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गुरुवार, दिसंबर 31

31 दिसंबर

 वह चला गया

कुछ बड़बड़ाते हुए 

फिर कभी न लौटने के

वादे के साथ

ख़ामोशी की धुँध में 

उदासी को ओढ़े

मानवमंशा से मिले ज़ख़्मों को

स्वाभिमान की चादर से

बार-बार ढकता हुआ 

पलकें झुकाए

न हिला न डुला

न कुछ बोला 

बस चला गया चुपचाप।


मन की वीथियाँ  

 बुहारती-बुहारती 

थक गई थी मैं 

थकान मेरे कंधों पर

ज़िद से आ बैठी 

और एक-दो तमाचे मैंने भी जड़े

एक क्षण पलकें उठाईं 

दिल की गहराइयों में उतर

गलती पूछी थी उसने 

फिर ओढ ख़ामोशी की चादर 

कुछ कहा न सुना

अनसुने कर मेरे अहसास 

बस चला गया चुपचाप।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


रविवार, दिसंबर 27

सुराही पर


बहुत दिनों से बहुत ही दिनों से

  सुराही पर मैं तुम्हारी यादों के 

  अक्षर से विरह को सजा रही हूँ 

छन्द-बंद से नहीं बाँधे उधित भाव 

कविता की कलियाँ पलकों से भिगो 

कोहरे के शब्द नभ-सा उकेर रही हूँ। 


उपमा मन की मीत मिट्टी-सी महकी  

रुपक मौन ध्वनि सप्त रंगों-सा शृंगार

यति-गति सुर-लय चितवन का क़हर  

अक्षर-अक्षर में उड़ेला मेघों का उद्गार

शीतल बयार स्मृतियों के पदचाप 

मरु ललाट पर  छाँव उकेर  रही हूँ।


प्रीत पगे महावर संग मेहंदी का लेप

काँटों की पीड़ा कलियों  से छिपाती 

अनंत अनुराग भरा घट ग्रीवा तक

 जगत उलाहना हँस-हँस लिखती 

किसलय पथ  उपहार जीवन का  

 वेदना उन्मन चाँद की उकेर रही हूँ।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, दिसंबर 24

कुरजां और प्रेम

पाहुन कुरजां

स्मृतियाँ छोड़ ज़ेहन में 

उड़ जाते हैं  सुने नभ में


प्रभात के मोती सज़ा 

दूधिया पँखों पर

 पी संदेश है सुनाता 

 

मन-विथियों में विचरता 

खुली आँखों में स्वप्न लिए 

 कुहासे में है खो जाता 

 

  होठों पर चुप्पी लिए 

भावना से  छूना 

आना और चले जाना।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


सोमवार, दिसंबर 21

शब्द


 ज़िद की झोली कंधों पर लादे आए !

 शब्दों के झुरमुट को

  चौखट से लौटाया मैंने

  ओस की  बूँदों ने बनाया बंधक 

   बग़ीचे की बेंच पर ठिठुरते देखे!

  मुझ बेसबरी से रहा नहीं गया

  बहलाने निकली उन्हें 

  परंतु चाहकर भी कुछ कहा नहीं गया

तो क्या सभी सँभालकर रखते हैं ?

शब्दों के उलझे झुरमुट को 

क्योंकि शब्दातीत में समाहित होते हैं 

अर्थ के अथाह भंडार 

झरने का बहना चिड़िया का चहकना

प्रभात की लालिमा में क्षितिज का समाना 

या निर्विकार चित्त की संवेदना तो नहीं शब्द?

 मरु से मिली ठोकरें सिसकती वेदना तो नहीं है?

 कृत्रिम फूलों पर मानव निर्मित सुगंध हैं शब्द?

तो क्या? भावों के भँवर में उलझी ज़िंदगियाँ हैं ?

अंतस का पालना झुलाती शब्दों को मैं 

तभी तो,चाहकर भी कुछ कहा नहीं गया।


@अनीता सैनी  'दीप्ति'


गुरुवार, दिसंबर 17

कशमकश की सीलन


 तुम बहुत मजबूर हो!

दरख़्त के तने का खुरदरापन 

दर्शाता है कशमकश की सीलन

शाख़ पर झूलती ज़िम्मेदारी

समय से पहले पत्तों का पीलापन 

बात यहीं से शुरु करनी चाहिए।


हम भूलने लगे हैं दरख़्त की छाँव 

उस पर बने पक्षियों के आशियाने

महकते खिलखिलाते सुर्ख़ फूल

टहनियों से नाज़ुक संबंधों को 

अब विचारों के फटे  कंबल से

थकते अहसास झाँकने लगे हैं।


प्रेम की पगडंडियों से परे हम

पहुँच गए हैं पथरीले रास्तों पर

झंझावातों  के काँटे कुरेदते-कुरेदते

उलझनों के घने कोहरे में विलीन 

चलने लगे हैं नींद के पैरों से

समझौते की सड़क के किनारे-किनारे।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

मंगलवार, दिसंबर 15

कैसे?

 बहुत भिन्न हैं वे तुम लोगों से 

तुम्हारे लिए वाकचातुर्यता  शग़ल है 

तलाशते हैं वे संबल तुम्हारे कहे शब्दों में 

तुम षड्यंत्र की कोख  से

नित नए  पैदा करते हो शकुनी

हुज़ूर! समय पर फेंके पासे कैसे छिपाओगे?

  

तुम तरक़्क़ी की सीढ़ियों को 

गोल-गोल घुमावदार बनाते हो 

उन पर ग़लीचा गुमान का बिछाया  

अपेक्षा को उन्नति का जामा 

उद्देश्य को लिबास प्रगति का पहनाया 

कूड़े के ढ़ेर पर महल मंशा का कैसे सजाओगे?


ज़िद को सफलता का मफलर 

उस पर तमगेनुमा बटन जड़वाए

फटे कुर्ते पर रफ़ू नुमा सिलाई

धागे को सुंदरता के ढोंग से ढका है 

भविष्य की  काया से लपेटी हैं कतरन

कड़ाके की बहुत ठंड है दिसंबर में

तुम असफलता कैसे  छिपाओगे?


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, दिसंबर 6

बहुत बुरा लगता है


अनदिखे में तुम्हारे होने का आभास

दिल को इतना भी बुरा नहीं लगता 

बुरा नहीं लगता इंतज़ार के दरमियाँ

पनपने वाले प्रेम को पोषित करना।


बुरा नहीं लगता शब्दों के सागर में 

भावनाओं के ज्वार-भाटे का उतार-चढ़ाव 

बुरा नहीं लगता पैरों को भिगोती लहर का 

किनारे पर आकर लौट जाना।


बुरा नहीं लगता उतावलेपन में झाँकती  

ज़माने की ऐंठन भरी उलाहना से 

कभी-कभी खटकता है समय का 

स्मृतियों के सिरहाने बैठ सहलाना।


बुरा नहीं लगता हवा की आहट से

विचलित धड़कनों को सुलाना 

परंतु बहुत बुरा लगता है तुम्हारे द्वारा 

पुकारे जाने की आवाज़ को अनसुना करना।


@अनीता सैनी 'दीप्ति' 

गुरुवार, दिसंबर 3

देखो! तुम अपने पैरों की तरफ़ मत देखो


 तुम अपने पैरों की तरफ़ मत देखो 

मैं कहती हूँ न बार-बार मत देखो 

तुम चाँद-सितारों की बातें करो 

पगडंडियों पर बिछी ओस की उलझन कहो 

देखो ! तुम्हें देख कैसे मुस्कुराते हुए 

 धीरे-धीरे चाँदनी बरसता चलता है चाँद। 


तुम प्रेम की मीठी-मीठी बातें करो 

ख़ुबसूरत हर्षाते लम्हों की बातें करो 

गेहूँ सरसों से लहराते खेतों  की बात कहो 

खेत में खड़े व्याकुल बिजूका की व्यथा 

उसके  साथ गुनगुनाए गीत सुनाओ  

मैंने कहा न अपने पैरों को मत देखो l


देखो ! नील मणि-सा नीला आसमान 

 सफ़ेद लिबास में इस पर दौड़ते अबोध छौने 

 तुम प्रेम के सागर में आँखें मूँद डूब जाओ 

 देखो! अपने पैरों से ध्यान हटाओ तुम 

मैंने कहा न ध्यान हटाओ 

अभी-अभी टूटी हैं बेड़ियाँ  पैरों से 

स्याही से लिखे फ़रमान की बातें न कहो तुम।  


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


शनिवार, नवंबर 28

चलिए कुछ विचार करते हैं

 

कृषि प्रधान
 कहे जाने वाले भारत  देश में 
जब किसानों का
 निवाला छीना जाता है 
बेहतर है 
इन्हें  मर जाना चाहिए।

कुछ  विचार करते हैं 
 मिल-बैठकर, समर्थन चाहिए!
अगर ये ऐसे नहीं मरते हैं   
इन्हें मिलकर मारते हैं  
ठंड को कह तुड़वा दे हड्डी या 
 कोरोना को कहे सीने पर बैठ जाए!

या फिर मूक-बधिर बन
  टी.वी. पर आँखें गड़ातें हैं 
नेताओं की रैली पर 
गुलाब के फूल बरसाते हैं  
 खेतिहर पर ठंडा पानी डाल
  तमाशा देखते हैं।

चलिए !  
चुपके से एक क़ानून बनाते हैं  
कुछ झूठ 
कुछ सच मिलकर फैलाते हैं  
नासमझ को नादानी में डुबोते हैं।

कहो तो मूर्खता को
 समझदारी के पैर लगाते हैं  
 फिर भी न मरे उन्हें 
 राजनीति की कसौटी पर कसते हैं  
चलो ! कुछ और न सही 
ग़रीबी की रस्सी बना गला घोंटते हैं।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, नवंबर 26

एक साया


 मैने देखा एक साया 

उड़ते खग की परछाई-सा 

अतृप्ति का भाव  दुखों को ओढ़े 

सागर-सा सूनापन सुषुप्तावस्था में 

तनाव की दरारों से शब्द बन झाँकता।


काल के क़दमों से तेज़  

तीव्र  वेग से दौड़ता कुंठित मन-सा 

सूखे पात-सा लिप्सा में लीन 

 तृष्णा  की टहनी पर बैठा 

 काया को कलुषित करता।

 

 दोष रुपी असंख्य रोगों को 

   आग़ोश में भरता 

  चिंता रुपी ज्वर से ग्रसित 

  मनवीय मूल्यों का हनन करता 

  नित नई संर्कीणता धारण करता।

  

 मन के कहे को गुमान से करता 

  विकराल रुप कुकर्मों का धरता 

 षड्यंत्र रुपी गुफा गढ़ता 

 भ्रम की पट्टी आँखों पर बाँधे 

 स्वयं सिद्धता दर्शाने आतुर रहता।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

मंगलवार, नवंबर 24

मूरत मन की

प्रसिद्द गायिका, संगीतकार एवं वरिष्ठ ब्लॉगर आदरणीया शुभा मेहता दीदी ने मेरे नवगीत 'मूरत मन की ' को अपना मधुर स्वर देकर संगीतबद्ध किया है। आदरणीया दीदी के स्वर में अपना नवगीत सुनकर मन भावविभोर हो गया।
आदरणीया शुभा दीदी का स्नेह और आशीर्वाद सदैव मेरे साथ बना रहे।
आप भी सुनिए मेरा नवगीत आदरणीया शुभा दीदी के सुमधुर कंठ से निसृत कर्णप्रिय स्वरलहरी-


मूरत मन की  पूछ रही है, 

नयनों से लख-लख प्रश्न प्रिये,

 जीवन तुझपर वार दिया है,

साँसें पूछ रहीं हाल प्रिये। 


समय निगोड़ा हार न माने,

पुरवाई उड़ती उलझन में,

पल-पल पूछूँ हाल उसे मैं,

नटखट उलझाता रुनझुन में

कुशल संदेश पात पर लिख दो,

चंचल चित्त अति व्याकुल प्रिये।। 


भाव रिक्त कहता मन जोगी,  

नितांत शून्य आंसू शृंगार,

भाव की माला गूँथे स्वप्न,

चेतन में बिखरे बारबार,

अवचेतन सँग गूँथ रहीं हूँ, 

कैसा जीवन जंजाल प्रिये।।


सीमाहीन क्षितिज-सी साँसें,

तिनका-तिनका सौंप रही हूँ,

आकुल उड़ान चाह मिलन की,

भाव-शृंखला भूल रही हूँ,

सुध बुद्ध भूली प्रिय राधिका, 

कैसी समय की ये चाल प्रिये।।

© अनीता सैनी

शनिवार, नवंबर 21

जन्मदिवस पर


लोरी

सोजा रानी गुड़िया रानी
माँ मीठी लोरी गायेगी 
चाँद चंदनिया झर झर करके
चंदन पलने बिछ जायेगी।।

तितली सी तू सोन परी है
मेरे घर की राजकुमारी।
फूलों जैसी कोमल कलिका
बाबा की ओ राज दुलारी।
हर करवट पर घुंघरु बजते
पायल झनकार सुनाएगी।।

चाँद चंदनिया झर झर करके
चंदन पलने बिछ जायेगी।।

तारों जड़ी चुनरिया सुंदर
ओढ़ नींद अब आती होगी।
उड़न खटोले में चढ़ कर तू
परीलोक तक जाती होगी।
चंदा के झूले पर चढ़कर
वही निंदिया फिर आयेगी।।

चाँद चंदनिया झर झर करके
चंदन पलने बिछ जायेगी।।

चंदा मामा खिड़की बैठा
ताक रहा है कब से नटखट
सो जाएगी जब तू बिटिया
किरणें लेकर जाए चटपट
बादलों की डोली चढ़ाके
तूझको बहुत हँसायेगी।।

चाँद चंदनिया झर झर करके
चंदन पलने बिछ जायेगी।।

कुसुम कोठारी'प्रज्ञा' 
--


जन्मदिवस पर 

तुम्हारी अनुपस्थित में 
कमज़ोर नहीं पड़े ममता के तार 
वात्सल्य ने गूँथा था पलना 
स्वप्न-डोर थामी थी चाँद-सितारों ने 
झुलाया था प्रीत ने झूला।

ख़ुशियोंभरा माहौल 
 आशीर्वाद आशीषमय मंज़र 
उपहारों का लगा था अंबार 
संगीत में गूँजते आँगन के 
 थिरक रहे  थे पाँव।
 
हँसी की झीनी चादर ओढ़े 
दायित्त्वपूर्ण आभास 
 लिए सुकून के मोती मुट्ठी में 
पलकों पर कुछ दृश्य अविस्मरणीय 
गुनगुना रहे थे  गान।

मन मायूस न था बेटी का 
नज़रें गूँथ रहीं थीं एक संसार 
भेंट नहीं मन्नत में माँगी थी दुआ 
अगले जन्मदिवस पर हो 
शीश पर तुम्हारा हाथ

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, नवंबर 19

बेटी बेल बाबुल आँगन की


जन्मदिवस एक विशिष्ट दिन जब शुभकामनाओं का अंबार लग जाता है।अपनी बिटिया के जन्मदिवस पर उसको समर्पित लोरी लिखकर मन को बड़ा सुकून मिला।
वरिष्ठ ब्लॉगर एवं जानी-मानी लेखिका, नवगीतकार 
आदरणीया कुसुम कोठारी जी ने इसे स्वर देकर अनूठा बना दिया है।
 आप भी सुनिए आदरणीया कुसुम दीदी की मधुर आवाज़ में इस प्यारी-सी लोरी को-


धींव बेल बाबुल अँगना की 
हिय धड़कन नैना बस जाए 
वैण मधुर तुलसी से पावन 
मन किसलय मधु रस छलकाए।।

पल्लव प्रीत सृजक धरणी-सी
चपल चंद्रिका आँगन चमके
कच्ची नींद  स्वप्न नैनन का 
मुखड़ा चंदा जैसा दमके
कुसुम कली-सी मंजुल मोहक
सुता तात बग़िया महकाए ‌।।

भाल तिलक रोली-सी सजती
होंठों की है वो स्मित-रेखा
नाज़ुक धागा बँधन स्नेह का 
मुक्ता जैसी जीवन लेखा
अमूल्य रत्न दुआ बन बरसे
प्रेम-पंथ दूर्वा लहलाए।।

उजली किरण भोर की बेला
अंतस उजियारा जुगनू-सी
आभा बन बिखरी जीवन में 
जगी आस झलकी टेसू-सी 
अल्पना देहरी पर रचती
ज्यों साँझ दीपक झिलमिलाए।।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

मंगलवार, नवंबर 17

कौन हूँ मैं ?


कौन हूँ मैं ?
पुकारने पर यही प्रश्न 
लौट आता है।
स्वयं को जैसे आज 
भूल चुकी हूँ।
ज़रुरत कहूँ कि ज़िम्मेदारी 
या  नियति का खेल।
कभी-कभी मैं एक 
पिता का लिबास पहनती हूँ 
कि अपने बच्चों की 
ज़रूरतों के लिए दौड़ सकूँ।
कभी-कभी ख़ामशी ओढ़े
मूर्तिकार का लिबास पहनती हूँ।
  कलेजे पर पत्थर रख
उन्हें दिन-रात तरासती हूँ। 
  कभी-कभी ही सही
कुछ देर के लिए 
  मैं एक माँ का लिबास पहनती हूँ ।
उन्हें ख़ूब लाड़ लड़ाती हूँ।
  सरल स्वभाव के साथ
प्रेम का मुखौटा लगाती हूँ।
  अपनी माँ को यादकर 
उसके पदचिह्नों पर चलती हूँ  
कि अपने बच्चों के लिए 
ख़रीद सकूँ ख़ुशियाँ।
कभी-कभी मैं 
ज़मीन से भी जुड़ती हूँ 
खेतिहर की तरह।
ख़ूब मेहनत करती हूँ 
कि पिता-पति के लिए ख़रीद सकूँ 
मान-सम्मान और स्वाभिमान।
परंतु फिर अगले ही पल 
स्वयं से यही पूछती हूँ 
कौन हूँ मैं ?

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शुक्रवार, नवंबर 13

सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे लिए


थक-हारकर
 जब सो जाती है पवन 
दीपक की हल्की-सी लौ में 
मिलने आतीं हैं 
बीते लम्हों की 
कुछ हर्षित परछाइयाँ 
चहल-पहल से दूर 
ख़ामोशी ओढ़े एक कोने में 
कुछ सुनतीं हैंं  
कुछ सुनातीं हैं 
स्वप्न सजाए थाल में 
 बीते पलों के कुछ मुक्तक 
लिए आतीं हैं गूँथने
  हरी दूब-सा खूबसूरत हार 
चाँदनी रात में
 बरसती धुँध छानती हैं 
कुछ भूली-बिसरी स्मृतियाँ 
तुषार बूँदों में भीगे 
मिलने आ ही जाते हैं 
कुछ अविस्मरणीय दृश्य 
हाथों पर धरे अपने 
 अनमोल उपहार 
सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे लिए।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

बुधवार, नवंबर 11

आँखोड़ा


आँखों पर आँखोड़ा 
खुरों में लोहे की नाल को गढ़ा 
दौड़नेवाले की पीड़ा का आकलन नहीं 
दौड़ानेवाले को प्राथमिकता थी।

क्यों का हेतु साथ था ?
किसने बाँधी विचारों की ये पट्टी ?
प्रश्न का उत्तर ज़बान पर
हाथ में फिर वही प्रश्न  था।

ऊँघते हालात का देते तक़ाज़ा 
खीझते परिवर्तन के साथ दौड़ना
चुप्पी साधे समझ गंभीरता ओढ़े  
बुद्धि का यह खेल अलबेला था।

सदियों पहले जिसने भी बाँधी हो ?
कर्ता-कर्म बदले विचारों का भार वही 
समय के साथ रियायत मिली
चमड़े का पट्टा थ्री डी प्रिंट में था।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, नवंबर 8

ठग


गाँव के बाहर पीपल के नीचे 
अँधेरी रात में ओढ़े चाँदनी कंधों पर 
मुखमंडल पर सजाए सादगी की आभा 
शिलाओं को सांत्वना देता-सा लगा।

मुँडेर पर बैठा उदास भीमकाय पहर 
सूनेपन की स्याह काली रात में बदला लिबास 
षड्यंत्र की बू से फुसफुसाती पेड़ की टहनियाँ 
गाँव का एक कोर जलाता-सा लगा।

मूँदे झरोखों से झाँकती बेकारी की दो आँखें 
ज़माने के ज़हरीले धुँए का काजल लगाए 
मनसा की मिट्टी से लीपता मन की दीवार 
सपनों को चुराता चतुर लुटेरा-सा लगा।

प्रभाव प्रभुत्त्व समय के सितारों का साथ 
नासमझ ग्वाले उनकी समझ के दोनों हाथ 
कंबल में छिपाए सिक्के उनकी  खनक 
छद्म वाक्चातुर्यता ओढ़े ठगी वंचक-सा लगा।

प्रभात की आँखों से निकलते लाचारी के रेसे 
साँझ के हृदय में पनपती उम्मीद से लिपटते 
 सिमटती माया का सिलसिला समय अंतराल में 
ठग चेहरा दाढ़ी में छुपाता-सा लगा।

@अनीता सैनी  'दीप्ति'

गुरुवार, नवंबर 5

तुम्हारी याद में



यादों का आसमान 
स्मृतियों की दहलीज़  
अधखुले दरीचे से झाँकता चाँद 
तुम्हारी याद में।

मन की वीथियाँ  को
एहसास के ग़लीचे से सजाया 
भावनाओं के गूँथे बेल-बूँटे 
ख़ुशियों की झालर लगाई 
तुम्हारी याद में।

बिखरी बेचैनियों को 
लिबास दुल्हन का पहनाया 
मेहंदी-काजल से की मनुहार 
सिसकती चुप्पी को मनाया 
तुम्हारी याद में।

आँखों के खारे पानी से 
नित-नित धोए पैर रंगरेज़ समय के 
चाँदनी भर-भर अँजुरी में निखारा 
 जीवन का सारा अंह हारा 
तुम्हारी याद में।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, नवंबर 1

तुम देखो !

स्वच्छंद  आसमान तुम्हारा है 
नहीं है पंखों पर बंदिशों की डोर 
हवा ने भी साधी है चुप्पी 
गलघोंटू नमी का नहीं कोई शोर  
व्यथा कहती साहस से
तुम उल्लास बुन सको तो देखो!

समय बदला  बदले हैं सरोकार 
ऊँघते क़दमों की बदली है तक़दीर 
खेत-खलिहान से निकल धूल मिट्टी से सनी
आँखों ने बुने हैं स्वप्न रुपी संसार 
मेघाच्छादित गगन  गढ़ता है गरिमा 
तुम उत्साह उड़ान में भर सको तो देखो!

डैनों में उड़ान संयम बाँधती पंजों से 
तिनका-तिनका समर्पित साथी को 
मासूम चिड़िया है बहुत नादान 
डाल-डाल पर गूँथती आशियाना 
घरौंदों में भी सुरक्षित नहीं है गौरिया 
तुम कवच बन कठोरकर सको तो देखो!

माँ की हिदायतों में उलझी चहचहाती 
कोरे आकाश को घूर-घूर रह जाती 
साँझ ढले घर-आँगन  में लौट आना 
दोपहर में दानव भटकते गलियों में 
बारिश में न भीगना तेज़ाब है बरसता  
तुम मन को मार रस्सी से बाँध सको तो देखो !

@अनीता सैनी 'दीप्ति '

सोमवार, अक्टूबर 26

परिवर्तन सब निगल चुका था


हमने शब्दों का व्यापार करना चाहा 
परंतु वे शब्द भी खोखले प्रभावरहित थे 
हमारा व्यवहार संवेदनारहित 
भाव दिशा भूल ज़माने से भटक चुके थे 
शुष्क हृदय पर दरारें पड़ चुकी थी 
अब रिश्ते रिश्ते नहीं पहचान दर्शाने हेतु 
मात्र एक प्रतीक बन चुके थे 
जीवन ज़रुरतों का दास बन चुका था 
घायल सांसों से आँखें चुराता इंसान 
इंसानीयत का ओहदा छोड़ चुका था 
अबोध बालकों की घूरतीं आँखें 
बालकनी से झाँकते कोरे जीवंत चित्र थे 
माँ की ममता पिता का दुलार 
अपनेपन का सुगढ़  एहसास  
सप्ताह में एक बार मिलने वाली 
मिठाई बन चुका था 
मास्क में मुँह छिपाना 
हाथों पर एल्कोहल मलना 
परिवर्तन पहनना अनिवार्य बन चुका था 
अकेलापन शालीनता की उपाधि
मानवीय मूल्य मात्र बखान 
फ़्रेम में ढलती कहानी बन चुके थे 
देखते ही देखते बदलाव सब निगल चुका था।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, अक्टूबर 25

अभिलाषा



मन दीये में नेह रुप भरुँ  
बैठ स्मृतियों की मुँडेर पर।
समर्पण बाती बन बल भरुँ 
समय सरित की लहर पर।
प्रज्वलित ज्योति सांसों की 
बन प्रिय पथ पर पल-पल जलूँ।

भाव तल में तरल तरंग 
मृदुल अनुभूतियाँ बन छाया ऊठूँ ।
किसलय-दल मैं सजल भोर बनूँ 
पथिक पथ तपन मिटे दूर्वा रुप ढलूँ।
शाँत पवन मिट्टी की महक बनूँ 
 नयनन स्वप्न प्रिय प्रीत बन जलूँ ।

सूनेपन में  मुखर आभा 
उदास मन में उम्मीद बन निखरुँ।
आरोह-अवरोह सब मैं सहूँ 
जीवन-लय में लघु कण बन बहूँ ।
हताश मन में साथी संबल बनूँ 
प्रिय मन दीप्ति हृदय आँगन जलूँ ।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

सोमवार, अक्टूबर 19

अनभिज्ञता है पूर्णता


तुम्हें ये जो पूर्णता का बोध
 हर्षाए जा रहा है 
ये अनभिज्ञता है तुम्हारी 
थकान नीरसता छिछलापन है 
तुम्हारे मन-मस्तिष्क का 
उत्सुकता उत्साह पर 
अनचाहा विराम चिन्ह है 
अपूर्णता अज्ञानता मिथ्या है जो 
 झाँकतीं है समझ की दीवार के 
 उस पार नासमझ बन 
समर्पण को हाँकता अधूरापन 
 तुम्हारे  विनाश का है  प्रारब्ध।
पूर्णता के नशे में 
तुमने ये जो ज़िंदा पेड़ काटे हैं 
जूनून दौड़ेगा इनकी नसों में 
जड़े  ज़िंदगी गढ़ेगी दोबारा  
 इन पेड़ों की टहनियों को 
ज़िद पर झुकाईं हैं तुमने ये टूटेगी नहीं 
लहराएगी नील गगन में स्वछंद ।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, अक्टूबर 18

जब भी मिलती हूँ मैं



जब भी मिलती हूँ मैं 
शब्दों से परे एक-एक की ख़ामोशी 
आँखों के झिलमिलाते पानी में पढ़ती हूँ।

कोरी क़िताब के सफ़ेद पन्ने 
पन्नों में हृदय के कोमल भाव 
भावों के बिखरे मोती शब्दों से चुनती हूँ।

सूरज की रोशनी चाँद की आभा 
कृत्रिमता से सुदूर प्रकृति की छाँव  में 
निश्छल बालकों का साहस पढ़ती हूँ।

गर्व में डूबा मन इन्हें सेल्यूट करता 
पैरों में चुभते शूल एहसास सुमन-सा देते 
आत्ममुग्धता नहीं जीवन में त्याग पढ़ती हूँ ।

परिवर्तन के पड़ाव पर जूझती सांसें 
सेवा में समर्पित सैनिक बन सँवरतीं हैं  
समाज के अनुकूल स्वयं को डालना पढ़ती हूँ।

समय सरहद सफ़र में व्यतीत करती आँखें 
आराम  आशियाने  में  ढूँढ़तीं  
गैरों से नहीं अपनों से सम्मान की इच्छा पढ़ती हूँ।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शुक्रवार, अक्टूबर 16

क्षितिज पार दूर देखती साँझ


 
फिर पथ पीड़ा क्यों हाँक रहा?
ले गोद चला भाव सुकुमार
एक-एक रोटी को पेट पीटता  
करुण कथा में सिमटा संसार।

मौन करुणा कहे बरसे बरखा 
शीतलता को धरणी तरसती।
मनुज सरलता डायन बन लौटी 
चपला बुद्धि काया को छलती।

ठठेरा बन बैठा है यहाँ कौन ?
गढ़ता शोषण साम्राज्य मौन।
मिटाना था अँधेरा आँगन का   
विपुल वेदना अधिकारी कौन?

हृदय मधु भरा मानस मन में 
ज्यों पराग सुमन पर ठहरा।
ज्ञात है बदली में अंजन वास 
 निधियाँ का चितवन पर पहरा।

उन्मादी मन उलझा उत्पात में 
क्षितिज पार दूर  देखती साँझ। 
निर्निमेष पलक हैं भावशून्य 
अंतस में रह-रह उभरे झाँझ।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

मंगलवार, अक्टूबर 13

मैं और मेरा मन


मैं और मेरा मन 
सभ्यता के ऐंद्रजालिक अरण्य में 
भटके नहीं विचरण पर थे 
दृश्य कुछ जाने-पहचाने  
सिमटी-सी भोर लीलाएँ लीन 
बुझते तारे  प्रभात आगमन 
मैं मौन मन लताओं में उलझा 
अस्तित्व ढूँढ़ता सुगबुगाया 
निश्छल प्रकृति का है कौन ?
देख वाक़या धरणी पर 
शंकित आहान बिखरे शब्द 
वृक्ष टहनियों में  स्वाभिमान  
पशु-पक्षी हाथ स्नेह के थाल  
सुंदर सुमन क्रीड़ा में मग्न 
प्रकृति कर्म स्वयं पर अडिग  
सूरज-चाँद पाबंद समय के
शीतल नीर सहज सब सहता 
पर्वत चुप्पी ओढ़े मौन वह रहता 
अचरज आँखों में उपजा मन के 
निकला लताओं के घेरे से 
मानव नाम का प्राणी देखा !
सींग शीश पर उसके चार 
काया कुपित काजल के हाथ 
नींद टाँग अलगनी पर बैठा 
आँखों में आसुरी शक्ति का सार  
वैचारिक द्वंद्व दिमाग़ पर हावी 
 भोग-विलास में लिप्त इच्छाएँ अतृप्त 
काज फिरे कर्म कोसता आज 
धड़कन दौड़ने को आतुर 
नब्ज़ ठहरी सुनती न उसकी बात 
हाय ! मानव की यह कैसी ज़ात 
मन सुबक-सुबककर रोया 
आँख का पानी आँख में सोया।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'