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रविवार, मार्च 19

पहाड़

कुछ लोग उसे

पहाड़ कहते थे, कुछ पत्थरों का ढ़ेर

सभी का अपना-अपना मंतव्य

अपने ही विचारों से गढ़ा सेतु था 

आघात नहीं पहुँचता शब्दों से उसे 

परंतु अभी भी 

टुकड़ों-टुकड़ों में तोड़े जाने की प्रक्रिया 

या कहें…

खनन कार्य अब भी जारी था  

कार्य प्रगति पर था 

सभी के दिलों में उल्लास था  

पत्थर उठाओ, पत्थर हटाओ की रट 

 सुबह से शाम तक हवा में गूँजती

हवा भी अब इस शोर से परेशान थी  

लाँघ जाता उसके लिए पत्थर 

टकरा जाता वह कहता था पहाड़

परंतु अब वह फूल नहीं था 

उसे फूल होना गवारा नहीं था 

उसे मसला जाना गवारा नहीं था।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, फ़रवरी 26

औरतें


तुम ठीक ही कहते हो!

ये औरतें भी ना…बड़ी भुलक्कड़ होती हैं 

बड़ी जल्दी ही सब भूल जाती हैं

भूल जाती हैं!

चुराई उम्र की शिकायत दर्ज करवाना

ऐसी घुलती-मिलती हैं हवा संग कि 

धुप-छाव का ख़याल ही भूल जाती हैं 

भूलने की बड़ी भारी बीमारी होती है इन्हें

याद ही कहाँ रहता है कुछ

चप्पल की साइज़ तो छोड़ो

अपने ही पैरों के निशान भूल जाती हैं 

मान-सम्मान का ओढ़े उधड़ा खेश 

गस खाती ख़ुद से बतियाती रहती हैं

भूल की फटी चादर बिछाए धरणी-सी 

परिवार के स्वप्न सींचती रहती हैं 

बचपन का आँगन तो भूली सो भूली

ख़ून के रिश्तों के साथ-साथ भूल जाती हैं!

चूल्हे की गर्म रोटी का स्वाद

रात की बासी रोटी बड़े चाव से खातीं 

अन्न को सहेजना सिखाती हैं 

सच ही कहते हो तुम

ये औरतें भी न बड़ी भुलक्कड़ होती हैं 

समय के साथ सब भूल जाती हैं।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


सोमवार, फ़रवरी 6

चरवाहा


वहाँ! 

उस छोर से फिसला था मैं,

पेड़ के पीछे की 

पहाड़ी की ओर इशारा किया उसने

और एक-टक घूरता रहा  

पेड़  या पहाड़ी ?

असमंजस में था मैं!


हाथ नहीं छोड़ा किसी ने 

न मैंने छुड़ाया 

बस, मैं फिसल गया!

पकड़ कमज़ोर जो थी रिश्तों की

तुम्हारी या उनकी?

सतही तौर पर हँसता रहा वह

बाबूजी! 

इलाज चल रहा है

कोई गंभीर चोट नहीं आई

बस, रह-रहकर दिल दुखता है

हर एक तड़प पर आह निकलती है।


वह हँसता रहा स्वयं पर 

एक व्यंग्यात्मक हँसी 


कहता है बाबूजी!

सौभाग्यशाली होते हैं वे इंसान

जिन्हें अपनों के द्वारा ठुकरा दिया जाता है

या जो स्वयं समाज को ठुकरा देते हैं

इस दुनिया के नहीं होते 

ठुकराए हुए लोग 

वे अलहदा दुनिया के बासिन्दे होते हैं,

एकदम अलग दुनिया के।


ठहराव होता है उनमें

वे चरवाहे नहीं होते 

दौड़ नहीं पाते वे 

बाक़ी इंसानों की तरह,

क्योंकि उनमें 

दौड़ने का दुनियावी हुनर नहीं होता 

वे दर्शक होते हैं

पेड़ नहीं होते 

और न ही पंछी होते हैं

न ही काया का रूपान्तर करते हैं 

हवा, पानी और रेत जैसे होते हैं वे!


यह दुनिया 

फ़िल्म-भर होती है मानो उनके लिए 

नायक होते हैं 

नायिकाएँ होती हैं 

और वे बहिष्कृत

तिरस्कृत किरदार निभा रहे होते हैं,

किसने किसका तिरस्कार किया

यह भी वे नहीं जान पाते

वे मूक-बधिर...

उन्हें प्रेम होता है शून्य से 

इसी की ध्वनि और नाद

आड़ोलित करती है उन्हें


उन्हें सुनाई देती है 

सिर्फ़ इसी की पुकार

रह-रहकर 


इस दुनिया से 

उस दुनिया में

पैर रखने के लिए रिक्त होना होता है

सर्वथा रिक्त।

रिक्तता की अनुभूति

पँख प्रदान करती है उस दुनिया में जाने के लिए

जैसे प्रस्थान-बिंदु हो

कहते हुए-

वह फिर हँसता है स्वयं पर 

एक व्यंग्यात्मक हँसी।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


शनिवार, जनवरी 28

बोधि वृक्ष



नर्क की दीवार खंडहर
एकदम खंडहर हो चुकी है
हवा के हल्के स्पर्श से भी 
वहाँ की
मिट्टी आज भी काँप जाती है
कोई चरवाह नहीं गुजरता उधर से
और न ही
पक्षी उस आकाश पर उड़ान भरते हैं 
मुख्य द्वार के बाहर खड़ा 
 बोधि वृक्ष
बुद्ध में लीन हो चुका है एकदम लीन 
उसने समझा 
समय की भट्टी में
मनोविकारों के साथ 
धीरे-धीरे
जलने में ही परमानंद है
ख़ुशी हँसाती है न दुख रुलाता है
और न ही कोई विकार सताता है
भावनाओं की इस
मौन प्रक्रिया में शब्द विघ्न हैं 
प्रकृति के साथ एकांतवास वैराग्य नहीं 
प्रेम है कोरा प्रेम
सच्चे प्रेम की अनुभूति है 
प्रकृति मधुर संगीत सुनाती है
आकाश बाँह फैलाए तत्पर रहता है
गलबाँह में जकड़ने हेतु
अंबर प्रेमी है
उसकी आवाज विचलित करती है 
अनदिखे में होने का आभास
कोरी कल्पना नहीं
अस्तित्व है उसका 
उसकी पुकार को  
अनसुना नहीं किया जा सकता
सम्राट अशोक भी दौड़े आए थे 
उसकी  पुकार पर
नर्क के द्वार को लाँघते हुए 
बुद्ध में लीन होने।

@अनीता सैनी 'दीप्ति

बुधवार, जनवरी 18

मैं और मेरी माँ






माँ के पास शब्दों का टोटा

हमेशा से ही रहा है 

वह कर्म को मानती है

कहती है-

”कर्मों से व्यक्ति की पहचान होती है

 शब्दों का क्या कोई भी दोहरा सकता है।”

उसका मितभाषी होना ही

मेरी लिए

कविता की पहली सीढ़ि था

 मौन में माँ नजर आती है 

मैं हर रोज़ उसमें माँ को जीती हूँ और 

माँ कहती है-

”मैं तुम्हें।”

जब भी हम मिलते हैं

 हमारे पास शब्द नहीं होते

 कोरी नीरवता पसरी होती है

 वही नीरवता चुपचाप

 गढ़ लेती है नई कविताएँ 

माँ कविताएँ लिखती नहीं पढ़ती है

 मुझ में 

कहती है-

"तुम कविता हो अनीता नहीं।"


@अनिता सैनी 'दीप्ति'

शनिवार, जनवरी 7

कोहरे की चादर में लिपटी सांसें



कोहरे की चादर में 

लिपटी सांसें

उठने का हक नहीं है

इन्हें !

जकड़न सहती

ज़िंदगी से जूझती ज़िंदा हैं

टूटने से डरतीं 

वही कहती हैं जो सदियाँ

कहती आईं 

वे उठने को उठना और

बैठने को

 बैठना ही कहतीं आईं हैं 

पूर्वाग्रह कहता है 

तुम 

घुटने मोड़कर 

बैठे रहो!

उठकर चलने के विचार मात्र से

छिल जाती है

 विचारों के तलवों की 

कोमल त्वचा।


@अनिता सैनी 'दीप्ति'

सोमवार, दिसंबर 26

'एहसास के गुँचे' एवं 'टोह' का लोकार्पण

 

  
      शब्दरंग साहित्य एवं कला संस्थान बीकानेर में रविवार को महाराजा नरेंद्र सिंह ऑडिटोरियम में काव्य संग्रह 'एहसास के गुँचे' और 'टोह'  का लोकार्पण किया गया।  नगर की विभिन्न संस्थाओं द्वारा किए गए सम्मान से अभिभूत हूँ।
कार्यक्रम में मुख्य अतिथि कवि कथाकार आदरणीय राजेंद्र जोशी जी ने कहा-”कविताएँ स्त्री मन की रचनाएँ हैं जिसमें मानवीय संवेदना और अभिव्यक्ति के सशक्त आयाम है।"
 कार्यक्रम के अध्यक्ष आदरणीय डॉ. अजय जोशी जी ने कहा- ”कविताओं में संप्रेषणीयता और सरलता है और सहज ही पाठकों के हृदय में उतर जाती है।"
विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ लेखक एवं लघुकथाकार आदरणीय अशफ़ाक़ क़ादरी जी ने कहा- "कवयित्री बहुआयामी रचनाकार है जिनकी रचनाओं में लघु कथा जैसा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।"
 कार्यक्रम संयोजक आदरणीय राजाराम स्वर्णकार ने लोकार्पित कृतियों का परिचय बहुत ही सुंदर सहजता से दिया।
 सैनी समाज के सभी कार्यकर्ता एवं अधिकारी विकास संस्था बीकानेर के अध्यक्ष प्रवीण गहलोत जी एवं संगठन मंत्री आदरणीय मेघराज सोलंकी जी और खेल समीक्षक व्यंग्यकार आदरणीय आत्माराम भाटी जी जितेंद्र गहलोत जी , पवन गहलोत जी का भी हृदय से आभार।

समारोह में पधारे सभी महानुभावों का हृदय से अनेकानेक आभार इतने कम समय में सभी से रूबरू होने का यह सुअवसर एक यादगार क्षण बनकर हृदय में रहेगा।

शनिवार, दिसंबर 17

बटुआ



 एहसास भर से स्मृतियाँ

बोल पड़ती हैं कहतीं हैं-

तुम सँभालकर रखना इसे

अकाल के उन दिनों में भी

खनक थी इसमें!

चारों ओर

सूखा ही सूखा पसरा पड़ा था

उस बखत भी इसमें सीलन थी।

गुलामी का दर्द

आज़ादी की चहलक़दमी 

दोनों का

मिला-जुला समय भोगा है इसने।

अतीत के तारे वर्तमान पर जड़ती

यकायक मौन में डूब जाती थी।

क्या है इसमें ? पूछने पर बताती 

विश्वास! 

 विश्वासपात्र के लिए।

नब्बे पार की उँगलियाँ 

साँझ-सा स्पर्श 

भोर की हथेलियों पर विश्वास के अँखुए

धीरे-धीरे टटोला करती थी ददिया सास।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


बुधवार, नवंबर 30

उसका जीवन



उसका जीवन देखा?
यह जीवन भी कोई जीवन है
व्यर्थ है… एक दम व्यर्थ!
उसे मर जाना चाहिए
हाँ! मर ही जाना चाहिए
आख़िर बोझ है धरती का 
हाँ!बोझ ही तो है 
हर एक व्यक्ति
हर दूसरे व्यक्ति की ओर
इशारा करता हुआ कहता है।
कहते हुए वह झाड़ रहा होता है अपने कपड़े
और साथ ही अपनी जीभ।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'