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सोमवार, अप्रैल 27

इस दौर के दोहरे प्रहार


मैंने अपने ही आचार विचारों को,  
सत्य संदर्भ के साथ जोड़ दिया,  
इस दौर के दोहरे-तिहरे प्रहार ने,   
अशेष मानवता को निचोड़ लिया। 

गौण गरिमा बरकरार उनकी रहे, 
उक्ति से समय पर संवार लिया,  
सवेदंनाओं की तपन से तपता मन,  
मुँह खोलने पर धिक्कार दिया। 

हुनरमंदों के बिखरे हुए हैं हुनर,   
देख खेतिहर एक पल रो दिया,  
सफ़ेदपोशी तय करेगी क़ीमत देख, 
अश्रुओं ने पीड़ा को ही धो दिया। 

स्वप्नसुंदरी भविष्य की बल्लरी को, 
आत्मीयता से सींचो और बढ़ने दो, 
खोल दो हृदय से चतुराई की गाँठ, 
गाड़ दो बल्ली रस्सी का सहारा दो। 

©अनीता सैनी 

रविवार, अप्रैल 26

उम्मीद का थामे हाथ किताबें



 राह जीवन की सुलभ बनातीं,  
सद्बुद्धि का आधार किताबें,  
गहन निराशा में गमन करातीं,   
उम्मीद का थामे हाथ किताबें। 

क्रूर दानव को मानव बनातीं, 
चेतन मन का शृंगार किताबें, 
मधुर शब्दों का मोहक संगम, 
सुधी पर शीतल बौछार किताबें।   

करतीं प्रज्ज्वलित ज्ञान-दीप,  
भ्रम का तोड़ें जंजाल किताबें, 
तर्क-वितर्क की मनसा समझें, 
स्वप्न करतीं साकार किताबें। 

जीवन मूल्यों से अंतस भरती,
 नियति का बोध करातीं किताबें,
नवाँकुर को वृक्ष रुप में गढ़ती,
प्रारब्ध को सुगम बनातीं किताबें। 

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

शनिवार, अप्रैल 25

झील किनारे



 निर्मल शीतल जल झील का,  
ठिठुरकर सुनाता करुण कथा, 
  झरोखों से झाँकती परछाइयाँ, 
पलकों में भरती दीप-सी व्यथा। 

अकाल के दौर में बनाया महल,  
नींव में दबाए पेट की भूख  
 शौर्यगाथा अश्वमेध-यज्ञ की सुन,   
आतुर राजा संग परिवेश हर्षाया। 

वैराग्य में सिमटी सजी मनोदशा,  
एकांत में सुनाती सरोवर संवाद 
तलहटी से उठती करुण पुकार 
अंतस से करती वाद-विवाद । 

झील किनारे प्रतीक्षारत परछाई, 
  किरदार गढ़ने को व्याकुल हर पल,  
सौंदर्यबोध दर्शाती ख़ामोश दीवारें, 
राजसी भव्यता में डूबा जलमहल । 

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, अप्रैल 23

सुघड़ आमुख दानी कौन?



 पीड़ा और प्रीत को जीते,
पन्नों में बिखरे किरदार, 
  अनुभूति में सिमटे शब्द,
  तूलिका से निखरे हर बार। 

खंडित सत्य का स्वरुप,
  पहने शब्दों का लिबास, 
 किताबनुमा अँगोछे में,
अनगढ़ प्रेम का विश्वास। 

साँचे में ढले समाज को,
अंकित करता कंपित मौन,
 अंतरदृष्टि  में घुटता धुआँ,
सुघड़ आमुख दानी कौन? 

©अनीता सैनी  'दीप्ति'

मंगलवार, अप्रैल 21

प्रेम का दौंगरा था वह



हवा के एक हल्के,
 झोंके संग, 
गगन में उमड़े घने, 
मेघ थे वे, 
छलकी थी निश्छल,
 विवश बूँदें,   
कब कहा मैंने तुम्हारी,
याद थी वह। 

तपते मरुस्थल पर,
 बिखरी थी,  
तुम्हारी स्मृतियों की,
 गठरी थी वह, 
कुछ मुस्कुरायी कुछ, 
 पथराई-सी थीं वे,    
तपन के हाथ में पड़े, 
समय के छाले थे वे। 

माँज रहा था समय,
 दुःख भरे नयनों को,
स्वयं को न माँज पाई, 
एक पल की पीड़ा थी वह,
कल्याण का अंकुर,
उगा था उरभूमि पर,
बिखेर तमन्नाओं का पुँज,
हृदय पर लगी ठेस,
प्रीत ने फैलाया प्रेम का,
दौंगरा था वह।

©अनीता सैनी 

सोमवार, अप्रैल 20

विचलित है जर्जर बूढ़ा नीम



 ढो रहा है उम्र को ढलते पडाव पर,
विश्व-पटल पर बदलते हालात पर,
ज़िंदगी के दिये अप्रत्याशित अनुभव पर, 
 आकलन की भयावह तस्वीर पर, 
विचलित है जर्जर बूढ़ा नीम, 
   उम्र के ढलते पडाव पर। 

परस्पर अकारण हो रही मुठभेड़ से,
महामारी के वक़्त हो रही राजनीति से, 
पुलिस पर हो रहे पथराव से, 
डॉक्टरों-नर्सों की शहादत से, 
 छोड़ रहा है जड़े जर्जर बूढ़ा नीम, 
उम्र के ढलते पडाव पर।  

अमेरिका इटली की दयनीय हालत पर,
अपने ही देशवासियों की नासमझी पर,
आरोप-प्रत्यारोप के इस क्रूर संग्राम पर,
ऐसे वक़्त पैसे बटोरती परछाइयों पर,  
अस्तित्त्व दरकिनार किए जाने पर,
 बहा रहा है अश्रु जर्जर बूढ़ा नीम, 
 उम्र के ढलते पडाव पर।   

नीम की गुणवत्ता न समझ पाने पर, 
अपने आप पर होते सीधे प्रहार पर, 
कोरोना-काल में अपनों की बेरुख़ी पर, 
रुक-रुककर चलती हवा में सांसों पर, 
ता-उम्र लुटाई ज़िंदगी से कुछ प्रेम के , 
  माँग रहा है मीठे बोल जर्जर बूढ़ा नीम, 
उम्र के ढलते पडाव पर।   

©अनीता सैनी 

शनिवार, अप्रैल 18

मरुस्थल में सीपी









अश्रुओं से मुरझाया आक


जीवन माँझे-सा उलझा है 
 राहत पाने को अकुलाये ।
 बेचैनी में सिमटी सांसें 
कौतुहल कोहराम मचाये।

दीन-हीन सूखे पतझड़ से 
कैसे पीड़ा को संभाले ।
हंस रूप धारण कर कौए 
पर पीड़ा को नहीं निवाले ।
खेल नियति भी हार चुकी है 
विडंबनाएं चिह्न दिखायें ।।

क्षुधा कुलबुलाती अंतड़ियाँ 
अश्रुओं से मुरझाया आक ।
नन्ही पौध भूख से व्याकुल
निसर्ग हुआ नि:शब्द अवाक। 
दीप करुणा का जले जहाँ में  
गुलमोहर-सा जग खिल जाये ।।

हर मौसम की मार झेलता
मृगतृष्णा से रहे भरमाता  ।
तेज़ घाम में भी खिल जाता 
दुख-तपन से नहीं  घबराता ।
शीतल नीर बहा अब मानव 
लख गुण मानवता हर्षाये।।

©अनीता सैनी  'दीप्ति'

मंगलवार, अप्रैल 14

रुदाली



उस वक़्त बीमार थे तुम, 
 बहुत ही बीमार,  
तुम्हारी धमनियों से, 
 रिस रहा था डाह।  

अज्ञानी  थे,  
या खड़ा था साथ,  
तुम्हारे अहंकार,   
जब कर रहे थे तुम,  
द्वेष की जुगाली,
सीख-समझाइश पर,
अहर्निश कर रहे थे, 
रह-रह कर रुदाली। 

 शारीरिक रुप से,  
नहीं थे तुम बीमार,   
उस वक़्त तुम अपनी ही,  
मानसिकता की थे,
 गिरफ़्त में,  
चारों तरफ़ मच रहा था,  
मौत का कोहराम,  
और तुम थूक रहे थे, 
अपनी अस्मत पर,  
गली-मोहल्ले और घरों पर,  
या स्वयं के विवेक पर। 

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

बीत गया मधुमास सखी



मंजरी बिखरी आँगन में 
बीत गया मधुमास सखी।
पीत किसलय हुए पल्लवित 
हिय उमड़ा विश्वास सखी ।।

सोन जुही सरसों के फूल 
गुनगुनाते मोहक गान  ।
अमराई  में गूँजती है  
कोकिला की मीठी तान ।
चहुँ दिशा में खिलखिलाता 
व्याप्त सरस उल्लास सखी ।।

विरह अगन-सा कुसुमित लाल 
कानन में शोभित पलाश ।
देख विरहण मन भरमाती 
पिय मिलन की मधुरिम आस
लज्जा से सेमल लजाया  
पहना लाल लिबास सखी ।।

सुरभि से बग़िया लहरायी 
मधुप गाते बनकर साज ।
मुग्ध पवन हर्षित है देख 
इंद्रलोक धरा पर आज ।
उर आहता चहका पंछी 
मन में भरे उजास सखी ।।

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

शनिवार, अप्रैल 11

मध्य अप्रैल 2020 का दर्द



मध्य अप्रैल 2020 का दर्द,
मृगतृष्णा-सा उभर आया।
पीले पत्तों-से झड़ते मानव,
पतझड़ की पीड़ा न समझ पाए।

गंधहीन तिरोहित द्रव्य,
दिमाग़ की सतह पर फिसल आया।
झाड़ू से झड़ते दिखे इंसान,
योग से जगाते इंसानीयत,
साँसों के मोहताज नज़र आए।

समय की फुफकार से घायल,
विचलित महाशक्ति नज़र आई।
दफ़नाने की किल्लत से हैरान,
समंदर के बहाव में शव नज़र आए।

©अनीता सैनी 

गुरुवार, अप्रैल 9

सिया पुकारे हे रघुनंदन


दृष्टि पटल से पलक उठी जब
गिरती-उठती करती वंदन ।
याद हृदय  में उन लम्हों की 
शीतल सुरभित बनती चंदन ।।

सजे सपने तुषार-कणों से 
गूँथ जीवन के मुक्ताहार ।
कुसुम खिला है मन-उपवन में  
मधुकर गुंजन मधुर मल्हार।
यादें हुई तिरोहित सहचर 
अंतर कंपित सोहे स्पंदन ।।

जीवन में प्रारब्ध है कठिन 
अनभिज्ञ सुध हिया में जागी ।
मूरत पी पलकन ने बाँधी
कैसी गहन लगन है लागी ।
जले पतंगे-सा ये जीवन ।
जन्म-जन्म का साथी बंधन ।।

नैनों से मोती झर जाते
भेद हिया के आप ही कहते 
जलती निशि की शीतल काया।
झुलसे पैर शलभ के कहते 
मन विकल वृक्ष-लतिकाओं का  
सिया पुकारे हे रघुनंदन ।।

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

मंगलवार, अप्रैल 7

हरसा देना तुम



शुष्क रसा पल्लव अब सारे,
स्नेह धार बरसा देना तुम,
प्रीत पौध पर पुष्प खिलेंगे, 
धरा चीर सरसा देना तुम। 

जीवन रहस्य सागर गहरा, 
संदेश पवन को लिख छोड़ा
पर्वत पीड़ा मैं लिख दूँगी, 
संताप हरण क्यों मुख मोड़ा,
सोये मानुष उठ जाएँगे,
मनुज धर्म दरसा देना तुम। 

 प्रसून  धरा है वादियों की, 
द्वेषित मानस पर धर देना, 
प्रहरी पीड़ा क्षण भर की है,
 पत्र प्रेम रस से भर  देना, 
मंजुल,मधुर चहक पाखी की,
मीठी धुन उरसा देना तुम। 

भाव समय सुंदर पटलक पर,
करुणा की सरगम बिखरेगी 
रीतियों-नीतियों में  बँधकर,
ममता मानव की निखरेगी, 
पंछी भर भर जल लाऐगे, 
पात प्रीत हरसा देना तुम। 


@ अनीता सैनी 'दीप्ति '

शनिवार, अप्रैल 4

देश नहीं पहले-सा मेरा



पतित हुआ लोगों का चेहरा, 
देश नहीं पहले-सा मेरा।
--
 सुखद नहीं पेड़ों की छाया,  
सबके मन में माया-माया,
लालच ने सबको है घेरा, 
देश नहीं पहले-सा मेरा।

मन में बहुत निराशा भरते
ओछे यहाँ विचार विचरते 
उजड़ रहा खुशियों का डेरा।
देश नहीं पहले-सा मेरा।

पुतली सिकुड़ी मानवता की,
जीत हो रही दानवता की,
अंधकार का हुआ बसेरा, 
देश नहीं पहले-सा मेरा।

घृणा बसी है घर-आँगन में, 
प्रेम बहिष्कृत हुआ चमन में,
गली में घूमे द्वेष लुटेरा, 
देश नहीं पहले-सा मेरा।

तरु जल को लाचार हो गये,
पैने अत्याचार हो गये,
छाया है अँधियार घनेरा, 
देश नहीं पहले-सा मेरा।

चीत्कार करते हैं दादुर, 
आत्मदाह को मन है आतुर,
दूर-दूर तक नहीं सवेरा, 
देश नहीं पहले-सा मेरा।

चातक कितना है बेचारा,
सूखी है सरिता की धारा,
जीवन आज नहीं है चेरा, 
देश नहीं पहले-सा मेरा।

© अनीता सैनी 

शुक्रवार, अप्रैल 3

साहित्यिक उपनाम



"विज्ञात नवगीत माला" के संस्थापक 
  आदरणीय श्री संजय कौशिक 'विज्ञात' जी द्वारा रामनवमी के शुभ अवसर पर मुझे साहित्यिक उपनाम 'दीप्ति' 
प्रदान करते हुए मेरे सृजन पर एक दोहे के माध्यम से कहा है-

अनिता सैनी 'दीप्ति'की, बने लेखनी दीप।  

चिंतन सागर सा गहरा,प्राप्त करे हर सीप

साहित्यिक उपनाम जब किसी लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार द्वारा दिया जाता है 

तब नाम पाने वाले को असीम ऊर्जा और मनोबल मिलता है
 साथ ही सृजन के प्रति गंभीर रुझान भी बढ़ता है। 

बहुत ख़ुशी हुई 'दीप्ति' उपनाम पाकर। 
इस सम्मान  के लिए मैं आदरणीय संजय कौशिक "विज्ञात "जी को
 हृदय तल से आभार व्यक्त करती हूँ।
अपना स्नेह और आशीर्वाद बनाये रखें। 
आदरणीय संजय कौशिक "विज्ञात "जी सर का सादर आभार। 

अनीता सैनी 'दीप्ति'

कहे वैदेही क्यों जलाया?


जलती देह नारी की विधाता, 
 क्रूर  निर्मम प्राणी  रचाया ।
 क्रोध द्वेष दंभ हृदय में इसके,
 क्यों अगन तिक्त भार बढ़ाया ।

सृजन नारी का सृजित किया है,
 ममत्त्व वसुधा पर लावन को।
दुष्ट अधर्मी मानव जो पापी,
आकुलता सिद्धी पावन को।
भद्र भाव का करता वो नाटक
कोमलांगी को है जलाया ।‌।

जीवन के अधूरे अर्थ जीती,
सार पूर्णता का समझाती ‌।
क्षणभंगुर जीवन भी है बोती, 
हर राह पर जूझती  रहती ।
निस्वार्थ अनल में जलती रहती
तपती काया को सहलाया ।।

कोमल सपने  बुनती जीवन में,
समझ सका ना इसको कोई‌।
नारायणी  गंगजल-सी शीतल,
 देख  चाँदनी भी हर्षाई।
सम्मान स्नेह सब अर्पन करती,
कहे  वैदेही  क्यों जलाया ।।

© अनीता सैनी

बुधवार, अप्रैल 1

वे आँखें


                                              

दौड़तीं हैं वे परछाइयाँ,  
भूख से व्याकुल,  
 गाँव से शहर की ओर, 
और उसी भूख को,  
छिपाती हैं वे ज़िंदगीभर,  
अपनों के लिये ।

 बुनतीं हैं वे अहर्निश स्वप्न, 
अधखुली आँखों से,  
संग सँजोतीं हैं एहसास,  
कि ज़िंदा हैं वे परछाइयाँ,   
फिर अस्तित्त्व में क्यों नहीं?

समय के बहाव में वही आँखें, 
प्रश्नकर रहीं थीं स्वयं से, 
बिखरकर उठ खड़े होने के इरादे से,  
कि वे अपने ही घर में दौड़ क्यों रहीं हैं? 

वे आँखें प्रश्न कर रही हैं,  
अपने ही निर्णय से,  
पैरों में पड़े ज़िंदगी के छालों से, 
मन में उठती बेचैनी से, 
उस बेचैनी में सिमटी पीड़ा से।

वे आँखें, 
अश्रु नहीं बहा रही थीं, 
बस ख़ामोश थीं, 
कुछ विचलित-सी थीं और,  
देख रहीं थीं,  
एक ओर, 
ख़ाली करवाते मकान, 
दूसरी ओर,  
देख रहीं थीं कुछ देर बाद, 
 बनते हुए उन्हीं, 
आदमियों को इंसान !

© अनीता सैनी