Powered By Blogger

शनिवार, मई 28

माई! पंछी प्रेम पुगायो



माई! पंछी प्रेम पुगायो 

उण ही पीर सुणा बैठी।।

भाव बोल्या न बदळी गरजी

आभे देख गुणा बैठी।


 जैठ-आषाढ़ बळे तावड़ा 

आंधी ख़्याळ रचावे है।

किण बोया कांटा कैरा रा

आँचळ आप छुड़ावे है।

नैण नीर दिण-रात बहाया 

बिकी ही बाड़ बणा बैठी।।


झोंका लू रा झूला-झूले 

माथ चूम तकदीरा रा।

आखर आँगणा जदे उग्या 

 पात झरा तकबीरा रा।

ठाठ-बाठ रो पसर च्यानणों 

 काळजड़ो भूणा बैठी।


 रूप ढुलै ढळते सूरज रौ 

सिंझ्या थबकी दे दहरी।

रात च्यानणी पूनम बरगी 

हिवड़ा टीस उठे गहरी।

लाडा भूखी हिया बसायो

जीवण बिरह बुणा बैठी।।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


शब्दार्थ 

पुगाना/देना,उण / उसको,सुणा / सुना,बोल्या/बोलना,

बदळी /बदली,सिंझ्या/सांध्या,आभे/अंबर,जळाव/जलाव, जावतो/जाना, ख़्याळ/ख़्याल, चैतना ,किण/ किन, आँचळ/आँचल, आँगणा/आँगन, जद / जब,उग्या/उगना,तकबीर/प्रर्थना,पसर/फैलना,चानणो/उजाला,काळजड़ो/कलेजा  ,भूणा/ भूनना, जलना,ढुलै/ ढुलना  ,ढळते/ ढलना

बुधवार, मई 25

तुम मत बोलना !


ये जो सन्नाटा पसरा पड़ा है 

 इसकी परतें तुम मत खोलना।

विरह की रड़क थामे है मौन

 टूटना-रुठना तुम मत घोलना।

 मत बोलना! तुम मत बोलना!!


अव्यक्त नयन सोते में डूबा

जिह्वा का हठयोग रहा।

व्यक्त आजीवन एकदम उत्सर्ग

विधना का सुयोग रहा।

बैठ  छाँव में निरख ढोलना

 मत बोलना! तुम मत बोलना!!


व्यूह में उलझे अभिमन्यु के 

 अनकहे भाव  सुलगते हैं।

न कहने की पीड़ा को पीते

 कितने ही प्रश्न झुलसते हैं।

 जीवन तराजू में न तौलना 

 मत बोलना! तुम मत बोलना!!


कोरे पन्नों पर बिखेर बेल-बूँटे 

शीतल माटी गाँव गढ़े।

क़लम उकेरे तत्समता भावों की  

उजड़े चित्त की ठाँव पढ़े।

उस पथ पर पथिक तुन दोलना

मत बोलना! तुम मत बोलना!!


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

सोमवार, मई 16

बुद्ध



निर्विकार के उठते हिलकोरे 

पग-पग पर करते प्रबुद्ध 

उर बहती प्रीत सरित 

ममता के पदचाप में बुद्ध।


श्वेत कपोत आलोक बिखेरे 

 मौन वाणी करुणा की शुद्ध 

बोधि-वृक्ष  बाँह फैलाए 

मानवता की छाप में बुद्ध।


मिलन-बिछोह न भेदे मन 

आकुलता संतोषी अबिरुद्ध 

दुःख दिगंबर भाव भरता 

पंछी के आलाप में बुद्ध।


हवा परतों में शील-प्रज्ञा

गीत कल्याणी गूँजे अनिरुद्ध 

मधु घुलता जन-जन हृदय में 

समता के हर जाप में बुद्ध।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, मई 12

विरह



समय का सोता जब 
धीरे-धीरे रीत रहा था 
मैंने नहीं लगाए मुहाने पर पत्थर
न ही मिट्टी गोंदकर लगाई 
भोर घुटनों के बल चलती 
दुपहरी दौड़ती 
साँझ फिर थककर बैठ जाती 
दिन सप्ताह, महीने और वर्ष
कालचक्र की यह क्रिया 
 स्वयं ही लटक जाती 
अलगनी पर सूखने 
स्वाभिमान का कलफ अकड़ता 
कि झाड़-फटकार कर
रख देती संदूक के एक कोने में
प्रेम के पड़ते सीले से पदचाप  
वह माँझे में लिपटा पंछी होता 
विरक्ति से उनमुख मुक्त  करता
मैं उसमें और उलझ जाती 
कौन समझाए उसे 
सहना मात्र ही तो था 
ज़िंदगी का शृंगार
विरह मुक्ति नहीं 
इंतज़ार का सेतु चाहता था।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


शनिवार, मई 7

संकेत


यों ही अकारण, अकस्मात 

चैत्र-बैसाख महीने के अंबर में

दौड़ती बिजली का कौंधना

गरजते बादलों का झुंड में बैठ

बेतुकी बातों को तुक देते हुए

भेद-भाव भरी तुकबंदियाँ गढ़ना 

यही खोखलापन लीलता है

खेजड़ी के वृक्ष से सांगर

उनकी जगह उभरती गठानें 

खेजड़ी का  ठूँठ में बदलना 

शक्ति प्रदर्शन का अति विकृत रूप 

दरख़्त की छेकड़ से फूट-फूटकर बहना 

प्रकृति का असहनीय पीड़ा को

भोगी बन भोगते ही जाना 

संकेत हैं धरती की कोख में 

मानवता की पौध सूखने का।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'