गूँगी गुड़िया
अनीता सैनी
गुरुवार, अगस्त 29
रास्ते में
गुरुवार, अगस्त 22
घूँट
गुरुवार, अगस्त 15
जीवन
बुधवार, जुलाई 31
अकेला
बुधवार, जुलाई 17
गिरह
शनिवार, जुलाई 13
आह! ज़िंदगी
आह! ज़िंदगी / अनीता सैनी
१२जुलाई २०२४
……
…..और कुछ नहीं
वे स्वीकार्य-सीमा की मेड़ पर खड़े
गहरे स्पर्श करते अंकुरित भाव थे
न जाने कब बरसात का पानी पी कर
अस्वीकार्य हो गए
आह! ज़िंदगी लानत है तुझ पर
भूला देना खेल तो नहीं
इंतजार में हैं वे आँखें वहीं जहाँ बिछड़े थे
बार-बार उसी रास्ते की ओर
पैरों की दौड़ का
ये सच भी तूने भ्रम हेतु गढ़ा
वे नहीं लौटेंगे
कभी नहीं लौटेंगे
सभी कुछ जानते होते हुए भी
मैंने
प्रतीक्षा की बंदनवार में
साँसों की कौड़ी जड़
स्मृतियों के स्वस्तिक
आत्मा की चौखट पर टांग दिए हैं
एक बार फिर तुझे सँवारने के लिए।
शनिवार, जुलाई 6
बरसाती झोंका
सोमवार, जून 24
अनुभूति
अनुभूति / अनीता सैनी
२३जून२०२४
……
प्रकृति पर मलकियत जताने
वाले वे सभी उसके मोहताज थे
यह उन्हें नहीं पता था
क्योंकि उन दिनों
वे सभी मोतियाबिंद से जूझ रहे थे
उनके दिमाग़ की गहराई में सिर्फ़
दो ही प्रतिबिंब बनते स्त्री और पुरुष
वे उनके होने का आकलन काया से करते
रूढ़ियाँ उन्हें उनकी जमीन के साथ
कदमों के आंकड़े गिनवातीं
वहाँ सभी कुछ ऊल-जलूल अवस्था में था
जैसे लताओं के सिरे उलझे हों आपस में
कितने ही पुरुषों की काया में
स्त्रियों की आत्मा निवास कर रही थी
और न जाने
कितनी ही स्त्रियों के पास पुरुषों की आत्मा थी
वे सभी स्त्री-पुरुष दुत्कारे जा रहे थे
क्योंकि केंद्र में काया थी
दुत्कारने का
यह खेल सदियों से चल रहा था
सब कुछ क्षणिक होते हुए भी
वे नाक के साथ जात बचाने में लगे थे
उन्होंने कहा-“हम बुद्धि के गेयता है।”
वे सभी मेरे लिए स्त्री थे न पुरुष
वे मात्र मेरी कथा के पात्रों के चरित्र थे
मैं स्वयं के लिए भी एक चरित्र थी
मेरी आत्मा
मेरी काया को पल-पल मरते देख रही थी
और पढ़ रही थी उसका चरित्र
भ्रम की नदी के पार उतरने
और खोने-पाने की होड़ से परे
उन दिनों की यह सबसे सुखद अनुभूति थी।
बुधवार, जून 19
भावनाएँ
भावनाएँ / अनीता सैनी
१८जून२०२४
……
ठस होती आत्मा में
भावनाएँ जब भी लौटती हैं
माथे पर
तिलिस्मी इन्द्रधनुष सजाए लौटती हैं
मानो तीरथ से लौटी हो
बखान भाव से परे
भावों में
छोटी-छोटी नदियों की निर्मलता
के साथ
उदगम में विलुप्त होने का भाव लिए लौटती हैं
पाँव में छाले, चंदन का टीका
हाथ में पंचामृत
मरुस्थल में पौधा सींचने
दौड़ती हुई आती हैं
कहती हैं-
“तुम्हारे घर के बंद किंवाड़ देखकर भान होता है
अस्त होता सूरज नहीं! हम तुम्हें डंकती हैं!!”