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शनिवार, अगस्त 31

कविता मुझे नहीं मैं कविता को जीती हूँ


                                           
प्रति पल आँखें चुराती हूँ, 
 संयोग देखो ! उसका,  
सामने आ ही जाती है, 
कभी पायदान के नीचे,  
 जूतों की मिट्टी में,  
कभी उन जूतों में जो पिछले दो महीने से, 
 किसी के पैरों का इंतज़ार कर रहे हैं, 
उस वर्दी में जो बेड के किसी कोने में,  
दबी अपनी घुटन जता रही है, 
उसके लाखों सवालों में, 
 जो मेरी नाक़ामयाबी पर, 
 कभी कंठ से बाहर ही नहीं निकले, 
कभी-कभी छलक जाती है वह, 
 बच्चों में,उनके मासूम सवालों में, 
उनकी उस ख़ुशी में जो, 
वे संकोचवश  छिपा लेते हैं,  
 फिर कभी मुस्कुराने के वादे  के साथ, 
कभी झलकती है एहसास के गुँचे में, 
जो थमा गये थे वह मेरे हाथों में, 
आज फिर मिली मुझे  झाड़ू के नीचे,  
चीटियों के एक झुण्ड में, 
जो एक लय में चल रहीं थीं , 
 न सवाल न जवाब बस, 
मूक -पथिक-सी चल रही थी, 
कविता मुझे  नहीं, 
मैं कविता को जीती हूँ, 
कविता स्वयं की पीड़ा नहीं,  
मानव की पर-पीड़ा है, 
स्वयं की पीड़ा को परास्तकर, 
पर-पीड़ा को  हृदय पटल पर रखना, 
 मर्म का वह  मोहक मक़ाम है, 
जो  सभी के भाग्य में नहीं होता, 
चरमराती है अंतरचेतना  में वह, 
जब एक मज़दूर के हाथ, 
 छोड़ देते हैं उस का साथ, 
 पटक देता है वह पत्थरों से भरा तसला ,
झुँझला उठता है देख भाग्यविधाता का  ठेला, 
तब जी उठती हूँ  मैं, 
 एक और कविता उसी के केनवास पर, 
उसी के असीम दर्द के साथ |

      # अनीता सैनी 

मंगलवार, अगस्त 27

मैं फिर लिखूँगी


                                           
क्षितिज पटल पर, 
लिखती रहूँगी, 
प्रतिदिन एक कविता,
धूसर रंगों से सजाती रहूँगी,  
उस पर तुम्हारा नाम।

तुम उसी वक़्त निहारना उसे, 

मुस्कुरा उठेगी वही ढलती शाम, 
और गटक जाना, 
यादों का एक  जाम।

मैं फिर लिखूँगी, 

घड़ी की सेकंड की सुई से, 
हर एक साँस पर, 
एक और कविता का, 
 झंकृत शब्द लिये  तुम्हारे नाम।

मा  जायेगी वह चिर-चेतना में, 
ड़ेल हृदय में  स्वाभिमान, 
पुकारोगे  अनजाने में जब उसका नाम, 
 आँखें   झलक जायेंगीं , 
 देख अश्कों  का लिखा  फ़रमान,  
जहाँ शब्द न बने तुम्हारे, 
 ख़ामोशी सुनायेगी उस पहर का पैग़ाम


आँखों में गुज़ारा है तुमने, 
रात का हर पहर ,
ठुड्डी टिकाये रायफ़ल पर,  
निहारा है खुला आसमान, 
चाँद-सितारों से किया, 
 बखान अपना फ़साना गुमनाम।

कभी ज़मी पर लिखकर मेरा नाम, 

पैर से मिटाते, 
कभी मुट्ठी में छिपाते, 
मंद-मंद मुस्कुराते, 
और सीने से लगा लेते, 
आँखों की नमी, 
रुँधा कंठ सुना देता,   
तुम्हारा अनकहा पयाम।

उसी पल, 

वक़्त की मुट्ठी में थमा देना, 
सपनों से सजा सुनहरा, 
मख़मली झिलमिलाता आसमान।

    @अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, अगस्त 25

अंत:सलिला



 रेत के मरुस्थल-सा, 
 हृदय पर होता विस्तार, 
खो जाती है  जिसमें, 
स्नेह की कृश-धार, 
दरक जाती है, 
 इंसानियत, 
बंजर होते हैं, 
 चित्त के भाव, 
जज़्बात  में नमी, 
एहसास में होती, 
अपनेपन की कमी, 
तब दरारों से, 
झाँकने लगता है दर्द, 
असीम पीड़ा, 
अपनों की रुसवाई, 
और अंतहीन तन्हाई में, 
कठोर चित्त के धरातल पर, 
बिखर जाता है, 
 मर्म वफ़ाई का, 
अश्रु बन लुढ़कती है, 
पावन प्रीत,
 अंत:सलिला की गहराई  में, 
कुरेदने से मिलते हैं,  
अपार स्नेह नीर के स्रोत  
पनपती  है, 
अनदेखी अनकही, 
बँधुत्व की  पीर, 
अंत:सलिला-सा है, 
चंचल चित्त, 
फिर भी रौंदते हैं, 
प्रतिपल स्वार्थ में, 
अनगिनत पथरीले पैर, 
वक़्त की उड़ती धूल से, 
फिर भर उठते हैं, 
वे  रिसते  हुये  घाव, 
निरीह और उदार |

# अनीता सैनी 

गुरुवार, अगस्त 22

देखो ! चरित्र-हत्या मत करो



नाज़ुक तन वक़्त के थपेड़ों से न थर्राया, 
देखो ! प्रति पल और निखरता गया,
मीरा पर भी हुआ था कुंठाओं  का  कुठाराघात,
देखो ! ता-उम्र बाँटती  रही प्रीत और प्रेम अमर होता गया |

चरित्र-हत्याओं का विस्तार विचारणीय हुआ अब,
देखो ! बात स्त्री पुरुष की नहीं
 यहाँ हनन जीवन मूल्यों का होता गया,
 मानवता की महक़ से महकी फ़ज़ा 
और उड़ी इंसानियत की खुशबू, 
देखो ! ईसू के त्याग  को  हर  दौर  में  पहचाना गया |

कलयुग में कुंठा का कसैलापन,
देखो ! हृदय को करता द्रवित और वक़्त को निगलता गया, 
त्यागी गयी सीता का महसूस  हुआ  दर्द ,
जीवन के हर  फेर में नारीत्व को सजाती गयी ,
देखो ! अहिल्या का सतीत्व समय के बहाव में और निखरता गया |

लाँछन न समझो जीवन में मिली अवेहलना को, 
देखो !अवगुणों के थे वे सूखे पत्ते समय के साथ झड़ते गये,
बुद्ध ने त्यागा वैभव जली यशोधरा जीवनपर्यंत ,
देखो ! त्याग की बने दोनों मिशाल हमें धैर्य का पाठ पढ़ाते गये |

- अनीता सैनी  

मंगलवार, अगस्त 20

अभिधा बन रहूँ सृष्टि के साथ



नित्य निश्छल आगमन हो प्रीत का 
हों न छल-कपट कमसिन काया  के ,
कल्लोल कपट से क्रोधे न निर्मल उर,  
न बढ़े कसैलेपन से जग में तक़रार,  
 अमूल्य मानव जीवन  मिला मुझे, 
क्यों करूँ कलुषित कुंठा का शृंगार |

सहज सरल शब्द चित्त में मेरे, 
बरबस  मुस्काऊँ  इनके  साथ, 
 टटकी टहनी बन बरगद की, 
लहराऊँ फ़ज़ा में थामूँ  हवा का  हाथ  |

 बनूँ  प्रीत  पवन  के  पैरों  की, 
इठलाऊँ इतराऊँ गगन के साथ ,
समा अकिंचन धरा के कण-कण में,
बनूँ सृष्टि की प्रीत का बहता-सा भावार्थ  |

सृष्टि-सा मुस्कुराये मन मेरा, 
मिली चाँद-सितारों की सौग़ात,
 पल्लवित हुआ प्रकृति से प्रेम गहरा, 
सौम्य स्निग्ध स्नेह की हुई रिमझिम बरसात |

मर्म मानव धर्म का धारणकर, 
आल्हादित हो धरा  का  थामूँ  हाथ,
शालीन शब्दों का करूँ मुखर बख़ान,
 अभिधा  बन रहूँ सदा-सदा सृष्टि  के साथ |

- अनीता सैनी 

शनिवार, अगस्त 17

हाँ अच्छी लड़कियाँ हैं हम



हाँ अच्छी लड़कियाँ हैं हम,
पीढ़ियों से अर्जित संस्कारों की शबनम हैं हम |

  सजा इन्हीं का मुकुट,  
शीश  पर ,
हया का ओढ़ा  है  घूँघट 
मन  पर ,
छलकाती हैं करुणा,
नित नभ नूतन पर,
हाँ अच्छी लड़कियाँ हैं हम |

 रस्म-ओ-रिवाज के नाज़ुक बँधन से,
 बँधे  हैं  हमारे  हर बँधन,
मातृत्व को  धारणकर ,
ममता को निखारा है हमने , 
धरा-सा कलेजा ,
सृष्टि-सा रुप निखारा है हमने,
हाँ अच्छी लड़कियाँ हैं हम |

हम पर टिका है, 
नारी के नारीत्व का विश्वास,
अच्छे होने का उठाया है बीड़ा,
हमने  अपने सर, 
मान देती हैं  मर्यादा को,
परम्परावादी विशुद्ध प्रेम, 
  परिवार पहला  दायित्व  है हमारा, 
हाँ अच्छी लड़कियाँ हैं हम |

 कँधों पर हमारे  टिका है, 
समाज की अच्छाई का स्तम्भ,
हृदय जलाकर दिखाती हैं,
रौशनी समाज के भविष्य को, 
त्याग के तल पर जलाती हैं,
 दीप स्नेह का ,
हाँ अच्छी लड़कियाँ हैं  हम |

अच्छा लगता है ,
हमें रिश्तों में घुल-मिल जाना ,
नहीं अच्छा लगता,   
मन से बेलगाम हो जाना,
देख  रही  हैं   हम,
 बेलगाम  मन  का अंजाम,
हाँ अच्छी लड़कियाँ हैं  हम |

#अनीता सैनी 

गुरुवार, अगस्त 15

पर्वत-पुत्री हूँ मैं


                                               
ममतामयी प्रकृति ने                                                   
नवाज़ा स्नेह से मुझे 
पिता पर्वत ने दिया 
पत्थर-सा कठोर हृदय 
विचलित नहीं होती मैं  
कभी मन की तृष्णा से 
सुख-सुविधा से परे 
वादियों में बुनती हूँ 
सम्पूर्ण जीवन का सार।  

कलुषित चित्त की चीत्कार 
कुपित करती है मानव मन को 
सुख-सुविधा का दिखा संगसार 
मेरे आधिपत्य की करता दरकार 
औचित्य अपना गवा नादान 
पर्वत-पुत्री के वैभव की करता पुकार। 

अब उर में उमड़ते  उस के 
पुरसुकून के प्यारे बादल 
जहाँ उड़ती हूँ मैं भी 
जब होती है चाह प्रबल 
चाँद-तारों की गोद में बैठकर 
सुनती हूँ प्यारी सरगम 
जहाँ आशंका का होता न कोई  संगसार ।  



# अनीता सैनी 

बुधवार, अगस्त 14

स्वतंत्रता दिवस, पावन पर्व आज़ादी का



कह दो  क़ुदरत क़ायनात से कुछ ऐसा, 
कश्मीर-सा सुन्दर उपहार सजा दे,
करूँ नमन प्रतिपल वीर शहीदों को,
हृदय को उनका द्वार दिखा दे |

लिया भार,भारत माँ  का  कंधों  पर , 
उन वीर शहीदों की, चौखट के दीदार करा दे,
पहन केसरिया किया जीवन अपना क़ुर्बान,
जनमानस को वीरों के रक्त से लिखा संदेश दिखा दे |

पावन पर्व आज़ादी का, मिला जिनके बलिदान से,  
अमर गाथा लिखूँ लहू से अपने,हाथों में ऐसी क़लम थमा दे, 
भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव,चंद्र शेखर जैसे हों भाई, 
हिंद देश में कह सिंधु से स्नेह का ऐसा सागर भरवा दे |

- अनीता सैनी 

सोमवार, अगस्त 12

मुझे ख़ुशी ही रहने दो



  कुछ पल की ख़ुशी मुकम्मलकर,
 क़ायनात ने  बरसाया,  
ख़ुशी का कोहरा ,
वही कोहरा सुकून का सैलाब ,  
लेकर उतरता है  पलकों पर  और , 
 चित्त को कर देता  है तृप्त |

कुछ पल बैठ पहलू  में मेरे,
 मुठ्ठी में थमाया मोहब्बत का मोती,
 और वहाँ से जाने को आतुर नज़र आयी,  
थामना चाहती हूँ हाथ उसका,  
फ़रियाद करती हूँ न जाने की, 
वक़्त पर न आने का वास्ता देते हुए,
जतन करती हूँ आग़ोश में भरने का ,
ग़मों की पोटली पटक सामने, 
ज़ख़्म उसे दिखाती हूँ |

मुस्कुराते हुए कहती है वह !
मैं ख़ुशी हूँ ,
मुझे ख़ुशी ही रहने दो, 
पलकों पर रहती हूँ ,
पलकों पर रहने  दो,
बहती हूँ  हृदय में, 
आँख का पानी बन बहने दो,
क्यों करती हो ? 
संताप  बिछड़ने का,
मुसाफ़िर हूँ, 
मुसाफ़िर ही रहने दो |

वो लम्हात  जब ठहरी थी पलकों पर,  
उन्हीं  एहसासात  को सीने से लगा ,
मुस्कुराहट  अधरों पर  लिये,
तुम यह दौर दामन में सजा लेना |

पुकारेंगे तेरे कर्म मुझे  ,
कृतित्व की महक से महकेगी फ़ज़ा,
दौड़ी आऊँगी मैं ज़िंदगी में  तेरी ,
हृदय में समा फिर उतर जाऊँगी, 
पलकों पर  तेरी |

मनुहार से भी न मानी ,
जोश उफ़न आया उसका, जाने की ज़िद ठानी, 
आँखों के अनमोल मोती न रोक पाये राह उसकी,
तरस उसको  आया वक़्त को मरहम बताया, 
 कहा आँसुओं  में न बहाना  जीवन, 
बह जायेगी ज़िंदगी  तेरी, 
ठंडा पड़ जायेगा साँसों का सैलाब ,
क्षीण हो जायेगी मन की शक्ति,
कर्म का पहिया न करेगा पुकार ,
अजनबी की तरह गुज़र  जाऊँगी, 
उस वक़्त ,वक़्त के उस पार  |

हिदायत उस की, मेरी हसरत हार गयी ,
ख़ुशी के कसैलेपन का कारगर निवारण, 
हाथ में न थमाया , साँसों में घोल गयी |

- अनीता सैनी 

शनिवार, अगस्त 10

क़ुबूल नहीं मोहब्बत में शर्त




मनमाँगी मुराद पर मनाया  मन को मैंने,
जीवन के हर पड़ाव पर,
पतझड़ के पहलू में बैठ, 
बहार के  इंतज़ार  में  बहलाया मन को मैंने |

परखते हैं लोग पग-पग पर, 
यही दस्तूर है ज़माने का आज, 
इसी दस्तूर को  पावन कह,
 प्रेम का मरहम, लगाया मन को मैंने |

क़ुबूल  नहीं मोहब्बत में शर्त, 
इसी शर्त पर समझाया मन को मैंने ,
मोहब्बत को महक  कह,
मायूसी को महका, गुमराह किया मन को मैंने |

ज़ख़्म जिगर  पर जड़े  बेइंतिहा,
हर ज़ख़्म   को सहलाया मैंने,
महफ़िल सजा सरगम  की, 
प्रीत के नग़्मे  कह,
 ख़ामोशी से सुलाया  मन को मैंने |

वक़्त का बदलता चेहरा ,
गुज़रते  लम्हात  को  दिखा,
 जज़्बात  के जमावड़े को ज़िंदगी से,
जादूगर कह,
 फिर   मिलाया   मन को  मैंने |

- अनीता सैनी 

शुक्रवार, अगस्त 9

प्रभात की पहली किरण



 प्रभात  की  पहली  किरण  ने,
कुछ  राज़  वफ़ा  का  सीने  में  यूँ  छिपा  लिया, 
 पहना  हिम्मत  की  पायल  पैरों  में, 
हृदय  में  दीप  विश्वास  का  जला दिया,
और चुपके से कहा !
 घनघोर बादल आकाँक्षा के,
उमड़ेंगे  चित्त पर ,
विचलित करेगी वक़्त की आँधी, 
तुम  इंतज़ार  मेरा   करना।

हम  फिर  मिलेगें  उस राह पर, 
हमदम  बन  हमसफ़र  की तरह,
होगा  सपनों  का आशियाना 
गूँथेंगे  एक  नया  सवेरा।

कुछ खेल क़ुदरत का यूँ रहा ,
तसव्वुर में एक महल यूँ ढ़हा, 
इन बैरी बादलों  ने  छिपाया ,
मासूम मन मोहक मुखड़ा उसका।

नज़र आती थी वह खिड़की में, 
 फिर वहाँ ख़ामोशी का हुआ बसेरा ,
छूकर   फिर  लौट  जाना ,
मेरी मासूम मुस्कुराहट पर,
मुस्कुराते  हुए  लौट आना ।

कुछ पल ठहर उलझा उलझन भरी बातों में, 
फिर लौट आने की उम्मीद थमा हाथों में,
धीरे-धीरे बादलों के उस छोर पर बिखर,
फिर सिसकते हुए  सिमट जाना, 
मेरे चकोर-से चित्त को यूँ समझाते हुए जाना।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, अगस्त 8

वक़्त का रिसता नासूर



गुज़र  चुका   कल  
  आने वाले कल में  
 अपना प्रतिबिम्ब तलाशते हुए 
 अपने  आपको
 वक़्त के साथ 
इतिहास के रुप में फिर दोहराता है |
इन्हीं शब्दों का  पुनर्दोहराव 
अंतरमन में क्षोभ का
 उत्पात उत्पन्न करता है |
पृथ्वी के परिक्रमण की तरह  कहूँ 
या परिभ्रमण  की तरह उलझी 
नारी चित्त में 
असीम लालसा की ललक 
धड़कनों में धड़कती रहती है |
क्या नारी स्वयंअपनी पीड़ा 
का प्रचंड रुप गढ़ रही है ?
वर्तमान का बदलता परिवेश 
क्या  फिर  इतिहास 
दोहराएगा  ?
वक़्त का रिसता नासूर 
क्या फिर कोढ़ में तब्दील  हो 
नारी को  तिरस्कृत करेगा  ?
मानवीय मूल्यों का
प्रेम के रुप में होता पतन 
क्या नारी वैदिक युग को 
अनचाहा आमंत्रण प्रदान कर 
फिर उसी कगार पर 
अपने भविष्य को
 प्रताड़ित करती मिलेगी |
प्रलय की हो रही  
प्रेमपूर्वक आहट 
क्यों नहीं सुन पा  रही 
वर्तमान  की नारी ?  
क्यों अपने आज  को बुनने 
में  हुई  है  मगरूर  ? 
 प्रति पल सुख से जीने की चाह में   
प्रेम का लबादा ओढ़कर 
दमित इच्छाओं को हवा देकर 
स्वेच्छाचारिता की नवीन  राहें तलाशती नारी 
जीवन के अमृत-घट में 
ज़हर की बूँदें क्यों डाल  रही है ?
संस्कार रूपी गहना 
क्यों लगा ज़हन को भारी 
भविष्य के हाथों में थमा रही 
वक़्त की लाचारी |

अनीता सैनी



सोमवार, अगस्त 5

तोड़ इस का बतलाओ साधो !



तन  तृष्णा  से तप  रहा, 
वहम  की  फैली  बीमारी, 
सिर  फोड़ता  फिरे  इंसान ,
अंतरमन  में  टीस  उठे  गहरी, 
तोड़ इस का बतलाओ  साधो !
गर्दिश में जनता  सारी | 

गाँव  ग़ुमराह  हुए  हमारे ,  
रौनक  लगे  शहर  की प्यारी, 
खेतों  के  अश्रु  झर  रहे , 
सैर मार्किट में उगति  फ़सलें सारी,
तोड़  इस  का  बतलाओ  साधो !
गर्दिश  में  जनता  सारी |

किसान की कमर पर मार हथौड़ा ,
प्लास्टिक की बनी  सब्जी-तरकारी,
शौहरत की महक में मरी मानवता ,
दिखावे  में  डूबी  जनता  बेचारी, 
तोड़ इसका बतलाओ  साधो !
गर्दिश में जनता  सारी |

 झूम  रही  महँगाई   मौज  में , 
प्रेम के  कंधों पर मानव का जीवन भारी, 
ग्रामवासिनी  माता अब हारी, 
घर-घर बर्तन माँझ समेटे लाचारी, 
तोड़ इस का बतलाओं साधो !
गर्दिश में जनता  सारी |

-अनीता सैनी

शनिवार, अगस्त 3

विचार बुनते है ज़िंदगी



मन में  उड़ती विचारों  की  धूल,
करती है ख़्वाहिशों  को स्थूल , 
 तत्परता के  साथ समझौता करती है ज़िंदगी |
  बटेर-सी पुकारती  आत्मा की आवाज़,
खेजड़ी की छाँव में बिठाकर ढाढ़स बँधाने का,
 ढकोसला ख़ूबसूरती से सजाती है ज़िंदगी |

वक़्त की झिल्ली पर फिसलती  ख़्वाहिशें देख,
 झिलमिलाहट की चादर ओढ़ा देती है ज़िंदगी  |
 सपनों  के थान में सुकून से लिपटकर ,  
हृदय में  फिर फुसफुसाती  है ज़िंदगी  |

दृश्य-अदृश्य का खेल-खेलती,
जुगनू-सी  चमकती है ज़िंदगी |
हवा में  फैला सुकूँ का आँचल,
 मन के एक कोने में  महकने लगती है ज़िंदगी  |

बटोरने लगती है  बेसब्री से स्वप्न ,
मन की सुराही में,
 हाथों से छूट फिर बखर जाती है ज़िंदगी  |
 कुछ उलझें  कुछ बिन गूँथें , 
धड़कनों  से  रिसते  ख़्वाब ,
वक़्त की दहलीज़ पर बैठ ,
  अनचाहे आकार में ढलती है ज़िंदगी  |

रुठी  नज़्म ज़िंदगी की,
बारिश की बौछारों  से फिर महकाने  लगती है ज़िंदगी |
कागज़ की कश्ती पर सवार कुछ  ख़्वाबों को  ,
अपनत्व के भाव से फिर पुकारने लगती है ज़िंदगी |

 ऊँघते चित्त पर  वक़्त का मरहम, 
 मेहंदी के लेप-सा सुकूँ पहुँचाती  है ज़िंदगी  |
विचारों से निकली  उजली  धूप,
 रंग प्रीत का सपनों में भर फिर मुस्कुराने लगती  है ज़िंदगी |
पदचिह्नों को गहरा करने का पाठ,
ज़िंदगी को बख़ूबी पढ़ाती  है ज़िंदगी  |

-अनीता सैनी 

शुक्रवार, अगस्त 2

मेहंदी रचे हाथ



सजी घटायें सावन की, मेहंदी रचे  हाथ |
 मुस्काय प्रिय राधिका ,कान्हा जी  के साथ ||
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 कोयल की मधुर रागिनी, है सावन की रात |
झर रहे नयन राधिका, क्या है  हिय में  बात ||
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सावन की आई घटा, मेहंदी  रचते  हाथ |
 झूला  झूले  राधिका,  उन्हे झुलायें नाथ ||
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घर-आँगन में आज तो, उतरी  है  बरसात |
पात-पात पुलकित हुआ, बरसी है  सौगात ||
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पुलकित होती धरा है, खिली प्रीत की धूप |
पत्तों के श्रृंगार ने, लिया हिना का रुप ||

- अनीता सैनी