवार, दिसंबर 21

अवश स्वप्न

अवश स्वप्न / अनीता सैनी

२१ दिसम्बर २०२४

…..

वेदना दलदल है जो 

अमिट भूख लिए पैदा होती है।

बहुत पहले यह

कृत्रिम रूप से गढ़ी जाती है,

फिर यह

स्वतः फैलने लगती है।

 अंबर-सा विस्तार 

 चाँद न तारे 

बस सूरज-सा ताप 

चेतना ऐसी की पाताल को छू ले।


एकांकीपन इसका आवरण,

धीरे-धीरे और बढ़ा देता है।

फैलाव इतना बढ़ जाता है कि

वहाँ तक किसी का हाथ नहीं पहुँचता।

न ही रस्सियाँ डाली जा सकती हैं,

और न ही लट्ठे।


और एक दिन, 

अतीत

वर्तमान से भूख मिटाने लगता है

 और वह पौधा, उसी में समा जाता है।


रविवार, दिसंबर 15

टूटे सपनों का सिपाही


टूटे सपनों का सिपाही / अनीता सैनी
१०दिसम्बर२०२४
….
न देश है, न कोई दुनिया,
न सीमा है, न ही कोई सैनिक।
कोई किसी का नागरिक नहीं, ना ही नागरिकता।

एक खालीपन, और नथुनों से दौड़ती वेदना,
कई-कई पहाड़ों को पार कर,
चोटिल अवस्था में लुढ़कती और बस
लुढ़कती ही रहती है।

कहती है—
“उसे इतने वर्षों से गढ़ा जा रहा था।”
“शुभ संकेत है इस आभास का होना।”

कहते हुए वह खिलखिलाई,
और वह गहरे में टूट जाता है।

वे दोनों एक-दूसरे की आँखों में देखते हैं,
और देखते ही रहते हैं।
वह, माता-पिता के साथ बच्चों की गिनती करता है,
बच्चों के खोए माता-पिता को ढूँढ़ता है।

बारूद के ढेर पर खड़ा बिन पैरों को उचकाए,
हथियारों की निगरानी करता है,
और भी बहुत कुछ करता है, परंतु कहता नहीं।

वे शान के खिलाफ हैं।
कहता है—
“सबसे कठिन है खोए माता-पिता को ढूँढ़ना।
वे नहीं मिलते, और फिर बच्चों को बहलाना।”

उसे हथियार चलाने आते हैं।
कहता है—
“AK-47 साथ रखता हूँ।”

वह, वह सब कुछ करता है, जो उसे कहा जाता है।
एक शांति के दूत को,
यही सब गहरे में बैठकर खाए जाता है।

मंगलवार, नवंबर 26

छांव में छिपे रंग

छांव में छिपे रंग / अनीता सैनी 
२४नवंबर २०२४
….

एक दिन तुम
गहरी नींद से जागोगे 
और पाओगे
मिथ्या, कल्पना जैसा कुछ नहीं होता,
जो सभी कुछ होता है, यथार्थ होता है।

तब तुम्हें दिखेंगे
श्वास लेते स्वप्न।
नवंबर की गुनगुनी धूप
तुम्हारी पीठ पर
कई-कई प्रेम कविताएँ लिखेगी।

परंतु तब तुम पढ़ना
ठंड में ठिठुरते प्रतीक्षारत पत्तों की कहानियाँ।
तुम्हारे भाव तुम्हें विचलित करेंगे,
वे प्रतीक्षा को मिथक 
और
प्रीत को कल्पना कहेंगे।

तुम्हारे आस-पास तुम्हें कहीं नहीं दिखेगी
विरह की छाँव
और
वे विरहणियाँ, जो …।

तब तुम गाँव लौट जाना।
पगडंडियाँ भ्रमित करेंगी 
ईर्ष्यालु काँटे पाँव को चोटिल करेंगे।
 फिर भी तुम्हें 
 कांस से घायल हवा पुकारती हुई आएगी,
वह दिखाएगी
बरगद के नीचे बने चबूतरे को,
जहाँ
दुःख बहुतों द्वारा कुचला जाता है।



रविवार, नवंबर 17

हिज्र के साए


हिज्र के साए/ अनीता सैनी
१६ नवंबर २०२४

एक दिन
पर्वतों की पीड़ा धोने
अंबर ने बरसाया था हिज्र का नमक।

खपरैल टूटी थी समंदर की,
वे चुपचाप पी गए हर बूंद,
पर नदियाँ प्यासी रह गईं।

उखड़ी साँसें,
प्यास का बोझ 
वे भटकती रहीं जंगल-जंगल।

उस नीले कोरे काग़ज़ की तरह
जिसे न प्रेमी से लिखा गया,
न ही प्रेमिका से पढ़ा गया।

वह तारीख बनकर
धरती की आत्मा में धड़कता रहा,
उगता रहा
वर्ष दर वर्ष,
मरुस्थल की काया पर
नागफनी का दर्द लिए।



गुरुवार, नवंबर 14

अवसान के निशान


अवसान के निशान / अनीता सैनी 
९नवंबर २०२४
…..

जैसे-जैसे
उम्र का सिरहाना लेकर काया सोती है,
असल में तब वह जागती है।
तब वह कविताएँ नहीं रचती,
वह अपने ही पैरों के निशान लिखती है।

और एक दिन वह अपने ही
रचे को नकार देती है,
और कहती है —
"यह जो कहा गया है, सब झूठ है,
सच इन्हीं के कहीं पीछे छिप गया है,
बहुत पीछे।"

जैसे- 
चाँद छिप जाता है बादलों की ओट में,
और उसके साथ जुड़ जाता है,
होने न होने का गहरा आभास।

और तब,
सच की ऊँगली पकड़कर चलना
उसके लिए
एक और झूठ बन जाता है।

रविवार, नवंबर 3

अंतिम थपकी

अंतिम थपकी/ अनीता सैनी

२ नवंबर २०२४

….

जब जीवन के आठों पहर सताते हैं,

और तब जो थपकी देकर सुलाती है,

वही मृत्यु है।


 चार्ल्स बुकोवस्की ने कहा-

मृत्यु और अधिक मृत्यु चाहती है, 

और उसके जाल भरे हुए हैं:

मैंने कहा- 

नहीं, मृत्यु और अधिक मृत्यु नहीं चाहती है

वह और अधिक समर्पण चाहती है।

आसक्त जीवन से

प्रेमिकाओं वाला प्रेम चाहती है।


बहुत बुरी लगती हैं उसे पत्नियों वाली दुत्कार,

 समय गवाए बगैर

उसकी व्याकुलता भेजती है

छोटे-छोटे संदेश, छोटी-छोटी आहटें।


परंतु! उन्हें पढ़ा और सुना नहीं जाता,

अनभिज्ञता की आड़ में

उन्हें अनदेखा-अनसुना किया जाता है।


एकाकीपन नहीं है न किसी के पास 

कोई कैसे पढ़ें और सुनें?

तुम उन्हें पढ़ना और सुनना —

उसे पढ़ना-सुनना शांति को स्पर्श करने जैसा है