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शुक्रवार, मार्च 1

खरोंच


खरोंच /  कविता / अनीता सैनी

…….

हम दोनों ने

उदय होते सूरज को प्रणाम किया

दुपहरी होते-होते वहाँ से निकल गए 

हमारा चले आना उनके लिए वरदान था 

साँझ सफ़र में कई-दफ़'आ मिली 

 हमने रात नहीं देखी

रात के लुभावने रेखाचित्र देखे

उसने कहा-

“कभी मिलना हो रात्रि से

तब तुम ठहर जाना

शीतलता की गोद 

उजाले का प्रमाण है वह।”

रात का भान भूल चुकी  मैं 

हमेशा उससे दुपहरी का ज़िक्र करती 

दुपहरी मेरे रग-रग में बसी थी 

जैसे बसा था मेरे हृदय में देहातीपन

मैंने कहा-

“देहाती स्त्रियाँ धतूरे-सी होती हैं 

वह सिर्फ़

कविता-कहानियों में तलाशी जाती हैं।”

धतूरे के ज़िक्र से उसे

महाशिवरात्रि का स्मरण हो आया

समर्तियों की उड़ती धूल, किरकिरी

उसकी आँखों में रड़कने लगी 

सहसा मुझे ख़याल आया

वह मरुस्थल में रहने का आदी नहीं था।


रविवार, फ़रवरी 25

प्रेम


प्रेम का संकेत मिलते ही अनुगामी बन जाओ उसका

हालाँकि उसके रास्ते कठिन और दुर्गम हैं

और जब उसकी बाँहें घेरें तुम्हें

समर्पण कर दो

हालाँकि उसके पंखों में छिपे तलवार

तुम्हें लहूलुहान कर सकते हैं, फिर भी

और जब वह शब्दों में प्रकट हो

उसमें विश्वास रखो

हालांकि उसके शब्द तुम्हारे सपनों को

तार-तार कर सकते हैं- खलील जिब्रान


फिर भी तुम्हें प्रेम को 

जीवंत रखना होगा

वह मर जाता है

कुम्हल जाता है ततक्षण

इंतज़ार नहीं करता

उसे जीवंत रखना पड़ता है 

कि जैसे-

साँझ में सिमट जाता है दिन

बेपरवाह हो डूब जाता है

तुम्हें डूब जाना होगा

ढलती रात उतर जाती है

होले-होले भोर के कंठ में 

वैसे ही तुम्हें

प्रेम को उतार लेना होगा कंठ से हृदय में 

प्रेम के गर्भ की समयावधि नहीं होती

कि तुम पा सको उसे प्रत्यक्ष

एकतरफ़ा आत्मा 

जन्म जन्मांतर सींचती है

प्रेम सींचना ही पड़ता है 

जैसे-

सींचता है अंबर पृथ्वी को

गलबाँह में जकड़े

वैसे ही तुम्हें

प्रेम को जकड़ लेना होगा गलबाँह में

सींचना होगा जन्म जन्मांतर।

                             

रविवार, फ़रवरी 18

युद्ध

युद्ध  / अनीता सैनी

…..

तुम्हें पता है!

साहित्य की भूमि पर

लड़े जाने वाले युद्ध

आसान नहीं होते

वैसे ही 

आसान नहीं होता 

यहाँ से लौटना

इस धरती पर ठहरना 

मोगली का जंगल का राजा हो जाना जैसा है

पशु-पक्षी चाँद-सूरज और हवा-पानी

सभी उसका कहना मानते हैं

उसकी बातें सुनते हैं 

दायरे में सिमटा

 तुम्हारा

मान-सम्मान, मैं मेरे का विलाप व्यर्थ है

व्यर्थ है रिश्तों की दुहाई देना

व्यर्थ है

एक काया को सौगंध में बाँधना 

व्यक्ति विशेष से परे 

ये युद्ध 

आत्माएँ लड़ती हैं

वे आत्माएँ

जो बहुत पहले

देह से विरक्त हो चुकी हैं।

                              

रविवार, फ़रवरी 11

धोरों का सूखता पानी


धोरों का सूखता पानी / कविता / अनीता सैनी

….

उस दिन

उसके घर का दीपक नहीं

सूरज का एक कोर टूटा था

जो ढिबरी वर्षों से 

आले में संभालकर रखी है तुमने 

वह उसी का टुकड़ा है।


धोरों की धूल का दोष नहीं

सदियाँ बीत गईं

यहाँ! दुःख, पश्चात्ताप के पदचिह्न ही नहीं!

नहीं!! मिलते वे देवता

जो पानी के लिए पूजे जाते थे

इंसान ही नहीं!

पानी भी बहुत गहरे चला गया है

 तुम! पूछो रोहिड़े से

कैसे बहलाता है?भरी दुपहरी में अपने मन को।


तुम! ये जो बार-बार

पानी में डुबोकर

कमीज़ झाड़ रहे हो न

इस पर काले पड़ चुके अश्रु नहीं धुलेंगे

उस लड़की के पिता ने कहा है-

“मैं पिछले दो दशक से सोया नहीं हूँ।”


मंगलवार, फ़रवरी 6

पीड़ा

पीड़ा / कविता / अनीता सैनी

६फरवरी २०२४

……

उन दिनों

घना कुहासा हो या 

घनी काली रात 

वे मौन में छुपे शब्द पढ़ लेते थे

दिन का कोलाहल हो या

रात में झींगुरों का स्वर  

वे चुप्पी की पीड़ा

बड़ी सहजता से सुन लेते थे 

प्रेम की अनकही भाषा पर

गहरी पकड़ थी 

समाज के बाँधे बंधन

अछूते थे उसके लिए

यही कहा-

“तुम पुकारना, मैं लौट आऊँगा।”

परंतु जाते वक़्त सखी!

पुकारने की भाषा नहीं बताई।

शनिवार, जनवरी 27

सुनो तो

सुनो तो / अनीता सैनी

२६जनवरी २०२४

…..

देखो तो!

कविताएँ सलामत हैं?

मरुस्थल मौन है मुद्दोंतों से

अनमनी आँधी  

ताकती है दिशाएँ।


पूछो तो!

नागफनी ने सुनी हो हँसी

खेजड़ी ने दुलारा हो

बटोही

गुजरा हो इस राह से 

किसी ने सुने हों पदचाप।


सुनो तो ! 

जूड़े में जीवन नहीं

प्रतीक्षा बाँधी है

महीने नहीं! क्षण गिने हैं 

मछलियाँ साक्षी हैं 

चाँद! आत्मा में उतरा 

मरु में समंदर!

यों हीं नहीं मचलता है।

               

    

सोमवार, जनवरी 22

तुम्हारे पैरों के निशान

तुम्हारे पैरों के निशान / अनीता सैनी

२०जनवरी २०२४

…..

उसने कहा-

सिंधु की बहती धारा 

बहुत दिनों से बर्फ़ में तब्दील हो गई है

उसके ठहर जाने से 

विस्मय नहीं

सर्दियों में हर बार

बर्फ़ में तब्दील हो जम जाती है 

न जाने क्यों?

इस बार इसे देख! ज़िंदा होने का

भ्रम मिट गया है

दर्द की कमाई जागीर

अब संभाले नहीं संभलती 

पीड़ा से पर्वत पिघलने लगे हैं 

दृश्य देखा नहीं जाता  

दम घुटता है 

ऑक्सीजन की कमी है?

या

कविता समझ आने लगी हैं।

                      

शुक्रवार, जनवरी 12

नदी

नदी / अनीता सैनी ‘दीप्ति’
....

कई-कई बार, कि हर बार 
तू बह जाने से रह गई?
कुछ तो बोल! क्रम भावों का टूटा 
आरोह-अवरोह बिगड़ा भाषा का 
कि कविता सांसें सह गई?

कैसे सोई धड़कन?
दरख़्त के दरख़्त कट गए!
हरी लकड़ियाँ चूल्हे में रोई नहीं?
मरुस्थल हुई मानवता या 
ज्वार नथुनों से बहा नहीं ?
क्वाँर की बयार कह गई 
कैसे रही तू ज़िंदा?
कैसे जीवन सह गई?

महामौन बिखरा अंबर का 
कैसे लौटी हवा आँगन की?
भावना विचलित बादलों की
गरजती हुए कह गई- “कि एक नदी के
सूखने भर की देर थी?
 कि जो भाषा न समझे उन्हें
प्रतिकों की परिभाषा समझ आने लगी?

रविवार, दिसंबर 31

क्षणिकाएँ

1.

"मैं जल्द ही वापस आऊँगा।”
समय के साथ उसके पैर नहीं
यह वाक्य लड़खड़ाने लगा
तभी से मैं 
पुरुष शब्द का एक और अर्थ स्त्री पढ़ने लगी।

                                        अनीता सैनी 'दीप्ति'
                                           २४मई २०२३

2.


तुम्हारी परछाई
मेरे जीवन की उँगली पकड़कर चलती है
वही उकेरती है भविष्य के कुछ चित्र
वर्तमान को पूर्णता का उपहार देती है
तब मैं दिन-रात को दिन-रात से पहचानती हूँ
प्रतीक्षारत की भाँति तारीख़ कहकर नहीं पुकारती।

                                       अनीता सैनी 'दीप्ति'
                                           १९ मई २०२३

3.

हवा के साथ सरहद लांघ जाते हैं बादल
अब अगर कुछ दिनों में ये नहीं लौटे
तुम देखना! जेष्ठ कहर बरपाएगा 
बालू छाँव तकेंगी पौधे अंबर को  
मेरे दिन-रात तपेंगे तुम्हारे इंतज़ार में।
                                       अनीता सैनी 'दीप्ति'
                                        २२ मई २०२३

4.

कभी-कभी
कोई वज़ह नहीं होती रूठने की 
फिर भी महीनों तक बातें नहीं होती
रास्ते भी जाने-पहचाने होते हैं
पीर पैरों की गहरी रही होगी 
कि वे उधर से गुजरते नहीं हैं ।
                               अनीता सैनी 'दीप्ति'
                                  २८ मई २०२३

5.
निशीथ काल में
धरती उठी  
 कुछ अंबर झुका 
मौन में झरता समर्पण
चातक पक्षी ने गटका 
 फूल बरसाती हवा  
पशु-पक्षियों ने
 ध्यानमग्न हो सुना 
तब इंसान गहरी नींद में था।
                             अनीता सैनी 'दीप्ति'
                                  ३१मई २०२३

6.

जिद्द नहीं साथ चलने की
पर किसी को इतना दूर भी
नहीं चलना चाहिए 
कि जब...
पीछे पलट कर देखें
सिवाय सुनसान रास्तों के कुछ न दिखे।
                                     अनीता सैनी 'दीप्ति'
                                        २९मई २०२३

7.

किसी भी गाँव की लड़की को
काँटे नहीं चुभते
पगडंडियाँ
पाँव का स्पर्श पहचानती हैं
अब वे कहतीं हैं 
”बुहारे गए 
सभी काँटे मेरे पाँव में हैं।”
                            अनीता सैनी 'दीप्ति'
                             ९जून २०२३

8.
स्वेच्छाचारिता के फूटते 
अंकुर से 
सहजता सरलता के वृक्ष
 दम तोड़ देते हैं
या दबा दिए जाते हैं आवरण के नीचे 
जैसे दबा दी जाती हैं
घर के किसी कोने में बेटियाँ।
                         अनीता सैनी 'दीप्ति'
                          २३जुलाई २०२३
9.


अक्सर...
तुम्हारी देर से आने की आदत रही 
और मेरी तुम्हारा इंतजार में जागने की
दोनों की सादगी ने मिलकर
मेरे दिन-रात इकहरे कर दिया।
                        अनीता सैनी 'दीप्ति'
                          १९जुलाई २०२३
10.
ठीक कहा!
यह कहना कितना कठिन होता है
दुपहरी के लिए
जब वह
तप रही होती है सूरज के ताप से।
                                   अनीता सैनी 'दीप्ति'
                                     १८जुलाई २०२३