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गुरुवार, अक्तूबर 3

प्रवाह के पार

प्रवाह के पार /अनीता सैनी 
३०सितंबर २०२४
….
ये जो क़लम से कागज पर
भावों की नदियाँ बहती हैं, ये 
सुखों की कहानियाँ कहती हैं,
तुमने शायद ठीक से पढ़ी नहीं।
वैसे ही जैसे
तुमने ठीक से देखा नहीं कि
मछलियाँ पानी के प्रवाह के
विपरीत नहीं तैरती,
वे अपने प्रस्थान बिंदु
उस अथाह सागर में फिर से 
मिलने दौड़ती हैं
जहाँ से वे बिछड़ी थीं।

यह दृश्य विचारों का सूक्ष्म बिंदु है,
वैसे ही जैसे
दुःख की चोटी के गर्म पत्थर पर
जो घुटने मोड़ कर बैठा है,
और जो
बार-बार तलवों में जलन की पीड़ा से
उँगलियाँ उचका रहा है,
वह कोई और नहीं, सुख ही है।

मंगलवार, सितंबर 24

भोर का पक्षी

भोर का पक्षी / अनीता सैनी 
२१सितंबर२०२४
…..
 सदियों में कभी-कभार 
एक-आध ऐसी रात भी आती हैं,
जब उजाले की प्रतीक्षा में
भोर का यह पक्षी सारी रात गाता है
विरह-गीत।

 प्रिय के 
पदचाप नहीं सुनाई देने पर 
वह पत्तों पर चिट्ठी लिखता है 
तब और कुछ नहीं, बस हल्की पीड़ा
और उसकी सांसें ठंडी पड़ जाती हैं।

ऋषि-मुनियों के दिए श्राप,
एक-एक कर
उसकी आत्मा पर उभर आते हैं।
और वह 
अहिल्या की तरह पत्थर हो जाती है।

वे लोग कहते हैं-
तब और कुछ नहीं!
बस,उस मौसम में वह उड़ नहीं पाता।

गुरुवार, सितंबर 19

प्रेम

प्रेम / अनीता सैनी 
१६सितंबर२०२४
…..
मरुस्थल वैराग्य नहीं 
प्रेम है!
प्रेम! बर्फ़ का मरुस्थल है
शांत - शीतल पवित्र 
ठण्डा! एकदम ठण्डा!!
प्रेम!
सांसों का मौन विलाप नहीं 
पुराने पीले पड़ चुके
 इतिहास के पंन्नों से होकर गुजरा 
एक नया विलाप भी नहीं 
तुम! 
पीड़ा को इंद्रियों में तौलकर 
स्वयं भ्रमित हो 
वह ठण्डी ज्वाला है
प्रेम! 
धरती के नमक में डूबी आँखें हैं।

गुरुवार, सितंबर 12

खिड़कियों से परे

खिड़कियों से परे / अनीता सैनी 

७सितम्बर२०२४

…..

उनकी 

आत्मा में गहरी संवेदनाएँ हैं 

वे कहते हैं 

स्त्रियाँ गाय हैं चिड़िया हैं 

भेड़ और बकरिया भी हैं 

उनके कंधों पर सरकती घरों की दीवारें 

वे मुख्य द्वार से निकलने की हकदार नहीं हैं 

वे दरारों और खिड़कियों से झाँकतीं हैं 

जैसे झाँकते हैं दरारों से नीम-पीपल 

समय के द्वारा

समय-समय पर दरारें

गोबर-मिट्टी के गारे से लिपी-पुती जाती हैं 

उनकी अस्थिर आँखें बोलने में असमर्थ हैं 

इस तरह उनके कान उनके के लिए मुँह हैं 

परंतु

वे वृक्ष नहीं हैं 

उन्हें सदियों से वृक्ष के चित्र दिखाकर 

उनसे 

फल-फूल और लकड़ियाँ प्राप्त की जाती रही हैं 

नाइट्रोजन की अपेक्षा ऑक्सीजन के कीड़े 

उन्हें अधिक तेजी से निगलते रहे हैं 

फिर भी वे नींद से जाग नहीं पाई 

वे नहीं जान पाई कि वे स्त्रियाँ हैं 

उन्होंने स्वयं के लिए अंधेरा चुना 

उसमें उन्हें 

उजाले के चमकते दाँत व नाख़ून दिखाई देते हैं 

उन्हें दाँत और नाख़ून ही दिखाए गए हैं 

वे कहती हैं -

“हे अंधेरा ! तुम में चेतना है 

तुम में ग्रेवीटी है

तुम सपनों के ब्लेकहॉल हो

तुम पुकारते हो तुम्हारी पुकार हमें सुनती है 

तुमसे बातें करना महज पागलपन नहीं 

अस्तित्व है तुम्हारा 

तुम्हारा गलबाँह में जकड़ना सुकून प्रद है  

गहरे समंदर में डूबने पर 

तलहटी की इच्छा कहाँ रहती है?”

इस तरह वे 

भावनाओं की गहरी घाटियों से उलझती 

और डूबती रही बहुत गहरे में 

 गाय तो कभी चिड़िया  की तरह।

गुरुवार, अगस्त 29

रास्ते में

रास्ते में /अनिता सैनी 
२७अगस्त२०२४
…..

मेरे बच्चे 
तुम दुःख-शोक मत मनाना 
अंबर की अपनी नियति है 
बादल आते हैं 
कुछ पल ठहर चले जाते हैं 
उसकी पुकार पर आँखें मूंद लेना
इस राह पर तुम अकेले नहीं हो 
तुम देखना!
उस दिन
बहुत जोरों की बरसात होगी 
बरसात में बरसते सुख समृद्धि के बीज 
दो-दो सूरज निकलेंगे 
वे दोनों सभी की पीड़ा हर लेंगे 
खुशियों के बीज अंकुरित होंगे 
मेरे बच्चे!
ईश्वर है
वह सभी की पुकार सुनता है
जैसे 
एक बहरा सुनता है संगीत
वह देखता है
सभी के क्रिया-कलाप  
जैसे 
एक अंधा देखता है सृष्टि
वह लिखता है सभी का भाग्य 
जैसे 
हाशिए को नकार 
एक कवि लिखता है अ-कविता।

गुरुवार, अगस्त 22

घूँट

घूँट /अनीता सैनी 
२०अगस्त२०२४
.....
चाँद सुलाने आया 
न सूरज जगाने 
ना हीं 
हवा ने कोई शोर किया 
 हे कान्हा!
बात सिर्फ़ इतनी-सी थी
सूखे दरख़्त के कोंपलें फूटने लगीं 
वह 
राहगीरों को आवाज़ देने लगा 
इसी पर राणा झुंझला उठे 
और कहा-
“मीरा को यातनाओं का जहर 
न पिलाया जाए 
वह इसकी आदी हो चुकी है।"
मैं तो मुस्कुराई भर थी।

गुरुवार, अगस्त 15

जीवन

जीवन / अनीता सैनी 
१३अगस्त२०२४
…..
मिट्टी बुहारती बरगद की 
बरोह-सा झूलता जीवन
मैं उस पर
मन्नतों की गाँठ बनकर ठहरा रहा 

ज्यों
प्रेमिकाओं की आँखों से बहते मनके 
सिसकियों के साथ ठहर जाते हैं सांसों पर 
ज्यों 
अवचेतन में ठहरा है अस्तित्व 
चेतना की प्रतीक्षा में 

आह! जीवन
तुझे 
सूरज का ताप 
धरती की गर्म साँसें झुलसाती रही 
फिर भी तू 
नीचे की ओर मजबूती से लटका हुआ 
एकाकीपन को जीता रहा।

बुधवार, जुलाई 31

अकेला

अकेला / अनीता सैनी 
३०जुलाई२०२४
……
मैंने 
वृक्ष की छाँव का मोह छोड़ दिया
फूलों से लदी टहनियों का भी 
छोड़ देना 
युद्ध से मुक्ति पाना है 
स्वयं के साथ लड़े जाने वाला युद्ध 
नहीं!वृक्ष की छाया नहीं थी वह 
वह एक भ्रम था जिसे 
मैं आजीवन पोषित करता रहा 
नहीं! वह भ्रम भी नहीं था 
वह मेरे 
मन के द्वारा भावों का बुना जाल था 
मकड़ जाल
तब मैं मकड़ी था और वह मकड़ जाल 
जाल में लिपटी काया दरकने लगी  
जैसे 
दरक जाती है ओस से बनी दीवार
मदद करो 
मदद करो, जीवन आवाज़ लगता रहा 
छाँव, भ्रम और मकड़ जाल हँसते रहे 
हँसना इनके खून में था 
परंतु उसे पता था 
मरुस्थल पाँव नहीं जलता 
ना ही वहाँ प्यास सताती है 
मरुस्थल में सतत बहता जीवन 
वीरानियाँ को सींचता है
हँसता नहीं।

बुधवार, जुलाई 17

गिरह

गिरह / अनीता सैनी 
१६ जुलाई २०२४
…….
गर्भ में पलता भविष्य 
अतीत के 
फफोलों पर लुढ़कता आँखों का गर्म पानी 
तुम्हारी करुणा की कहानी कहता है 
 
नथुनों से उड़ती आँधी
दिमाग़ के कई-कई किंवाड़ तोड़कर 
वर्तमान को गढ़ती  
सपनों पर पड़े निशान ही नहीं 
तुम्हारे वर्चस्व की दौड़ पढ़ाती है 


सांसों में फूटते गीत,भावों का हरापन 
कंदराओं का शृंगार ही नहीं 
तुझ में धरा को पल्लवित करता है 

हे मनस्वी!
मुक्त कर दो उन तमाम स्त्रीयों को
जो झेल रही हैं गंभीर संकटकाल 
तुम्हारी गिरह में…