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गुरुवार, अगस्त 29

रास्ते में

रास्ते में /अनिता सैनी 
२७अगस्त२०२४
…..

मेरे बच्चे 
तुम दुःख-शोक मत मनाना 
अंबर की अपनी नियति है 
बादल आते हैं 
कुछ पल ठहर चले जाते हैं 
उसकी पुकार पर आँखें मूंद लेना
इस राह पर तुम अकेले नहीं हो 
तुम देखना!
उस दिन
बहुत जोरों की बरसात होगी 
बरसात में बरसते सुख समृद्धि के बीज 
दो-दो सूरज निकलेंगे 
वे दोनों सभी की पीड़ा हर लेंगे 
खुशियों के बीज अंकुरित होंगे 
मेरे बच्चे!
ईश्वर है
वह सभी की पुकार सुनता है
जैसे 
एक बहरा सुनता है संगीत
वह देखता है
सभी के क्रिया-कलाप  
जैसे 
एक अंधा देखता है सृष्टि
वह लिखता है सभी का भाग्य 
जैसे 
हाशिए को नकार 
एक कवि लिखता है अ-कविता।

गुरुवार, अगस्त 22

घूँट

घूँट /अनीता सैनी 
२०अगस्त२०२४
.....
चाँद सुलाने आया 
न सूरज जगाने 
ना हीं 
हवा ने कोई शोर किया 
 हे कान्हा!
बात सिर्फ़ इतनी-सी थी
सूखे दरख़्त के कोंपलें फूटने लगीं 
वह 
राहगीरों को आवाज़ देने लगा 
इसी पर राणा झुंझला उठे 
और कहा-
“मीरा को यातनाओं का जहर 
न पिलाया जाए 
वह इसकी आदी हो चुकी है।"
मैं तो मुस्कुराई भर थी।

गुरुवार, अगस्त 15

जीवन

जीवन / अनीता सैनी 
१३अगस्त२०२४
…..
मिट्टी बुहारती बरगद की 
बरोह-सा झूलता जीवन
मैं उस पर
मन्नतों की गाँठ बनकर ठहरा रहा 

ज्यों
प्रेमिकाओं की आँखों से बहते मनके 
सिसकियों के साथ ठहर जाते हैं सांसों पर 
ज्यों 
अवचेतन में ठहरा है अस्तित्व 
चेतना की प्रतीक्षा में 

आह! जीवन
तुझे 
सूरज का ताप 
धरती की गर्म साँसें झुलसाती रही 
फिर भी तू 
नीचे की ओर मजबूती से लटका हुआ 
एकाकीपन को जीता रहा।

बुधवार, जुलाई 31

अकेला

अकेला / अनीता सैनी 
३०जुलाई२०२४
……
मैंने 
वृक्ष की छाँव का मोह छोड़ दिया
फूलों से लदी टहनियों का भी 
छोड़ देना 
युद्ध से मुक्ति पाना है 
स्वयं के साथ लड़े जाने वाला युद्ध 
नहीं!वृक्ष की छाया नहीं थी वह 
वह एक भ्रम था जिसे 
मैं आजीवन पोषित करता रहा 
नहीं! वह भ्रम भी नहीं था 
वह मेरे 
मन के द्वारा भावों का बुना जाल था 
मकड़ जाल
तब मैं मकड़ी था और वह मकड़ जाल 
जाल में लिपटी काया दरकने लगी  
जैसे 
दरक जाती है ओस से बनी दीवार
मदद करो 
मदद करो, जीवन आवाज़ लगता रहा 
छाँव, भ्रम और मकड़ जाल हँसते रहे 
हँसना इनके खून में था 
परंतु उसे पता था 
मरुस्थल पाँव नहीं जलता 
ना ही वहाँ प्यास सताती है 
मरुस्थल में सतत बहता जीवन 
वीरानियाँ को सींचता है
हँसता नहीं।

बुधवार, जुलाई 17

गिरह

गिरह / अनीता सैनी 
१६ जुलाई २०२४
…….
गर्भ में पलता भविष्य 
अतीत के 
फफोलों पर लुढ़कता आँखों का गर्म पानी 
तुम्हारी करुणा की कहानी कहता है 
 
नथुनों से उड़ती आँधी
दिमाग़ के कई-कई किंवाड़ तोड़कर 
वर्तमान को गढ़ती  
सपनों पर पड़े निशान ही नहीं 
तुम्हारे वर्चस्व की दौड़ पढ़ाती है 


सांसों में फूटते गीत,भावों का हरापन 
कंदराओं का शृंगार ही नहीं 
तुझ में धरा को पल्लवित करता है 

हे मनस्वी!
मुक्त कर दो उन तमाम स्त्रीयों को
जो झेल रही हैं गंभीर संकटकाल 
तुम्हारी गिरह में…


शनिवार, जुलाई 13

आह! ज़िंदगी


आह! ज़िंदगी / अनीता सैनी 

१२जुलाई २०२४

……

…..और कुछ नहीं 

वे स्वीकार्य-सीमा की मेड़ पर खड़े 

गहरे स्पर्श करते अंकुरित भाव थे 

न जाने कब बरसात का पानी पी कर 

 अस्वीकार्य हो गए 

आह! ज़िंदगी लानत है तुझ पर 

भूला देना  खेल तो नहीं 

इंतजार में हैं वे आँखें वहीं जहाँ बिछड़े थे 

बार-बार उसी रास्ते की ओर 

पैरों की दौड़ का 

ये सच भी तूने भ्रम हेतु गढ़ा  

वे नहीं लौटेंगे 

कभी नहीं लौटेंगे 

सभी कुछ जानते होते हुए भी 

मैंने 

प्रतीक्षा की बंदनवार में 

साँसों की कौड़ी जड़

स्मृतियों के स्वस्तिक 

आत्मा की चौखट पर टांग दिए हैं 

एक बार फिर तुझे सँवारने के लिए।

शनिवार, जुलाई 6

बरसाती झोंका

बरसाती झोंका / अनीता सैनी 
०४जुलाई २०२४
………
उन दिनों 
ब्रिज पर टहलते हुए 
हमें
चुप्पियों ने जकड़ लिया 
आत्मा पर हथकड़ियाँ डाली 
अब हम 
प्रेम की कोठरी में कैदी थे 
अंधेरा डराता ना उज्जाला हँसाता 
हम रात-रानी के फूल से महकते 
तब भी हमें 
चुप्पियों ने जकड़ रखा था
परंतु 
तब हम बातें करते थे
वे मेरे गले का ऐसा हार थे 
जिससे मैं 
दुनिया के सामने 
ना धारण कर सकती थी
 और ना ही 
उतार कर फेंक सकती थी 
मोह के दल-दल में धँसते  
मेरे चोटिल भाव 
कंठ ने सिसकियाँ सोखी 
उनकी बोलती आँखें  
वे ब्रिज से सटे 
जंगल की ओर संकेत करतीं 
कैसे कहती उन्हें?
मेरे पाँव ने 
स्वार्थ की चप्पल पहनी हैं 
जिससे तुम अनभिज्ञ हो।

सोमवार, जून 24

अनुभूति


अनुभूति / अनीता सैनी 

२३जून२०२४

……

प्रकृति पर मलकियत जताने 

वाले वे सभी उसके मोहताज थे 

यह उन्हें नहीं पता था 

क्योंकि उन दिनों

वे सभी मोतियाबिंद से जूझ रहे थे 

उनके दिमाग़ की गहराई में सिर्फ़ 

दो ही प्रतिबिंब बनते  स्त्री और पुरुष 

वे उनके होने का आकलन काया से करते 

रूढ़ियाँ उन्हें उनकी जमीन के साथ 

 कदमों के आंकड़े गिनवातीं 

वहाँ सभी कुछ ऊल-जलूल अवस्था में था 

जैसे लताओं के सिरे उलझे हों आपस में 

कितने ही पुरुषों की काया में 

 स्त्रियों की आत्मा निवास कर रही थी

 और न जाने

 कितनी ही स्त्रियों के पास पुरुषों की आत्मा थी 

वे सभी स्त्री-पुरुष दुत्कारे जा रहे थे 

क्योंकि केंद्र में काया थी 

दुत्कारने का 

यह खेल सदियों से चल रहा था 

सब कुछ क्षणिक होते हुए भी 

वे नाक के साथ जात बचाने में लगे थे 

उन्होंने कहा-“हम बुद्धि के गेयता है।”

वे सभी मेरे लिए स्त्री थे न पुरुष 

वे मात्र मेरी कथा के पात्रों के चरित्र थे 

मैं स्वयं के लिए भी एक चरित्र थी 

मेरी आत्मा 

मेरी काया को पल-पल मरते देख रही थी 

और पढ़ रही थी उसका चरित्र 

भ्रम की नदी के पार उतरने 

और खोने-पाने की होड़ से परे

उन दिनों की यह सबसे सुखद अनुभूति थी।

बुधवार, जून 19

भावनाएँ


भावनाएँ / अनीता सैनी 

१८जून२०२४

……

ठस होती आत्मा में 

भावनाएँ जब भी लौटती हैं 

 माथे पर

तिलिस्मी इन्द्रधनुष सजाए लौटती हैं 

मानो तीरथ से लौटी हो 

बखान भाव से परे 

भावों में

छोटी-छोटी नदियों की निर्मलता 

के साथ 

उदगम में विलुप्त होने का भाव लिए लौटती हैं 

पाँव में छाले, चंदन का टीका 

हाथ में पंचामृत  

मरुस्थल में पौधा सींचने 

दौड़ती हुई आती हैं 

कहती हैं-

“तुम्हारे घर के बंद किंवाड़ देखकर भान होता है 

अस्त होता सूरज नहीं! हम तुम्हें डंकती हैं!!”