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मंगलवार, दिसंबर 28

मरवण जोवे बाट




बीत्या दिनड़ा ढळा डागळा
भूली बिसरी याद रही। 
दिन बिलखाया भूले मरवण 
नवो साल सुध साद रही।।

बोल बोल्य चंचल आख्याँ 
होंठ भीत री ओट खड़ा।
काजळ गाला ऊपर पसरो
मण का मोती साथ जड़ा।
काथी चुँदरी भारी दामण 
माथ बोरलो लाद रही।।

पल्लू ओटा भाव छिपाया
हिय हूक उठावे साँध्या।
टूट्या तारा चुगे जीवड़ो
गीण-गीण सुपणा बाँध्या।
झालर जीया थळियाँ टाँग्या
ओल्यू री अळबाद रही।।

लाज-शर्म रो घूँघट काड्या 
फिर-फिर निरख अपणों रूप।
लेय बलाएँ घूमर घाले 
जाड़ घणा री उजळी धूप
मोर जड़ो है नथली लड़ियाँ 
 प्रीत हरी बुनियाद रही।।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शब्द =अर्थ 

बिलखाया= विलगाव
डागळा =छत 
भीत =दीवार
बोरलो= ललाट पर पहने का आभूषण
हूक =पीड़ा, शूल, कसक
झालर =लटकनेवाला हाशिया
ओल्यू =याद
थळियाँ=चौखट
नथली =नाक में पहना जाने वाला एक छोटा आभूषण

शनिवार, दिसंबर 25

दिल की धरती पर



दिल की धरती पर 

छिटके हैं

एहसास के अनगिनत बीज।

धैर्य ने बाँधी है दीवार 

कर्म की क्यारियों का 

सांसें बनती हैं आवरण।

धड़कनें सींचती हैं 

बारी-बारी से अंकुरित पौध।

स्मृतियों के सहारे

पल्लवित आस की लताएँ

झूलती हैं झूला।

गुच्छों में झाँकता प्रेम

डालियों पर झूमता समर्पण

न जाने क्यों साधे है मौन।

बाग़ में स्वच्छंद डोलती सौरभ

अनायास ही पलकें भिगो

उतर जाती है

दिल की धरती पर

एक नए एहसास के साथ।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


मंगलवार, दिसंबर 14

विभावरी



चाँद-सितारा जड़ी ओढ़णी

पुरवाई दामण भागे।

बादळ माही हँसे चाँदणी

घूँघट में गोरी लागे।।


 मेंदी राच्यो रंग सोवणो

गजरे रा शृंगार सजे

ओस बूँदया आँगण बरसे 

हिवड़े मोत्या हार सजे

लोग लुगाया नजर उतारे

काँगण डोरा रे धागे।।


अंबर माही बिजळी गरजे 

 मेह खुड़क बरसावे है

छाँट पड़े हैं मोटी-मोटी 

काळजड़ो सिलगावे है

दशों दिशा लागे धुँधराई

उळझ मन री छोर सागे।।


चंद्र फूल री क्यारी महकी 

रजनी उजलो रंग भरे

चाँद कटोरो मोदो पड़गो

प्रीत रंग रा तार झरे।

पता ऊपर मांडे मांडणा 

रात सखी म्हारी जागे।।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शब्द -अर्थ

काळजड़ो  =कलेजा

सिलगावे =जलता है, सुलगता है

हिवड़े= हृदय

 मेंदी=मेहंदी

राच्यो =रचना

सोवणो =मोहक सुहावना

गजरा =हाथ में पहने का आभूषण

कागँन डोरा =एक तरह का नजर उतारने का धागा।

खुड़क= जोरदार आवाज 

मोदो=उलटा

 आधी रचना में रात का वर्णन है मानवीकरण और उपमाओं से सजी है पूरी रचना।

चाँद सितारो से जड़ी ओढ़णी है 

पूरबी हवा का आँचल लहर रहा है,

बादल में हँसती चाँदनी घूंघट में कामिनी जैसे लग रही है।


चांदनी में हरियाली मेंहदी सी सुहानी दिख रही है।

फूलों से सजी डालियाँ जैसे गजरे पहने हैं।

(गजरा हाथ में पहने का आभूषण )


ओस बूँद आँगण में बिखरी है जैसे सुंदरी के गले में  मोती का हार।

ऐसी सुंदर रात की नजर नर नारी उतार रहे हैं।


अब विरहन के भाव


अंबर में बिजळी गरज रही है

जोरदार आवाज से मेह बरस रहा है जिससे कालजे में आगसी सिलगती है,और दसों दिशा मन की भावनाओं में उलझ कर धुंधली सी दिखती है।

(या आंख में यादों का पानी सब कुछ धुंधला... )


चंद्र रूपी फूल रकी क्यारी महक रही है,चांदनी रात उजाला भर रही है और चाँद उल्टे कटोरे सा दिख रहा है जिसससे किरणें प्रीत सी झर रही है,और पत्ते पत्ते पर खोलनी कर रही है,और ये सब देख सखी (विरहन) सारी रात जग रही

शुक्रवार, दिसंबर 10

हूँ



प्रेम फ़िक्र बहुत करता है

लगता है जैसे-

ख़ुद को समझाता रहता है

कहता है-

"डिसीजन अकेले लेना सीखो

राय माँगना बंद करो

तुम मुझसे बेहतर करती हो।"

दो मिनट का फोन, पाँच बार पूछता है

"तुम ठीक हो?

कोई परेशानी तो नहीं

कुछ चाहिए तो बताना

मैं कुछ इंतज़ाम करता हूँ 

और हाँ

 व्यस्तता काफ़ी  रहती है 

 क्यों करती हो फोन का इंतजार ?

 कहा था न समय मिलते ही करुँगा

अच्छा कुछ दिन काफ़ी व्यस्त हूँ

फील्ड से लौटकर फोन करता हूँ।"

लौटते ही फिर पूछता है

"तुम ठीक हो ?"

आवाज़ आती है-”हूँ ”

और आप?

फिर आवाज़ आती है- ”हूँ ”


@अनीता सैनी ”दीप्ति” 

मंगलवार, दिसंबर 7

निमित्त है तू


थक न तू

थकान से न रख वास्ता

आकार तू निराकार तू

पृथ्वी है तू प्राणवायु तू

याद रख 

निमित्त है तू

निर्माता अपने भाग्य का तू।


क्या सोचता?

क्या देखता?

शक्ति तुझमें है अपार 

जल तू ज्वाला तू 

याद रख 

निमित्त है तू

निर्माता अपने भाग्य का तू।


 हाथ में तू हाथ दे

क़दमों के मेरे साथ चल 

मंज़िल का दूँ पता तुझे

तू बढ़ता चल

कर्म कारवाँ के साथ  

याद रख

निमित्त है तू

निर्माता अपने भाग्य का तू।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, दिसंबर 5

मावठ रा रास


पाती पढ़ये पाहुन कुर्जा 

गेहूँ खुड से झाँक रह्या।

कूँचा फूलड़ा दाँत निपोर 

तारा दिनड़ो हाँक रह्या।।


सिळी-सिळी चाले पुरवाई

साँझ धुणी-सी सिलग रही।

हूक हिवड़ पर तीर चलावे 

ढळती रातां बिलग रही।

झरे चाँदनी कामण गावे 

ओल्यूँ बलुआ पाँक रह्या।।


आंख्यां सुपणो सजे सोवणो

बाट जोहती रात रही।

जीवण बाँध कलाई तागा 

काच्चा सूत न कात रही।

काल चरखा धरतया घूमे 

बिखर पहर री फाँक रह्या।।


फूला-पत्ता बिंध्य किरण्याँ

 आँगण माही खेल्य भोर।

होळ्या-होळ्या डग धूप भरे

डाळ्या डागळा छज्जा छोर।

मावठ रास रचाती आवे।

दिन दुपहरी आँक रह्या।।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शब्द =अर्थ

कुँचा =एक प्रकार का पौधा 
फूलड़ा =फूल
हाँक =हुंकार 
सिळी-सोळी =ठंडी-ठंडी
ढळती =ढलती
बलुआ पाँक = बलुआ दलदली मिट्टी 
सिलग =सुलगना 
बिलग =बिलख
आंख्यां=आँख 
तागा =धागा
धरतया=धरती
फाँक =लंबाई के बल कटा हुआ टुकड़ा 
होळ्या-होळ्या=धीरे-धीरे
डाळ्या=टहनियाँ
डागळा=छत

मंगलवार, नवंबर 30

सरस्वती वंदना



माँ शारदा शरण में थारी
भाव-भक्ति माळा लाई।
फूल-पता बिछाया आँगणा 
मूर्त मन आळा बिठाई।।

कूँची माय स्याह भावों की 
 कोरो कागज काळजड़ो
आशीर्वचन दे माँ मालिनी
धीरज जोड्याँ हाथ खड़ो
वीणावादनी हँसवाहिनी
ज्ञान घृत दीवट जलाई।।

संगीत-कला री दात्री माँ
श्रद्धा सुमन अर्पित करूँ
घोर साधना डगे न हिवड़ो
जीवण थान समर्पित करूँ
महाभद्रा महामाया माँ
मोळी सूत सज कलाई।।

चित्त च्यानणो भरूँ चाँदनी
 नवो गीत नवगीत लिखूँ 
 थांरो सुंदर मुखड़ों माता
 दिवा निशा हरदम निरखूँ
महाविद्या मात मातेश्वरी
पद पंकज हिये समाई।।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शब्द =अर्थ 

थारी =तुम्हारी
माळा =माला, हार
आँगणा =आँगन
आळा =आला, ताक
काळजड़ो=हृदय
दीवट= लकड़ी का वह पुराने ढंग का स्तंभ जिस पर दीया रखा जाता है
घृत = धी
मोळी =मोली
नवो =नया
दिवा-निशा =दिन-रात

शनिवार, नवंबर 27

तर्कशील औरतें

वक़्त-बेवक़्त
समय को बारंबार 
स्मरण करवाना पड़ता है 
कि तर्कशील औरतों ने
भटकाव को पहलू में
बिठाना छोड़ दिया है। 

लीक पर चलना
सूरज के इशारे पर
छाँव की तलाश में 
पेड़ की परिक्रमा करना 
सामाजिक वर्जनाओं को
धारण करना भी छोड़ दिया है। 

रहस्य में डूबी
संस्कार रुपी रंगीन पट्टियों का 
 आँखों पर आवरण नहीं करती 
अंधी गलियों में
लकड़ी के सहारे विचरती रूढ़ियों ने 
तर्कशील औरतों को 
बातों में उलझना भी छोड़ दिया  हैं।

उपेक्षाओं के परकोटे को तोड़ 
रिक्तता की अनुभूति उन्हें 
ऊर्जावान
और अधिक ऊर्जावान बनाती है।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, नवंबर 21

म्हारी लाडेसर



 गुड़ डळी बँटवाई घर-घर 
खुल्यो सुखा रो बारणों।
लाड कँवर लाडेसर म्हारी 
चाँद-सूरज रो चानणों।।

प्राजक्ता-सी हृदय-मोहिनी 
तुलसी पाना बन छाई
आँगण माही बिखरी सौरभ 
माँडनियाँ-सी मन भाई
हिवड़े माही गीत गूँजती 
किरण्या झरतो झालणों।।

कुमकुम पाँव रचाती आई
शुचि दीप्ता-सी मनस मोहणी
हिय की कोर बिठावे बाबुल 
तारक दला-सी सोहणी
नव डोळ्या बिछ पलक पाँवड़े 
 लूण राई को वारणों ।।

उगते सूरज पळे आस-सी
ढलते दिन री लालिमा
मन पोळ्या रो दिवलो म्हारो
उजळी भोर हर कालिमा
जग सारे रो सुख वैभव दूँ 
झोटा देवती पालणों।।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शब्द =अर्थ 

बारणों =दरवाजा

लाड़ कँवर= राजकुमारी 

 लाडेसर = पुत्री, बेटी 

चानणों =उजाला

प्राजक्ता =पारिजात

माँडनियाँ =मांडना राजस्थान की लोक कला है। इसे विशेष अवसरों पर महिलाएँ ज़मीन अथवा दीवार पर बनाती हैं

झालणों =हवा देने की पँखी,चँवर 

सोहणी =सुंदर

नव डोळ्या =नया रास्ता

पलक पाँवड़े =किसी की  उत्कंठापूर्वक प्रतीक्षा करना

वारणों =नजर उतरना

बुधवार, नवंबर 10

मन विरहण



कोरा कागज पढ़ मन विरहण 
टेर मोरनी गावे है।
राह निहार लणीहारा री
कागा हाल सुनावे है।।

सुपण रो जंजाळ है बिखरो 
आली-सीळी भोर बिछी। 
सूरज सर पर पगड़ी बांध्या 
 किरण्या देखे है तिरछी।
 फूल-फूल पर रंग बरसाव 
  बगवा बाग सजावे है।

भाव बादली काळी-पीळी 
बूँदा सरिख्या पल बीत्या।
आँधी जैयां ओल्यूँ उमड़े
हाथ साथ का है रीत्या।
सूरत थळियाँ माही निरखे 
लाली पैर रचावे है।

काग फिरे मुंडेर मापतो  
मनड़े ऊपर खोंच करे।
आख्या पाणी झर-झर जावे 
टेढ़ी-मेडी चोंच करे।
पातल पर खुर्चन धर लाई
काला काग जिमावे है।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शब्द =अर्थ
 
टेर =पुकार, ऊँचा स्वर
कागा =कौवा 
हाल =संदेश 
सुपणे =स्वप्न 
जंजाळ =झंझट, उलझन 
आली-सिली =भीगी-भीगी-सी 
किरण्या = किरण, रश्मियाँ  
काळी-पीळी =काली-पीली 
सरिख्या =जैसा 
बीत्या =बीता हुआ समय  
ओल्यूँ =याद 
ळियाँ=चौखट 
रीत्या =खाली 
मापतो =मापना 
खोंच =झोली 
खुर्चन=किसी चीज का बचा-खुचा अंश 

मंगलवार, अक्टूबर 26

माँ को भी माँ चाहिए


बेटियों के हृदय पर

किसने खड़ी की होंगीं ?

गगनचुंबी

कठोर विचारों की ये दीवारें

जरुर जिम्मेदारियों ने

लिबास बदल 

मुखौटा लगाया है

लोक-लाज में डूबा 

 भ्रम कहता है

स्वतः ही जीवन भँवर में

बेटियाँ बेड़ियों में उलझी हैं!

नहीं! नहीं!

कदाचित कोई निर्दयी

ठगी, हठी चित्त ही रहा होगा

बाँधे हैं जिसने अदृश्य

बेड़ियों से बेटियों के पाँव

बेड़ियों के जंजाल से 

मुक्त करते हैं स्वयं को 

थोड़ा-सा प्रेम,समर्पण

स्वच्छचंद धरा पर बहाते हैं 

कठोर विचारों की नींव का

पुनर्निर्माण करते हुए 

प्रेम के प्रतिदान से

जिम्मेदारियों के नवीन एहसास से

आसमान के कलेज़े को

चीरते हुए निकली ये अदृश्य

मीनारें गिराते हैं

 माँ  को बेटी बना

 कलेजे से लगाते हैं।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

मंगलवार, अक्टूबर 19

उसके तोहफे

 उसके द्वारा दिए गए 

उपहार 

अनोखे होते हैं 

 जुदा, सबसे अलग 

कुकून में लिपटी

 तितली की तरह।


या कहूँ नंगे पाँव दौड़ती

 दुपहरी की  तरह

या फिर झुंड में बैठी

उदास शाम की तरह

बड़े अनोखे होते हैं

उसके द्वारा दिए उपहार।


कभी-कभार उसका

भूले से

अलगनी पर भूल जाना

भीड़ में भटके

अकेलेपन को 

दीन-दुनिया से बे-ख़बर

एकांत को 

सीली-सी रात में अंकुरित

एहसास को 

बड़े अनोखे होते हैं

उसके द्वारा दिए उपहार।


उन भीगे-से पलो में

सौंप देना ऊँची उड़ान

खुला आसमान

तारों को छूने की ललक

देखते ही देखते 

अंत में

मौली से बाँध देना मन को

अनोखे होते हैं उसके तोहफ़े 

अलग,सबसे अलग।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शुक्रवार, अक्टूबर 8

आळा रो दिवलो


आळा माही धधके दिवलो 

पछुआ छेड़ मन का तार।

प्रीत लपट्या जळे पतंगा 

निरख विधना रा संसार।।


रुठ्यो बैठो भाव समर्पण 

नयन कोर लड़ावे  लाड़।

खुड बातां का काढ़ जीवड़ो

टेड़ी-मेडी बाँध बाड़।

 विरह प्रेम री पाट्टी पढ़तो 

चुग-चुग आँसू गुँथे हार।।


 बूझे हिय रो मोल बेलड़ी

 यादा ढोव बिखरा पात।

जीवन क्यारी माँज मुरारी

 रम्या साँझ सुनहरी रात।

अंबर तारा बरकी कोंपल

 चाँद हथेल्या रो शृंगार।।


धवल चाँदनी सुरमो सारा 

 जागी हिय की पीर रही।

 थाल सजाया मनुवारा में 

आव भगत की खीर रही। 

हलवो पूरी खांड खोपरो

 झाबा भर-भर दे उपहार।।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


शब्द =अर्थ 

आला -ताख,आळा,ताक़

दिवलो -दीपक 

लपट्या -लौ 

बेलड़ी-बेल 

हथेल्या -हथेली 

झाबा-बाँस या पतली टहनियों का बना हुआ गोल और गहरा पात्र, टोकरी


शनिवार, अक्टूबर 2

ट्रेंड



बारिश की बूँदों का 

फूल-पत्तों की अंजुरी में 

 सिमटकर बैठना

बाट जोहती टहनियों का 

हवा के हल्के झोंके के

स्पर्श मात्र से ही 

निश्छल भाव से बिखरना

डाल पर डोलती पवन का 

समर्पण भाव में डूबना

बिन बादल बरसी बरसात का

यह रुप

कभी  ट्विटर पर

 ट्रेंड ही नहीं करता।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


गुरुवार, सितंबर 23

बोलना चाहिए इसे अब



एक समय पहले अतीत
ताश  के पत्ते खेलता था
 नीम तो कभी
पीपल की छाँव में बैठता था 
न जाने क्यों ?
आजकल नहीं खेलता
 घूरता ही रहता है 
 बटेर-सी आँखों से 
घुटनों पर हाथ
 हाथों पर ठुड्डी टिकाए
 परिवर्तनशील मौसम 
ओले बरसाता 
कभी भूचाल लाता 
अतीत का सर 
फफोलों  से मढ़ जाता 
धूल में सना चेहरा 
पेंटिग-सा लगता
नाक बढ़ती 
कभी घटती-सी लगती 
पेट के आकार का 
भी यही हाल है 
पचहत्तर वर्षों से पलकें नहीं झपकाईं 
 बोलना चाहिए इसे अब
नहीं बोलता।
वर्तमान सो रहा है 
बहुत समय से
आजकल दिन-रात नहीं होते
 पृथ्वी एक ही करवट सोती है
बस रात ही होती है 
पक्षी उड़ना भूल गए 
पशु रंभाना 
दसों दिशाएँ  
एक कतार में खड़ी हैं 
मंज़िल एक दम पास आ गई 
जितना अब आसान हो गया 
न जाने क्यों इंसान भूल गया
वह इंसान है
रिश्ते-नाते सब भूल गया 
 प्रकृति अपना कर्म नहीं भूली
हवा चलती है
पानी बहता है पेड़ लहराते हैं
 पत्ते पीले पड़ते हैं 
धरती से नए बीज अंकुरित होते हैं 
वर्तमान अभी भी गहरी नींद में है
उठता ही नहीं 
उसे उठना चाहिए 
दौड़ना चाहिए
किसी ने कहा बहकावे में है 
 स्वप्न में तारों से सजा
 अंबर दिखता है इसे 
मिनट-घंटे बेचैन हैं वर्तमान के
मनमाने के व्यवहार से
 अगले ही पल
यह अतीत बन जाएगा
फिर घूरता ही रहेगा 
बटेर-सी आँखों से 
घुटनों पर  हाथ
हाथों पर ठुड्डी टिकाए।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, सितंबर 16

ममतामयी हृदय



 ममतामयी हृदय पर

अंकुरित शब्दरुपी कोंपलें 

काग़ज़ पर बिखर

जब गढ़ती हैं कविताएँ 

सजता है भावों का पंडाल 

प्रेम की ख़ुशबू से 

मुग्ध मानव मन का

मुखरित होता है पोर-पोर  

अंजूरी से ढुलती संवेदनाएँ

  स्याही में घुल 

शाख़ पर सरकती हैं 

हरितमय आभा लिए 

सकारात्मकता ओस बन 

चमकती है 

पत्तों पर मोती-सी

बलुआ किणकियाँ 

 घोलती हैं करुणा

कलेज़े में

बंधुत्त्व की बल्लरियों के 

नहीं उलझते सिरे 

वो फैलते ही जाते हैं 

स्वच्छन्द गगन में

वात्सल्य की महक लिए 

रश्मियों के  छोर को थामें।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, सितंबर 9

प्रभा प्रभाती


 प्रभा प्रभाती झूमे गाये 

मुट्ठी मोद स्वप्न लाई।

बैठ चौखट बाँटे उजाला 

बिखरे हैं भाव लजाई।।


चाँद समेटे धवल चाँदनी

अंबर तारे लूट रहा।

प्रीत समीरण दाने छाने  

पाखी साथ अटूट रहा।

भोर तारिका करवट बदले 

पलक पोर पे हर्षाई।।


चहके पंख पसार पखेरू

धरणी आँगन गूँज रहा।

छाँव कुमुद गढ़ आँचल ओढ़ा 

तपस टोहता कूँज  रहा।

नीहार मुकुट पहने धरणी 

सजल दूब है इठलाई।।


 कोंपल मन फूटे इच्छाएँ

 बूँटा रंगे रंगरेज।

डाली सौरभ बन लहराए

गढ़े पुरवाई जरखेज।

होले-होले डोले रश्मियाँ

स्वर्णिम आभा है छाई।।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

बुधवार, सितंबर 1

उस रोज़



 उस रोज़ 

घने कोहरे में

भोर की बेला में

सूरज से पहले

तुम से मिलने 

 आई थी मैं

लैंप पोस्ट के नीचे

तुम्हारे इंतज़ार में

घंटो बैठी रही 

एहसास का गुलदस्ता

दिल में छिपाए 

पहनी थी उमंग की जैकेट

विश्वास का मफलर

गले की गर्माहट  बना 

कुछ बेचैनी बाँटना

चाहती थी तुमसे

तुम नहीं आए 

रश्मियों ने कहा तुम

निकल चुके हो

 अनजान सफ़र पर।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

सोमवार, अगस्त 30

भरे भादवों बळ मन माही


 भरे भादवों बळ मन माही 

बैरी घाम झुलसाव है 

बदल बादली भेष घणेरा 

अंबरा चीर लुटाव है।।


उखड़ो-उखड़ो खड़ो बाजरो 

ओ जी उलझा मूँग-ग्वार

 हरा काचरा सुकण पड़ग्या

ओल्या-छाना करे क्वार

सीटा सिर पर पगड़ी बांध्या

दाँत निपोर हर्षाव है।।


हाथ-हथेली बजाव हलधर 

छेड़े रागनी नित नई

गीत सोवणा गाव गौरया

हिवड़े उठे फुहार कई

आली-सीली डोल्य किरण्या

समीरण लाड लडाव है।।


सुख बेला बरसाती आई

कुठलो काजल डाल रयो

 मेडा पार लजायो मनड़ो 

होळ्या-होळ्या चाल रयो

ठंडी साँस भरे पुरवाई

झूला पात झूलाव है।।


@अनीता सैनी 'दिप्ति'

शब्द =अर्थ 
घाणेरा=बहुत अधिक
लुटाव=लुटाना
उखड़ो-उखड़ो=रुठा-रुठा
सुकण=सुखना
ओल्या-छाना =छिपाना
सीटा=बाजरे की कलगी
सोवणा =सुंदर
आली-सीली =भीगी हुई
डोल्य = घूमना
कुठलो =अनाज डालने का मिट्टी का एक पात्र
होळ्या-होळ्या=धीरे -धीरे

बुधवार, अगस्त 25

विश्वास के मुट्ठीभर दाने


 विश्वास के मुट्ठीभर दाने 

छिटके हैं समय की रेत पर

गढ़े हैं धैर्य के छोटे-छोटे धोरे 

निष्ठित जल से सींचती है प्रभात।


सूरज के तेज ने टहनियों पर 

  टाँगा है दायित्त्व भार

चाँदनी के झरते रेशमी तार 

चाँद ने गढ़ा सुरक्षा का सुनहरा जाल।


ज़िम्मेदारियों का अँगोछा

कंधों पर डाल

खुरपी से हटाया है 

हवाओं ने  खरपतवार।


थकान के थकते पदचाप

दुपहरी में ढूँढ़ते शीतल छाँव

भावों की बल्लरियों पर 

लताओं ने बिछाया है बिछौना।


धूप दहलीज़ पर बैठ 

दिनभर करती है रखवाली

अँकुरित कोपलों की हथेली में 

 खिलने लगे हैं सुर्ख़ फूल।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शनिवार, अगस्त 21

आज


 हवाओं में छटपटाहट

धूप में अकुलाहट है 

व्यक्त-अव्यक्त से उलझता

आशंकाओं  का ज्वार है।


तर्क-वितर्क के

 उखड़े-उखड़े चेहरे हैं 

कतारबद्ध उद्गार ढोती विनतियाँ  

आस को ताकता अंबर है।


पलकों से लुढ़कते प्रश्न

मचाया विचारों ने कोहराम है 

अभिमान आँखों से झरता 

कैसा मानवता का तिरस्कार है?


ज़ुकाम के ज़िक्र पर जलसा

खाँसने पर उठता बवाल है 

चुप्पी के कँपकपाते होंठ 

सजता नसीहत का बाज़ार है!


पुकारती इंसानीयत

पाषाण लगाते गुहार हैं

मूर्छित मिट्टी रौंदते अहं के पाँव 

स्वार्थ की रस्सी से बँधे विश्व के हाथ हैं!


@अनीता सैनी 'दीप्ति'