स्वप्न की अनुगूँज
बुद्धतत्त्व की अन्वेषणा,मनस्वी कानन-कानन डोले
बुद्ध छाँव बने, बुद्ध ही बहता झरना बन बोले
हे प्रिय! पहचानो नियति जीवनपथ की
कंकड़-पत्थर झाड़-झंकार गति जीवनरथ की।
गरजते मेघों से क्यों चोटिल स्वयं को करना
हवा की प्रीत बरसात के भावों को समझाना
भांति-भांति के भ्रम भ्रमित कर भटकाएँगे
मृगतृष्णा नहीं जीवन में, ठहराव दीप जलाएँगे।
परीक्षा पृथ्वी पर प्रीत के अटूट विश्वास की
यों व्यर्थ न गँवाओ प्रिय! अमूल्य लड़ियाँ श्वाँस की
तुम पुष्प बन खिल जाना मैं बनूँगा सौरभ
तुम पेड़ बन लहराना मैं छाँव बनूँगा पथ गौरव।
परोपकार में निहित मानवता की सुवास हूँ मैं
फल न समझना प्रिय! रसों में मिठास हूँ मैं
काया के शृंगार का न बोझ बढ़ाना तुम
जीवन के अध्याय विरह को लाड़ लड़ाना तुम।
हे प्रिय! तुम करुणा के दीप जलाना
दग्ध हृदय पर मधुर शब्दों के फूल बरसाना
अँकुरित पौध सींचना स्नेह के सागर से
प्रेम पुष्प खिलेंगे छलकाओ सुधा मन गागर से।
सहसा निंद्रा से विचलित हो उठी मनस्वी
हाय! भोर रश्मियों ने क्यों लूटी मेरे स्वप्न की छवि
प्रिय!प्रिय!! कह पुकार बौराई बियाबान में
अनुगूँज से सहमी ध्वनि थी स्वयं के अंतरमन में।
ओह! कलरव की गूँज लालिमा धरा पर छाई
पात-पात हर्षाए ज्यों प्रकृति दुग्ध से नहाई
मन चाँदनी झरी ज्यों शीतल आभा-सी बरस आई
प्रीतम की पीर नहीं मद्धिम हँसी होठों ने छलक आई।
अंतस ज्योत्स्ना मुख पर दीप्ति उभर आई थी
उलझी-उलझी फिरे अकुलाहट निख़र आई थी
पर्वत पाषाण पादप पात जहाँ दृष्टि वहीं बुद्ध
काँटों की चुभन से प्रीत, प्रतीति में गवाई सुध।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
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