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मंगलवार, मार्च 31

मानव मन अवसाद न कर


खिल उठेगा आँचल धरा का, 
मानव मन अब अवसाद न कर, 
हुओर प्रेम पुष्प खिलेंगे, 
समय साथ है आशा तू धर। 

 पतझर पात विटप से झड़ते, 
बसँत नवाँकुर खिल आएगा, 
खुशहाली भारत में होगी  
गुलमोहर-सा खिल जाएगा, 
बीतेगा ये पल भी भारी,  
संयम और  संतोष  तू  वर। 

 धरा-नभ का साथ है सुंदर 
 जीवन आधार बताते हैं 
कर्म कारवाँ  साथ चलेगा, 
मिलकर के प्रीत सँजोते हैं,  
पनीली चाहत थामे काल ,  
विवेक मुकुट मस्तिष्क पर धर। 

खिलेंगे किसलय सजा बँधुत्त्व 
मोती नैनों के ढ़ोते हैं, 
 स्नेह मकरंद बन झर जाए,
 अंतरमन को समझाते हैं,  
 विनाश रुप के  काले मेघ,
  धरा से विधाता विपदा हर । 
©अनीता सैनी 

सोमवार, मार्च 30

अभिसारिका



प्रीत व्यग्र हो कहे राधिका, 
घूँघट ओट याद हर्षाती ।
मुँह फेरुँ तो मिले कान्हाई, 
जीवन मझधारे तरसाती ।।

साँझ-विहान गुँजे अभिलाषा, 
मनमोहिनी- मिलन को आयी। 
प्रिये की छवि उतरी नयन में, 
अश्रुमाला गिर हिय समायी। 
जलती पीड़ा दीप माल-सी,  
यादें माधव की रूलाती ।।

बारंबार जलाती बैरन, 
भेद  कँगन से कह-कह जाती। 
भूली-बिसरी सुध जीवन की, 
समय सिंधु में गोते खाती।  
हरसिंगार सी  पावन प्रीत, 
अभिसारिका बन के लुभाती ।।

नीरव पीड़ा है अदृश्य सी 
याद  रेख की जलती  ज्वाला 
भूली रूप फूल की डाली 
लूट विभा विदेह की बाला 
करुण पुकार हृदय आँगन की 
 बुलबुल- भांति तड़पती रहती। 

©अनीता सैनी 

बुधवार, मार्च 25

साँसें पूछ रहीं हाल प्रिये

मूरत मन की  पूछ रही है, 
नयनों से लख-लख प्रश्न प्रिये,
 जीवन तुझपर वार दिया है,
साँसें पूछ रहीं हाल प्रिये। 

समय निगोड़ा हार न माने,
पुरवाई उड़ती उलझन में,
पल-पल पूछूँ हाल उसे मैं,
नटखट उलझाता रुनझुन में
कुशल संदेश पात पर लिख दो,
चंचल चित्त अति व्याकुल प्रिये।। 

भाव रिक्त कहता मन जोगी,  
नितांत शून्य आंसू शृंगार,
भाव की माला गूँथे स्वप्न,
चेतन में बिखरे बारबार,
अवचेतन सँग गूँथ रहीं हूँ, 
कैसा जीवन जंजाल प्रिये।।

सीमाहीन क्षितिज-सी साँसें,
तिनका-तिनका सौंप रही हूँ,
आकुल उड़ान चाह मिलन की,
भाव-शृंखला भूल रही हूँ,
सुध बुद्ध भूली प्रिय राधिका, 
कैसी समय की ये चाल प्रिये।।

© अनीता सैनी

मंगलवार, मार्च 24

महावन

महावन में दौड़ते देखे, 
अनगिनत 
जाति-धर्म और,
मैं-मेरे के
 अस्तित्त्वविहीन तरु, 
सरोवर के 
किनारे सहमी,
 खड़ी मैं सुनती रही, 
निर्बोध 
बालिका की तरह, 
उनकी चीख़ें। 

आख़िर ठिठककर, 
 बैठ ही गयी,
अर्जुन वृक्ष के नीचे मैं भी,
देख रही थी ख़ामोशी से,
शहीद-दिवस पर, 
शहीदों का कारवाँ,  
सुन रही थी, 
पति-पिता को पुकारतीं, 
उनकी चीख़ें।  

देख-सुन रही थी 
ढँग जीने का,
बुद्धिमान वृक्षों की, 
बुद्धिमानी का,
भविष्य से बेख़बर, 
सींचते हैं 
सभ्य-सुसंस्कृत महावृक्ष  
 नक्सली नाम की, 
कँटीली झाड़ियाँ,
उन झाड़ियों में उलझे दामन,
उनकी चीख़ें। 

© अनीता सैनी 

रविवार, मार्च 22

गूँथे तारिका नित सुंदर स्वप्न


गूँथे तारिका नित सुंदर स्वप्न, 
प्रीत अवनी पर है अवदात ।
कज्जल कुँज में झूलता जीवन,  
समय सागर की है  सौगात।। 

 लहराती है नभ में पहन दुकूल ,
शीतल बयार संग प्रीत पली ।
उमड़ी धरा पर सुधी मानव की ,
खिला नव-अँकुर धरणी चली ।

छिपे तम में  मन के सुंदर भाव 
चाहता है एकाकी बरसात ।
गूँथे तारिका नित सुंदर स्वप्न, 
प्रीत अवनी पर है अवदात ।

करुणामयी  अनुराग हृदय भरा ,
पूनम  चाँदनी मधुर पराग झरा ।
अनंत अंबर खोजे चित्त चैन, 
झरते तारे का प्रतिबिंब ठहरा ।

समय सागर पर ठिठुरी छाया, 
जीवन प्रलय है झँझावत ।
गूँथे तारिका नित सुंदर स्वप्न, 
प्रीत अवनी पर है अवदात ।

© अनीता सैनी 

शनिवार, मार्च 21

दुर्लभ साँसें



धड़कन है जो धड़कती रहती है,
संग  साँसें भी चलतीं रहतीं हैं, 
थामें दिल का हाथ, हाथों में,
आँखें भी हँसती-रोतीं रहती हैं। 

सृष्टि में बिखरीं हैं अनंत अविरल साँसें,
धरती-जल-अंबर के आनन पर देखो,
कहीं लहरायी बल्लरियों-सी कहीं, 
अनुभूति में उलझी टूटे तारों-सी साँसें। 

वेंटिलेटर पर संघर्ष करतीं देखीं, 
जीवनदायिनी गणित साँसें, 
जीवन का अर्थ बतातीं समझाती, 
संसार की असारता का करतीं हैं,
बखान दुर्लभ साँसें। 

©अनीता सैनी 

बुधवार, मार्च 18

नितांत शून्य में खोजूँ... नवगीत



मौन नितांत शून्य में खोजूँ ,
प्रिया प्रीत अनुगामी-सी, 
झरते नयन हृदय में सिहरन, 
मधुर स्पंदन निष्कामी-सी।  

तुहिन कणों से स्वप्न सजाए,
मृदुल कंपन मन का गान,  
शीतल झोंके का उच्छवास, 
ठहर हृदय ताने वितान। 

अंतर निहित प्रीत पथ मेरा,
फिरी देश बंजारण-सी, 
मौन नितांत शून्य में खोजूँ, 
प्रिया प्रीत अनुगामी-सी। 

तिमिर घिरे हैं दीप जलाऊँ, 
विरह आग मन जल जाता, 
श्याम दरश मै  प्रति दिन चाहुं,
नयन अश्रु भर भर आता। 

चरण रहूँ मैं बन कुमोदिनी, 
प्रतिनिश्वास यामिनी-सी, 
मौन नितांत शून्य में खोजूँ,
प्रिया प्रीत अनुगामी-सी। 

©अनीता सैनी

मंगलवार, मार्च 17

ढलती साँझ... नवगीत



ढलती साँझ मुस्कुरायी, 
थामे कुँजों की डार, 
थका पथिक लौटा द्वारे,  
 गूँजे दिशा मल्हार।  

पाखी प्रणय प्रीत राही,  
शीतल पवन के साथ, 
मुग्ध लय में झूमा अंबर,  
थामे निशा का हाथ,  
चंचल लहर चातकी-सी,  
दौड़ी भानु के द्वार, 
ढलती साँझ मुस्कुरायी,  
थामे कुँजों की डार। 

पूछ रहे हैं  पत्थर-पर्वत,  
ऊँघते स्वप्न की रात, 
सूनी सरित पर ठिठककर,  
सहमी हृदय की बात,  
अनमनी भोर में बैठी, 
पहने मौन का हार,  
ढलती साँझ मुस्कुरायी,  
थामे कुँजों की डार। 

मूक स्मृति हिय बैठी,  
वेदना अमिट छांव,  
समय सरिता संग ढूँडूं,  
अदृश्य कवित के पांव,  
काँपते किसलय खिल उठे,   
मिला बसंती दुलार,  
ढलती साँझ मुस्कुरायी, 
थामे कुँजों की डार। 

©अनीता सैनी 

रविवार, मार्च 8

बेसुध धरा पर पड़ी है दिल्ली... नवगीत

कुछ रंग अबीर का प्रीत से,
मानव मानव पर मलते  हैं, 
बेसुध धरा पर पड़ी दिल्ली, 
मिलकर बंधुत्व  उठाते  हैं

सोनजही की बाड़,बाँधकर, 
किसलय क़समों-वादों की ।
नीर बहा दे नयनों  से कुछ, 
बिछुड़ी निर्मल यादों की

बहका मन बेटों  के उसका, 
कहकर फूल थमातें हैं ।
बेसुध धरा पर पड़ी दिल्ली,  
मिलकर बंधुत्व उठाते हैं ।

नाज़ुक दौर दर्द असहनीय, 
मरहम मधु वाणी का दे ।
जली देह अपनों के हाथों, 
कंबल मानवता का दे

अहंकार गरल बोध मन का,
अंतर द्वेष मिटाते हैं ।
बेसुध धरा पर पड़ी दिल्ली, 
मिलकर बंधुत्त्व उठाते हैं।

कुछ रंग अबीर का प्रीत से,
मानव मानव पर मलते  हैं, 
बेसुध धरा पर पड़ी दिल्ली, 
मिलकर बंधुत्व  उठाते  हैं

© अनीता सैनी

शनिवार, मार्च 7

अकेली औरतें



अकेली औरतें अकेली कहाँ होती हैं,  
घिरी होती हैं वे ज़िम्मेदारियों से, 
गिरती-उठती स्वयं ही सँजोती हैं आत्मबल,   
भूल जाती हैं तीज-त्योहार पर संवरना। 

सूखे चेहरे पर पथरायी आँखों से, 
दे रही होती हैं वे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर, 
वर्जनाओं के नाम पर मनाही होती है उन्हें, 
खिलखिलाकर हँसते हुए करना ख़ुशी का इज़हार। 

अकेली औरतें दौड़ती रहती हैं ता-उम्र अकेली ही,  
क्योंकि समाज को नज़र नहीं आते उनमें मृदुल संस्कार, 
फिर भी ओढ़े रहतीं  हैं वे ख़ुद्दारी की महीन चादर, 
सीखती हैं एक नया सबक़ ख़ुद को करने सुढृढ़। 

अन्य औरतें इतराती हुईं  सुनाती हैं ,  
इन्हें पति-परिवार के अनगिनत क़िस्से-कहानियाँ, 
अनायास उभर आता इनका भी प्रेम, 
परंतु पीड़ा छिपाने में होती है इन्हें महारत हासिल। 

अकेली औरतें सहारा देती  हैं अपने ही जैसी, 
अनगिनत अकेली औरतों को, 
तब अकेली औरतें अकेली कहाँ होतीं  हैं, 
वे  बीनने लगती हैं अपने ही जैसी औरतों के दुःख-दर्द। 

समाज की हेयदृष्टि के सहती है तीखे तीर, 
संयम से सह समझकर मानती उसे वक़्त की तासीर, 
वे इन्हें जमा करती हैं दिल के तहख़ाने में,  
और तह-दर-तह उठती सतह पर खड़े हो, 
मन ही मन मुस्कराते हुए कहती हैं नहीं वह मज़बूर। 

अकेली औरतें अकेली कहाँ होती हैं,  
घिरी होती हैं वे ज़िम्मेदारियों से, 
गिरती-उठती स्वयं ही सँजोती हैं आत्मबल,   
भूल जाती हैं तीज-त्योहार पर संवरना। 

©अनीता सैनी 

गुरुवार, मार्च 5

मिट्टी-सी निरीह


मैंने देखा है, 
 तुम्हारा अनुमोदन, 
न जाने क्यों,  
अनदेखा कर दिया,  
 आवृत्ति असीम आग्रह तुम्हारा,   
ठुकराती रही मैं क्योंकि,   
निरीह थी तुम आँगन में मेरे, 
 इतिहास के पन्नों को, 
 टटोलते हुए,  
 देखा है तुम्हें मैंने, 
तुम आज भी वहीं थीं, 
 मनु काल के वही,  
फुँफकारते साँप, 
डंक मारते बिच्छू,  
बदचलनी की, 
वही ज़हरीली हवा, 
पल-पल पड़ते, 
 कुलटा,बाज़ारु नाम के,  
 वही नुकीले पत्थर, 
 तुम्हें मिट्टी-सी, 
 निरीह मानते हैं  वे, 
तुम्हारा सब्र नहीं टूटता? 
 वह मुस्कुराते हुए बोली- 
अभिमानी ईह में,  
स्वयं को रौंदता है, 
और मैं उसे,  
क्योंकि मैं निरीह हूँ। 

©अनीता सैनी 

 निरीह = इच्छारहित, विरक्त
 ईह = तृष्णा / इच्छा  करना 



मंगलवार, मार्च 3

सुख स्वप्न हमारा... नवगीत


 मुक्त पवन का बहता झोंका,  
 कुछ पल का बने सहारा है, 
 निर्मल नीर चाँद की छाया,
ऐसा सुख स्वप्न हमारा है। 

समय सरित बन के बह जाता, 
 रहस्यमयी लहरों में कौन, 
शून्यकाल की सीमा  बैठा,
नीरव पुलिन मर्मान्तक मौन। 

 गहन निशा में जुगनू आभा,
 थाह तम साथी सहारा है,
निर्मल नीर चाँद की छाया,
ऐसा सुख स्वप्न हमारा है। 

धुंध की धूमिल आभा में, 
बांधे बँधन प्रेम विश्वास , 
सहृदय दीप वर्ति साँसों में,
प्रीत ज्योति की अमर है आस। 

तरणि तट मिट्टी के घरौंदे,
सजन बस तेरा सहारा है,
निर्मल नीर चाँद की छाया,
ऐसा सुख स्वप्न हमारा है

©अनीता सैनी 

रविवार, मार्च 1

सजा कैसा बाज़ार है?



उमड़ा जग में तांडव तम का, 
मानवता शर्मसार है, 
इंसा-इंसा को निगल रहा, 
सजा कैसा बाज़ार है? 

 होड़ कैसी बढ़ी उन्नति की,  
अवनति का शृंगार है, 
सुख वैभव स्वार्थ सिद्धि को,  
 गढ़ता जतन बारंबार है

अगुआओं के दिवास्वप्न का, 
जनता उठाती भार है, 
इंसा-इंसा को निगल रहा,  
सजा कैसा बाज़ार है? 

लूट-पाट का दौर दयनीय, 
मचा जग में हाहाकार है,  
अनपढ़ हाथों में खेल रहे, 
पसरा अत्याचार है

त्याग-तपस्या भूले उनकी,  
जीवन जिनका उपकार है,  
इंसा-इंसा को निगल रहा, 
सजा कैसा बाज़ार है? 

©अनीता सैनी