Powered By Blogger

शनिवार, अक्तूबर 29

मेरी दहलीज़ पर



भोर का बालपन

घुटनों के बल चलकर आया था

उस रोज़ मेरी दहलीज़ पर

गोखों से झाँकतीं रश्मियाँ

ममता की फूटती कोंपलें

उसकने लगी थीं मेरी हथेली पर

बदलाव की उस घड़ी में

छुप गया था चाँदबादलों की ओट में

सांसें ठहर गई थीं हवा की

बदल गया था

भावों के साथ मेरी देह का रंग

मैं कोमल से संवेदनशील

और पत्नी से माँ बन गई।

 

आँचल से लिपटी रातें सीली-सी रहतीं

मेरे दिन दौड़ने लगे थे

उँगलियाँ बदलने का खेल खेलते पहर

वे दिन-रात मापने लगे

सूरज का तेज विचारों में भरता

मेरा प्रतिबिम्ब अंबर में चमकने लगा

नूर निखरता भावनाओं का

मैं शीतल चाँदनी-सी झरती रही

बदल गया था

भावों के साथ मेरी देह का रंग

मैं कोमल से संवेदनशील

और पत्नी से माँ बन गई। 


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


बुधवार, अक्तूबर 26

काव्य-संग्रह 'टोह' के अवतरण दिवस पर




मेरी मानस पुत्री के जन्म पर मेरी माँ उतनी ही ख़ुश है जितनी पहली बार वह नानी बनने पर थी। क़लम के स्पर्श मात्र से झरता है प्रेम अब हम दोनों के बीच। माँ के हृदय में उठती हैं हिलोरें भावों कीं जो मेरी क़लम में शब्द बनकर उतर आते हैं।

आज मेरे नवीनतम काव्य-संग्रह 'टोह' के अवतरण दिवस पर Bodhi Prakashan जयपुर के कार्यालय में अपने-अपने क्षेत्र के स्वनामधन्य महानुभावों
श्री माया मृग जी (संचालक:बोधि प्रकाशन, जयपुर )

श्री  M.P. Saini 
(वरिष्ठ अधिवक्ता व पूर्व अध्यक्ष सैनी समाज, जयपुर 
अध्यक्ष: सिविल राइट्स सोसायिटी, जयपुर)

श्री डॉ.कमल सिंह जी (प्राचार्य एवं वरिष्ठ शिक्षाविद, जयपुर)
एवं मेरे प्रिय पुत्र-पुत्री
का सानिध्य, स्नेह, उत्साहवर्धन, आशीर्वाद व मार्गदर्शन प्राप्त हुआ।
यह ख़ुशी आपके साथ साझा करते हुए साहित्यिक जवाबदेही का एहसास होते हुए मन प्रफुल्लित है।
पुस्तक के आकार लेने तक की प्रक्रिया में शामिल समस्त महानुभावों का हृदय से आभार।

कविता संग्रह 'टोह'  प्राप्त करने हेतु अमेज़ॉन लिंक-




@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, अक्तूबर 23

बिरला गान



समय ने सफ़ाई से छला  

उस सरल-हृदय ने मान लिया 

कि गृहस्थ औरतों का क़लम पर 

दूर-दूर तक कोई अधिकार नहीं।


अतृप्त निगाहों से घूरती किताबों को

ज्यों ज़िंदगी ने सारे अनसुलझे रहस्य

 स्याही में लिप इन्हीं पन्नों में छुपाए हैं

 उसकी ताक़त से रू-ब-रू

 क़लम सहेजकर रखती है।


क़लम के अपमान पर खीझती 

सीले भावों की बदरी-सी बरसती  

उसके स्पर्श मात्र से झरता प्रेम

वह वियोगिनी-सी  तड़प उठती है।


 पंन्नों पर उँगली घुमाती

एक-एक पंक्ति को स्पर्शकर

बातें कविता-कहानियों-सी गढ़ती 

शब्द नहीं

आँखें बंदकर अनगढ़ भावों को पढ़ती है।


 अनपढ़ नहीं है वह 

गृहस्थी की उलझनों में उलझी 

 शब्दों से मेल-जोल कम रखती है 

 उनसे जान-पहचान का अभाव 

बढ़ती दूरियों से बेचैनी में सिमटी 

आत्म  छटपटाहट से लड़ती है।


शब्दों को न पहचानना खलता है उसे

आत्मविश्वास की उठती हिलोरों संग

 साँझ की लालिमा-सी 

भोर का उजाला लिए कहती है-

 लिखती है मेरी बेटी

क्या लिखती है वह नहीं जानती

जानती है बस इतना कि लिखती है मेरी बेटी

पहाड़-सी कमी

 छोटे से वाक्य में पूर्णकर लेती है माँ।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, अक्तूबर 9

मैं जब तुम बनकर जीती हूँ


मैं जब तुम बनकर जीती हूँ / अनीता सैनी 'दीप्ति'
...

मैं जब, तुम बनकर जीती हूँ

तब मैं जी रही होती हूँ आकाश

उन्मुक्त भाव

धूप के टुकड़ों को सींचते 

भोर के क़दमों की आहट 

क्षितिज-सा समर्पण 

तब मैं लिख रही होती हूँ पहाड़

दरारों से झाँकती सदियाँ 

पाषाण के फूटते बोल 

जीवन काढ़े का अनुभव 

परिवर्तन पी रही होती हूँ

तब मैं, मैं कहाँ रहती हूँ

बिखर रही होती हूँ काग़ज़ पर

भावों की परछाई शब्दों में ढलती 

उस वक़्त कविता-कहानियों का 

अनकहा ज़िक्र जी रही होती हूँ।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'