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गुरुवार, अप्रैल 22

एक यथार्थ


नाद भरा उड़ता जीवन देख 

ठहरी है निर्बोध भोर की चंचलता

दुपहरी में उघती उसकती इच्छाएँ 

उम्मीद का दीप जलाए बैठी साँझ 

शून्य में विलीन एहसास के ठहरे हैं पदचाप।


यकायक जीवन चक्र भी शिथिल होता गया 

एक अदृश्य शक्ति पैर फैलाने को आतुर है 

समय की परिधि से फिसलती परछाइयाँ 

पाँवों को  जकड़े तटस्थ लाचारी 

याचनाओं को परे धकेलती-सी दिखी।


काया पर धधकते फफोले कंपित स्वर  

किसकी छाया ? कौन है ?

सभी प्रश्न तो अब गौण हैं

मेघों का मानसरोवर से पानी लेने जाना 

कपासी बादलों में ढलकर आना भी गौण है।


चिंघाड़ते हाथियों के स्वर में मदद की गुहार

व्याघ्रता से विचलित बस एक दौड़ है 

गौरया की घबराहट में आत्मरक्षा की पुकार 

हरी टहनियों का तड़प-तड़पकर जल जाना 

कपकपाती सांसों का अधीर हो स्वतः ठहर जाना।


एक लोटा  पानी इंद्र देव का लुढ़काना

झूठ का शीतल फोहा फफोलों पर लगाना

दूधिया चाँदनी में तारों का जमी पर उतरना

निर्ममता के चक्रव्यूह में मानव को उलझा देखा 

जलती देह का जमी पर छोड़ चले जाना

कविता की कोपलें बन बिखरा एक यथार्थ है।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

मंगलवार, अप्रैल 20

कुछ पल ठहर पथिक

 

 कुछ पल ठहर पथिक

 डगर कठिन  है गंतव्य दूर  तेरा। 


  सिक्कों की खनक शोहरत की चमक छोड़ 

  मन को दे कुछ पल विश्राम  तुम 

न दौड़ बेसुध, पथ अंगारों-सा जलता है

मृगतृष्णा न जगा बेचैनी दौड़ाएगी

धीरज धर राह शीतल हो जाएगी।


कुछ पल ठहर पथिक

 डगर कठिन  है गंतव्य दूर  तेरा। 


छँट जाएँगे बादल काल के

काला कोहरा पक्षी बन उड़ जाएगा 

देख! घटाएँ उमड़-घुमड़कर आएँगीं  

 शीतल जल बरसाएगी बरखा-रानी 

जोहड़ ताल-तलैया नहर-नदियाँ भर जाएँगीं।


 कुछ पल ठहर पथिक

 डगर कठिन  है गंतव्य दूर  तेरा। 


घायल हैं मुरझाए हैं  उलझन में हैं सुमन 

देख! डालिया फूल पत्तों से लद जाएगी 

धरा के आँचल पर लहराएगा लहरिया 

सावन-भादों न बना नयनों को हिम्मत रख  

अंतस में नवाँकुर प्रीत के खिलजाएँगे।


कुछ पल ठहर पथिक

 डगर कठिन  है गंतव्य दूर  तेरा। 


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, अप्रैल 15

मैं और मेरा अक्स



 अँजुरी से छिटके जज़्बात 

मासूम थे बहुत ही मासूम 

पलकों ने उठाया 

वे रात भर भीगते रहे 

ख़ामोशी में सिमटी

लाचारी ओढ़े निर्बल थी मैं। 


तलघर की कोठरी के कोने में

अनेक प्रश्नों को मुठ्ठी में दबाए 

बेचैनियों में सिमटा

 बहुत बेचैन था मेरा अक्स।

 

 आँखों में झिलमिलाती घुटन

 धुएँ-सा  स्वरुप 

 बारम्बार पीने को प्रयासरत 

दरीचे से झाँकती

विफलता की रैन बनी थी मैं। 


निर्बोध प्रश्नों को

बौद्धिकता के तर्क से सुलझाती

असहाय झूलती 

 बरगद की  बरोह का

धरती में धसा स्तम्भ बनी थी मैं। 


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

मंगलवार, अप्रैल 6

ओल्यूं




राजस्थानी बोली में नवगीत


 पोळी ओटाँ  गूँथू स्वप्ना

चूड़लो पाट उलझावे है 

सांकळ जइया मनड़ो खुड़को 

याद घणी थांरी आवे है।।


महंदी रोळी काजल टिकी

करे बिती बातां ऐ थांरी

 बोली बोलय लोग घणेरा 

तुम्ब जईया लागे खारी

बाट जोवता जीवन बित्यो

हिवड़लो थाने बुलावे  है।।


पैंडे माही टूटी गगरी

हाथा में ढकणी रहगी सा

खूँटी पर ईढ़ानी उलझी

पाणी कंईया लाऊँ सा 

घड़ले ऊपर घड़लो ऊंचो 

पणिहारी बात बणावे है।।


बारह मास स थे घर आया 

दो सावण दो जेठ बताया

 आभा गरजी न मेह बरसो 

प्रीत फूल मन का मुरझाया 

धीरज धर  बाता में उलझी

ढ़लतोड़ी साँझ रुलावे है।।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, अप्रैल 4

समझ के देवता


उन्हें सब पता है

कि कैसे पानी से झाग बनाने हैं ?

उस झाग को कैसे मन पर पोतना है ?

कैसे शब्दों से एहसास चुराने हैं? 

कैसे डर को  पेट में छिपाना है?

सुविधानुरुप कैसे अनेक कहानियाँ गढ़नी हैं?

दिन महीने वर्ष  प्रत्येक पल को कैसे उलझाना है?

सच्चे भोले माणसों को अदृश्य बिसात में 

 रणनीति के तहत कैसे उलझनों में उलझाना है?

वे सब  जानते  हैं  कैसे? कब? कहाँ?

पैरों की बिबाइयों से पेट में झाँकना है

पेट में अन्न की जगह कैसे डर को छिपाना है?

कैसे हवा के वेग से डर को दौड़ाना  है?

कैसे दिमाग़ की शिराओं में डर को चिपकाना है?

कैसे पोषण का अभाव दिखाकर दफ़नाना है?

डर की मृत देह से कैसे बदबू  फैलानी है?

 शरीर के अंगों को कैसे विकृत करना  है?

उन अबोध माणसों की बुद्धि पर

नासमझी को कैसे हावी करना है?

उन्हें पता है कि कैसे  भेदभाव की

गहरी खाई खोदी जाती है?

इस और उस पार के दायरे को कैसे   

सिखाया और समझाया जाता है ?

खाई पर मंशा का तख़ता कैसे  रखा जाता है?

कैसे मनचाहे इरादों के साथ

मन चाहे लोगों को

इस और उस पार लाया ले जाया जाना है?

कब कहाँ डर की डोर का रंग बदला जाना है?

कैसे डर को एक नाम दिया जाना है?

 धर्म कह कैसे नवीनीकरण किया जाना है? 

समझ के देवता यह सब बखूबी जानते हैं। 


@अनीता सैनी  'दीप्ति'

गुरुवार, अप्रैल 1

बहनापा खलता है आज


उम्र के तीसरे पड़ाव पर 

 शिथिल पड़ चुकी देह से सुलगतीं सांसें 

उसका बार-बार स्वयं से उलझना

  बेचैनियों में लिपटी तलाशती है जीवन

 ज्यों राहगीर सफ़र में तलाशता छाँव है।

 

  समय की चोट के गहरे निशान

  चेहरे की झुर्रियों से झाँकते रहते हैं  

  झुर्रियाँ मिटाने को तत्पर है आज 

 ज्यों वर्तमान के अतीत के लगे पाँव हैं ।


 प्रेम से किए अनेकों प्रेम के प्रतिकार 

 घुटनों की जकड़न से जकड़े हुए हैं 

  जकड़न को तोड़ने की अभिलाषा 

 भोर टिमटिमाते प्रश्नों के प्रतिउत्तर 

 उससे सौंपती है पात पर।

 

शब्दों में समझ की दूरदर्शिता और 

अँकुरित मंशा को बारीकी से पढ़ना

 इच्छा-अनिच्छा की रस्सी से जीवन को 

 पालना झुलाती ज़िंदगी का कोलाहल

 लिप्त है मौन में ।

 

 पेड़ के  सहारे फूलों को निहारती 

 रोज़ सुबह इंतज़ार में आँखें गड़ाती  

हल्की मुस्कुराहट के साथ क़दम 

 स्वतः साथ-साथ चल पड़ते 

बिछड़कर बहनापा खलता है आज।

 

  कील में अटके कुर्ते को निकालना 

 खुसे धागे को ठीक करते हुए कहना-

  सुगर और बीपी ने किया बेजान है 

 मॉर्निग वाक की सलाह डॉ.की है। 


अनुदेश की अनुपालना अवमानना में ढली 

उसके पदचाप आज-कल दिखते नहीं है।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'