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मंगलवार, अप्रैल 30

वो अब मुस्कुराने लगी



संस्कारों का पहन गहना, 
बड़ी  शान  से चलने लगी,  
समेटे होंठों की मुस्कान, 
 गीत प्रीत के गाने लगी |

इंतज़ार में सिमटे  दिन, 
 वही रात गुज़रने लगी, 
पहरेदार वह देश का,  
यही सोच वह मुस्कुराने लगी |

गुरुर से धड़कता सीना, 
 झलका आँखों से  पानी, 
  क्या कहेगा समाज ?
यही से शुरू हुई  वह  कहानी |

सुशील और शालीनता  की जद्दोजेहद, 
  मन  में  लिए लाखों  सवाल, 
  दर्श रूप का दिखा आईना, 
 उभर  आयी  एक  मिशाल |

 संस्कारों  का  पहन  गहना,  
 मन  ही  मन  मुरझाई, 
फबता  है  तुम  पर,   
 यही गहना मेरी कहने लगी मेरी परछाई |

  भाव मन के  उकेरे, 
  मौन  शब्दों का मुखर  बखान, 
हृदय  प्रवाह  में   प्रेम  गंगा, 
कविता संग  खिली  मुस्कान |

- अनीता सैनी 

शुक्रवार, अप्रैल 26

वेदना जननी प्रीत की


क्यों  पहनी   मायूसी, ख़ामोशी  में  सिमटा प्यार, 
 उतरी वेदना  अंतरमन में  भाग्य उदय हुआ उसका हर बार |

क्यों  मिटाया  ख़ुद  को  जीवन  पर  कुंडली   मार,  
सुख पीड़ा का  बहुत  बड़ा  कवि  हृदय  का  सार |

नाज़ुक तन फूलों की डार, लिये भीतर  पाषण-सा भार ,
निराधार जीवन उसका न बनी वेदना जिस अंतर मन का  सार |

सिसकी वेदना  सीने  में बातें  उससे  हुईं    इस   बार ,
क़दम-क़दम  पर साथ चली  बन  सुख, का सच्चा आधार |

सीने से लगाये  फिरती, करती  पल-पल  मनुहार 
वेदना  जननी  प्रीत   की   हाथों  से  करती  जीवन  शृंगार|

- अनीता सैनी 

गुरुवार, अप्रैल 25

ज़िंदगी तू कितनी बदल गयी




सुकून की तलाश में  भटक  रही ज़िंदगी 
ग़मों  से  खेल  गयी,  
खुशियों से भरा दामन लाँघ,
हँसी  को  तरस   गयी |


ज़िंदगी  के  लिये  दौड़  रही  दुनिया, 
वक़्त, ज़िंदगी   निगल  गयी,  
तराजू  से  तौल  रहे  प्रीत,  
ज़िंदगी ,  प्रीत   को    तरस  गयी  |


बेहाल  हुये  रिश्ते, 
हाल पूछने  से  शान  बदल  गयी, 
बहुत   गम  है  सीने  में, 
रोने  से  आँखें   घबरा  गयीं |


सामने  खड़ी  ज़िंदगी, 
सजाने  की  चाह  बदल  गयी 
पल-पल दम तोड़ती इंसानियत, 
मुस्कुराने  की  राह  बदल  गयी  |

- अनीता सैनी 

रविवार, अप्रैल 21

झरोखा


खिलखिलाते  हुए बचपन का, 
या कहूँ मायूस  बुढ़ापे का  सहारा, 
ठुकराया  जिसे  ज़माने  ने,  
उसे   झरोखे   ने   पुकारा |

समेटे दिल में यादों का समुंदर ,  
झुकी पलकों से सँवारा, 
टेक उसके कंधों पर सर, 
उसी की नज़रों से जहां  को निहारा |

एक अरसे से समेटे ख़ामोशी, 
वहीं  इंतज़ार का  बना  बसेरा,  
कभी  झाँकतीं   थीं   ख़्वाहिशें, 
वहाँ  तन्हाइयों  का  हुआ  सवेरा|

- अनीता सैनी 

शनिवार, अप्रैल 13

सृष्टि की प्रीत



पीड़ा   सृष्टि  की   आँखों   में  झलकी, 
साँसों   से  किया  उसका  तिरस्कार, 
अल्हड़   हँसी   दौड़ी   हृदय   में, 
मानव   सृष्टि  का  जीवन   आधार |

बुना    ख़्वाब  धरा  का, 
अधरों  से    दिया  रूप  साकार, 
बेचैनी  हृदय  पर  डोली , 
 क्षितिज के कोर पर आया  प्रभाकर, 
 ढली  शाम   हुए   दीदार |

थक   हारकर  बैठा   दिवाकर, 
सृष्टि  ने  किया  स्नेह  से  सत्कार, 
बिन  वजह  जताता  हूँ  क्रोध, 
बहुत  आता  है  मानव  पर  प्यार |

अनायास   ही  खिलखिला  उठी, 
न  कर दिनकर  मन  पर  वार, 
काम  घनेरे  दर  पर  मेरे,  
मनु  अपने  कर्मों  का  हक़दार |

विदा   हुआ शशि, 
कलेजे  से  लग   किया   दीदार, 
बरसाना   स्नेह  की  चाँदनी,  
मनु  शतरूपा  के  जीवन  में, 
 न   हो  अब   कोई    तक़रार |

- अनीता सैनी 

शुक्रवार, अप्रैल 12

स्नेह की लालिमा


स्नेह की लालिमा, 
फैली यूँ धरा पर दूर तलक,   
मख़मली कोमल एहसासों में,  
लिपटा  ज़मीं  से नील-फ़लक |

तरु की साख झुकी भूतल पर,  
पाने धरा का निर्मल  स्पर्श, 
हर्ष में डूबा खिलखिला रहा मन,  
 उठी लहर सागर में,प्रीत की रही वो  झलक|



आशा-अभिलाषा संग कमनीय, 
मृदुल प्रमोद में चमक रही  हृदय की लालसा, 
पिया संग गाये  मधुर रागिनी, बैठ साँझ सिरहाने, 
 मादकता में डूबा क्षितिज निहारे धरा को अपलक |



- अनीता सैनी 

गुरुवार, अप्रैल 11

मैं धर्म हूँ


मैं धर्म हूँ  
शाश्वत 
पदार्थ में  सार्वभौमिक 
मानव धर्म सार्वभौमिकता 
हुआ न कभी बदलाव मुझमें 
 फिर भी  तलाश रहा हूँ अपना अस्तित्त्व 
खोज रहा हूँ पहचान अपनी 
धारण किया मैंने कर्म को 
प्रदर्शित किया गुणों को 
मैं मानव से संबंधित नहीं 
   सृष्टि के कण-कण में विराजित मैं 
 पदार्थ में हूँ प्रयुक्त 
मैं सर्वकालीन हूँ 
न रुप रंग की बाधा
हर रंग फबता मुझ पर 
 पानी का धर्म बहना 
दिया अग्नि रुप  प्रकाश  
 सम्पर्क में आने पर जल जाना  
 अधरों पर धारण किया सम्राटअशोक ने 
सामाजिक दायित्वों का करना था सम्मान 
(व्यवसाय - वर्णा धर्म  
जीवन स्तर -आश्रम धर्म 
व्यक्तित्व -सेवा धर्म 
राजात्व-राज धर्म ,स्त्री धर्म और मोक्ष धर्म )
अर्थ में डूबा जब  जग मेरे 
तब अर्थ को भूल बैठा वह मेरे 
  कर्तव्य, अहिंसा, न्याय, सदाचरण 
साथ मेरे सद्गुण का नाता
धर्म सम्प्रदाय में  उलझा दामन मेरा 
हिन्दू  ,मुस्लिम, ईसाई, जैन या कहु बौद्ध धर्म नहीं, 
सम्प्रदाय यह  मेरे 
हृदय  भीतर जकड़ी  विचारधाराओं ने थामा हाथ  मेरा 
घटनाओं का लगा ताँता 
तब गूँथी  धर्म  उत्पति की डोर वह भारी 
गूँथे मानस मन के तार 
भूल  गया वह  आभा मेरी 
खोज रहा रुप साकार  
हिन्दू धर्म में -ब्रह्म,विष्णु और महेश बन निखरा रुप मेरा 
दौड़ा युगों का रुप सुनहरा सतयुग,त्रेता, द्वापर और कलियुग  
जैन धर्म -ऋषभनाथ की विचार धरा से 
ब्रम्हा के मानस पुत्र के वंशज और राम के पूर्वज ने थामी कर्म डोर अभागी 
ढला बौद्ध  बुद्ध की धारा का लिए प्रवाह 
गुरुनानक की सजा  सुन्दर  वाणी अधरों पर 
मैं धर्म 
दौड़ रहा  युगों युगों से 
 कर  कर्म   को  धारण |


- अनीता सैनी 

शनिवार, अप्रैल 6

वो ज़िंदगी-सी लगी


नूर  को न निहारा, 
 वो यूँ नाराज़ हो गयी, 
उसे संवारने की चाह विफल रही, 
मैं  भी चला और वह वादियों में खो  गयी |

अपनी   मीठी    रसना   से, 
 उसने  बोले  प्रीत  के  दो  बोल, 
डूब   गया   मैं   शब्दों   में, 
जैसे  अमृत  का  हो  घोल |

मधुर  अभिलाषाएँ   लिये , 
चुपके-चुपके  रही  वो  घूम, 
हृदय  में  उठे   मंगल-गीत, 
  कानों   को   रहे   चूम |

प्रेम  को  रोध क़दमों  से, 
स्नेह  की परिभाषा  समझाती  वो, 
 प्रीत  की  गहराइयों  में, 
मग्न  अकेली  डूबती जाती  वो |

-अनीता सैनी 

गुरुवार, अप्रैल 4

मन वीणा यूँ बजी आज


                                  

                      फैला उम्मीद का दामन, 
                      मन  वीणा  यूँ  बजी  आज, 
                उमंग के  साज़  सजे सब  दिशाओं  में, 
                      पिया  के  रंग  में   रंगी  आज |
                  
                        सजा  आँखों  में  सुरमा,  
                       ओढ़   चुनरियाँ    लाल, 
                       नेह   प्रीत   में  खो जाऊँ, 
                      फिर  बन  जाऊँ  दुल्हन  आज|

                        रीति-रिवाज  का पहन  चोला, 
                        मंद-मंद   मुस्काऊँ  आज,    
                         वक़्त की डोरी खोलूँ  हाथों से, 
                       फिर सजाऊँ  जीवन का  साज़ |

                            बाट  तुम्हारी   जोहती, 
                        बेचैन हृदय में  छिपाये  राज़, 
                        भूल न  जाना  बात  मिलन की, 
                             राह   निहारे   गोरी  आज |
    
                                  - अनीता सैनी 

बुधवार, अप्रैल 3

शुष्क मरु की तपती काया

                                                                      
               शुष्क  मरु की  तपती काया,  
                  झुलसा तन तलाशे  छाया,  
                        आओ प्रिये  !
                          प्रीत  संग,  
                  भाव-सरिताएँ  उलीचें

                     सुंदर  फूल   नहीं, 
                    जंगली   घास  उगाएँ, 
                  तपती  देह कराहता मरु,  
                       मुस्कुराते छाले,  
                       आओ  प्रिये  !
           शुष्क मरु पर भाव-सरिताएँ  उलीचें |

              सावनी-मनुहार भरे  साँसों  में, 
                   विश्वास दबा मुठ्ठियों  में, 
                    प्रेम के मधुर गीत सींचे,  
                         शुष्क मरु पर, 
                     भाव-सरिताएँ  उलीचें |

                  हृदय करुणा झलके आखों  में,  
                   शीतलता का  भाव  तलाशें, 
                               आओ  प्रिये  !  
                      निशा का साथ सुहाना, 
                     अनमनी सी ठहरी तन पर, 
                      मौन  प्रेम के  लगे पहरे, 
                      मुखर मधुर  स्वप्न  सुनहरे, 
                             आओ प्रिय !
                        प्रीत पल  कर  धारण, 
                         तब नयनों को मीचें, 
                              प्रीत  संग, 
                        भाव-सरिताएँ  उलीचें |

                              - अनीता सैनी 

मंगलवार, अप्रैल 2

विज्ञान की महिमा


                                                      
पत्थर के पेड़ हरे होंगे, 
मानव  ज्ञान  की  राह  चला, 
धरा  का  सीना  छलनीकर,  
लेने  उस  की     थाह  चला |

न पतझड़,न वसंत  का इंतज़ार, 
 धरा  का  दामन  होगा  भरा, 
      फूलों का होगा ढेर, 
  दर्द  में  डूबी  होगी  धरा |

भँवरों के भिनभिनाने का भार, 
न फूलों को लेना होगा, 
फूलों को अपना अस्तित्त्व, 
ताक पर रख  देना  होगा |

रंगों में   लिपटे  होंगे फूल, 
नज़ारों   में  होगी  रंगीनियत,  
    फूल  होगें  पत्थर के, 
न  होगी  फूलों  में  मासूमियत |

फूलों  से  सुन्दर  फूल  होगें पर, 
फूलों  में  वो  ख़ुशबू  न  रहेगी, 
पत्थर  की   वरमाला  होगी, 
पत्थर  से  फ़िर  सेज   सजेगी |

आवतों  ने बुना जाल, 
बुद्धि की  यही  कलाकारी, 
विज्ञान-यान  पर सवार मानव, 
खोज है यह चमत्कारी |

दौड़ रहा मस्तिष्क मानव का, 
 हृदय पर की सवारी, 
शीतलता की राहत होगी, 
प्रगति की आयी बारी |

धरा को पत्थर-फूल से सजाया, 
सूरज-चाँद पर  जाने की  तैयारी, 
मानव  चला  प्रगति  की  राह, 
विज्ञान  की  यह   महिमा  सारी |
  
           - अनीता सैनी