धर रूप स्नेह का,
वात्सल्य भाव से बरसना,
संघर्ष सजा ललाट पर ,
मैं कर्कश संसार में जीना चाहती थी |
करोगे कब तक जीना दुश्वार,
जो दोष नहीं था मेरा
करोगे कब तक उससे शृंगार,
मर-मरकर जीने की राह चुन,
मैं कर्कश संसार में जीना चाहती थी |
जब-जब लगी चाहत से गले ज़िंदगी,
तब-तब अँकुरित हुई कुबुद्धि समाज में,
गूँथी अनचाहे अपशब्दों की सतत शृंखला ,
कर कंठ पर धारण, मैं कर्कश संसार में जीना चाहती थी |
भावों का विकार सहज सरल,
निर्मल मन को द्रवितकर कुंठा से किया मलिन,
जग ने कह मनोरोगी किया तिरस्कार,
सब्र टूटा कब मेरा,प्रवाह उम्मीद लिये
मैं कर्कश संसार में जीना चाहती थी |
अंतरमन में जग ने जलाया पल-पल ,
क्रोध से भरा अवमानना का दीप,
वक़्त ने किया गुमराह,
भाग्य ने जकड़ी मोम-सी मासूम साँसें,
मैं कर्कश संसार में जीना चाहती थी |
न बढ़ाया मौत ने क़दम,
किया अग्रसर मेरे अपनों ने,
नैराश्य की पूड़ी खिला सानिध्य में,
भावुक मन अबला का साँसों से खेल गया,
मैं कर्कश संसार में जीना चाहती थी |
- अनीता सैनी