मंगलवार, नवंबर 26
छांव में छिपे रंग
रविवार, नवंबर 17
हिज्र के साए
गुरुवार, नवंबर 14
अवसान के निशान
रविवार, नवंबर 3
अंतिम थपकी
अंतिम थपकी/ अनीता सैनी
२ नवंबर २०२४
….
जब जीवन के आठों पहर सताते हैं,
और तब जो थपकी देकर सुलाती है,
वही मृत्यु है।
चार्ल्स बुकोवस्की ने कहा-
मृत्यु और अधिक मृत्यु चाहती है,
और उसके जाल भरे हुए हैं:
मैंने कहा-
नहीं, मृत्यु और अधिक मृत्यु नहीं चाहती है
वह और अधिक समर्पण चाहती है।
आसक्त जीवन से
प्रेमिकाओं वाला प्रेम चाहती है।
बहुत बुरी लगती हैं उसे पत्नियों वाली दुत्कार,
समय गवाए बगैर
उसकी व्याकुलता भेजती है
छोटे-छोटे संदेश, छोटी-छोटी आहटें।
परंतु! उन्हें पढ़ा और सुना नहीं जाता,
अनभिज्ञता की आड़ में
उन्हें अनदेखा-अनसुना किया जाता है।
एकाकीपन नहीं है न किसी के पास
कोई कैसे पढ़ें और सुनें?
तुम उन्हें पढ़ना और सुनना —
उसे पढ़ना-सुनना शांति को स्पर्श करने जैसा है
गुरुवार, अक्टूबर 24
अज्ञात की ओर
गुरुवार, अक्टूबर 3
प्रवाह के पार
मंगलवार, सितंबर 24
भोर का पक्षी
गुरुवार, सितंबर 19
प्रेम
गुरुवार, सितंबर 12
खिड़कियों से परे
खिड़कियों से परे / अनीता सैनी
७सितम्बर२०२४
…..
उनकी
आत्मा में गहरी संवेदनाएँ हैं
वे कहते हैं
स्त्रियाँ गाय हैं चिड़िया हैं
भेड़ और बकरिया भी हैं
उनके कंधों पर सरकती घरों की दीवारें
वे मुख्य द्वार से निकलने की हकदार नहीं हैं
वे दरारों और खिड़कियों से झाँकतीं हैं
जैसे झाँकते हैं दरारों से नीम-पीपल
समय के द्वारा
समय-समय पर दरारें
गोबर-मिट्टी के गारे से लिपी-पुती जाती हैं
उनकी अस्थिर आँखें बोलने में असमर्थ हैं
इस तरह उनके कान उनके के लिए मुँह हैं
परंतु
वे वृक्ष नहीं हैं
उन्हें सदियों से वृक्ष के चित्र दिखाकर
उनसे
फल-फूल और लकड़ियाँ प्राप्त की जाती रही हैं
नाइट्रोजन की अपेक्षा ऑक्सीजन के कीड़े
उन्हें अधिक तेजी से निगलते रहे हैं
फिर भी वे नींद से जाग नहीं पाई
वे नहीं जान पाई कि वे स्त्रियाँ हैं
उन्होंने स्वयं के लिए अंधेरा चुना
उसमें उन्हें
उजाले के चमकते दाँत व नाख़ून दिखाई देते हैं
उन्हें दाँत और नाख़ून ही दिखाए गए हैं
वे कहती हैं -
“हे अंधेरा ! तुम में चेतना है
तुम में ग्रेवीटी है
तुम सपनों के ब्लेकहॉल हो
तुम पुकारते हो तुम्हारी पुकार हमें सुनती है
तुमसे बातें करना महज पागलपन नहीं
अस्तित्व है तुम्हारा
तुम्हारा गलबाँह में जकड़ना सुकून प्रद है
गहरे समंदर में डूबने पर
तलहटी की इच्छा कहाँ रहती है?”
इस तरह वे
भावनाओं की गहरी घाटियों से उलझती
और डूबती रही बहुत गहरे में
गाय तो कभी चिड़िया की तरह।
गुरुवार, अगस्त 29
रास्ते में
गुरुवार, अगस्त 22
घूँट
गुरुवार, अगस्त 15
जीवन
बुधवार, जुलाई 31
अकेला
बुधवार, जुलाई 17
गिरह
शनिवार, जुलाई 13
आह! ज़िंदगी
आह! ज़िंदगी / अनीता सैनी
१२जुलाई २०२४
……
…..और कुछ नहीं
वे स्वीकार्य-सीमा की मेड़ पर खड़े
गहरे स्पर्श करते अंकुरित भाव थे
न जाने कब बरसात का पानी पी कर
अस्वीकार्य हो गए
आह! ज़िंदगी लानत है तुझ पर
भूला देना खेल तो नहीं
इंतजार में हैं वे आँखें वहीं जहाँ बिछड़े थे
बार-बार उसी रास्ते की ओर
पैरों की दौड़ का
ये सच भी तूने भ्रम हेतु गढ़ा
वे नहीं लौटेंगे
कभी नहीं लौटेंगे
सभी कुछ जानते होते हुए भी
मैंने
प्रतीक्षा की बंदनवार में
साँसों की कौड़ी जड़
स्मृतियों के स्वस्तिक
आत्मा की चौखट पर टांग दिए हैं
एक बार फिर तुझे सँवारने के लिए।
शनिवार, जुलाई 6
बरसाती झोंका
सोमवार, जून 24
अनुभूति
अनुभूति / अनीता सैनी
२३जून२०२४
……
प्रकृति पर मलकियत जताने
वाले वे सभी उसके मोहताज थे
यह उन्हें नहीं पता था
क्योंकि उन दिनों
वे सभी मोतियाबिंद से जूझ रहे थे
उनके दिमाग़ की गहराई में सिर्फ़
दो ही प्रतिबिंब बनते स्त्री और पुरुष
वे उनके होने का आकलन काया से करते
रूढ़ियाँ उन्हें उनकी जमीन के साथ
कदमों के आंकड़े गिनवातीं
वहाँ सभी कुछ ऊल-जलूल अवस्था में था
जैसे लताओं के सिरे उलझे हों आपस में
कितने ही पुरुषों की काया में
स्त्रियों की आत्मा निवास कर रही थी
और न जाने
कितनी ही स्त्रियों के पास पुरुषों की आत्मा थी
वे सभी स्त्री-पुरुष दुत्कारे जा रहे थे
क्योंकि केंद्र में काया थी
दुत्कारने का
यह खेल सदियों से चल रहा था
सब कुछ क्षणिक होते हुए भी
वे नाक के साथ जात बचाने में लगे थे
उन्होंने कहा-“हम बुद्धि के गेयता है।”
वे सभी मेरे लिए स्त्री थे न पुरुष
वे मात्र मेरी कथा के पात्रों के चरित्र थे
मैं स्वयं के लिए भी एक चरित्र थी
मेरी आत्मा
मेरी काया को पल-पल मरते देख रही थी
और पढ़ रही थी उसका चरित्र
भ्रम की नदी के पार उतरने
और खोने-पाने की होड़ से परे
उन दिनों की यह सबसे सुखद अनुभूति थी।
बुधवार, जून 19
भावनाएँ
भावनाएँ / अनीता सैनी
१८जून२०२४
……
ठस होती आत्मा में
भावनाएँ जब भी लौटती हैं
माथे पर
तिलिस्मी इन्द्रधनुष सजाए लौटती हैं
मानो तीरथ से लौटी हो
बखान भाव से परे
भावों में
छोटी-छोटी नदियों की निर्मलता
के साथ
उदगम में विलुप्त होने का भाव लिए लौटती हैं
पाँव में छाले, चंदन का टीका
हाथ में पंचामृत
मरुस्थल में पौधा सींचने
दौड़ती हुई आती हैं
कहती हैं-
“तुम्हारे घर के बंद किंवाड़ देखकर भान होता है
अस्त होता सूरज नहीं! हम तुम्हें डंकती हैं!!”
मंगलवार, मई 14
वह प्रेम में है
वह प्रेम में है /अनीता सैनी
१२मई२०२४
…….
तुम उसे
दुर्बल मत कहो
वह प्रेम में है
पाप-पुण्य से परे
माटी बीज मरने नहीं देती
वह अपनी कोख़ नहीं कुतरती
चिथड़े-चिथड़े हुए प्रेत डरौना को
जब तुमने खेत से उठाकर
आँगन में टाँगा था
तब भी उसने
तुम्हारी मनसा को मरने नहीं दिया
साँझ के साथ उसकी
बढ़ती-घटती डरावनी परछाइयाँ
देख कर भी उसने उसे
ज़िंदा रखा
एक ने
सिला था उसके लिए झिंगोला
चाँद पर बैठी
उस दूसरी स्त्री ने काता था सूत
यह उनके अधूरेपन में उपजे
अध्यात्म के पदचाप नहीं थे
उसकी
पूर्णता की दौड़ थी।
गुरुवार, अप्रैल 18
खँडहर
चलन को पता है
समय की गोद में तपी औरतें
चूड़ी बिछिया पायल टूटने से
खँडहर नहीं बनती
उन्हें खँडहर बनाया जाता है
चलन का जूते-चप्पल पहनकर
घर से कोसों-दूर
सदियों तक एक ही लिबास में
भूख-प्यास से अतृप्त भटकना
तृप्ति की ख़ोज
रहट का मौन
कुएँ की जगत पर बैठ
उसका
खँडहर, खँडहर… चिल्लाते रहना
खँडहर, खँडहर…का गुंजन ही
उसे गहरे से तोड़कर बनाता है
खँडहर।
…………..
खँडहर / अनीता सैनी
१५अप्रेल २०२४
शनिवार, अप्रैल 6
उदासियाँ
५अप्रेल२०२४
….
मरुस्थल से कहो कि वह
किसके फ़िराक़ में है?
आज-कल बुझा-बुझा-सा रहता है?
जलाती हैं साँसें
भटकते भावों से उड़ती धूल
धूसर रंगों ने ढक लिया है अंबर को
आँधीयाँ उठने लगीं हैं
सूखी नहीं हैं नदियाँ
वे सागर से मिलने गईं हैं
धरती के आँचल में
पानी का अंबार है कहो कुछ पल
प्रतीक्षा में ठहरे
बात कमाने की हुई थी
क्या कमाना है?
कब तय हुआ था?
उदासियों के भी खिलते हैं वसंत
तुम गहरे में उतरे नहीं, वे तैरना भूल गईं।
रविवार, मार्च 31
पाती
पाती / अनीता सैनी
३०मार्च २०२४
……
उस दिन पथ ने
पथिक को पाती लिखी
बेमानी लिखी न झूठ
सावन-भादो के गरजते बादल
सुबह की गुनगुनी धूप लिखी
मीरा के जाने-पहचाने पदचाप
बाट जोहती आँखें
वही विष के प्याले लिखे
पनिहारिन के पायल की आवाज़
कुछ काँटे कुछ पत्थर लिखे
थोड़े फूल और थोड़ी छाँव लिखी
और लिखा
स्मृतियों का पाथेय प्रतीक्षा को
प्रेम के गहरे रंग में रंग देता है
तुम प्रमाण मत देना
क्योंकि जितनी झाँकती है प्रीत
किवाड़ों और खिड़कियों से
उतनी ही तो नहीं होती
मौन ने भी लिखे हैं कई गीत
कई कविताएँ लिखी हैं अबोलेपन ने भी।
शुक्रवार, मार्च 1
खरोंच
खरोंच / कविता / अनीता सैनी
…….
हम दोनों ने
उदय होते सूरज को प्रणाम किया
दुपहरी होते-होते वहाँ से निकल गए
हमारा चले आना उनके लिए वरदान था
साँझ सफ़र में कई-दफ़'आ मिली
हमने रात नहीं देखी
रात के लुभावने रेखाचित्र देखे
उसने कहा-
“कभी मिलना हो रात्रि से
तब तुम ठहर जाना
शीतलता की गोद
उजाले का प्रमाण है वह।”
रात का भान भूल चुकी मैं
हमेशा उससे दुपहरी का ज़िक्र करती
दुपहरी मेरे रग-रग में बसी थी
जैसे बसा था मेरे हृदय में देहातीपन
मैंने कहा-
“देहाती स्त्रियाँ धतूरे-सी होती हैं
वह सिर्फ़
कविता-कहानियों में तलाशी जाती हैं।”
धतूरे के ज़िक्र से उसे
महाशिवरात्रि का स्मरण हो आया
समर्तियों की उड़ती धूल, किरकिरी
उसकी आँखों में रड़कने लगी
सहसा मुझे ख़याल आया
वह मरुस्थल में रहने का आदी नहीं था।
रविवार, फ़रवरी 25
प्रेम
हालाँकि उसके रास्ते कठिन और दुर्गम हैं
और जब उसकी बाँहें घेरें तुम्हें
समर्पण कर दो
हालाँकि उसके पंखों में छिपे तलवार
तुम्हें लहूलुहान कर सकते हैं, फिर भी
और जब वह शब्दों में प्रकट हो
उसमें विश्वास रखो
हालांकि उसके शब्द तुम्हारे सपनों को
तार-तार कर सकते हैं- खलील जिब्रान
फिर भी तुम्हें प्रेम को
जीवंत रखना होगा
वह मर जाता है
कुम्हल जाता है ततक्षण
इंतज़ार नहीं करता
उसे जीवंत रखना पड़ता है
कि जैसे-
साँझ में सिमट जाता है दिन
बेपरवाह हो डूब जाता है
तुम्हें डूब जाना होगा
ढलती रात उतर जाती है
होले-होले भोर के कंठ में
वैसे ही तुम्हें
प्रेम को उतार लेना होगा कंठ से हृदय में
प्रेम के गर्भ की समयावधि नहीं होती
कि तुम पा सको उसे प्रत्यक्ष
एकतरफ़ा आत्मा
जन्म जन्मांतर सींचती है
प्रेम सींचना ही पड़ता है
जैसे-
सींचता है अंबर पृथ्वी को
गलबाँह में जकड़े
वैसे ही तुम्हें
प्रेम को जकड़ लेना होगा गलबाँह में
सींचना होगा जन्म जन्मांतर।
रविवार, फ़रवरी 18
युद्ध
युद्ध / अनीता सैनी
…..
तुम्हें पता है!
साहित्य की भूमि पर
लड़े जाने वाले युद्ध
आसान नहीं होते
वैसे ही
आसान नहीं होता
यहाँ से लौटना
इस धरती पर ठहरना
मोगली का जंगल का राजा हो जाना जैसा है
पशु-पक्षी चाँद-सूरज और हवा-पानी
सभी उसका कहना मानते हैं
उसकी बातें सुनते हैं
दायरे में सिमटा
तुम्हारा
मान-सम्मान, मैं मेरे का विलाप व्यर्थ है
व्यर्थ है रिश्तों की दुहाई देना
व्यर्थ है
एक काया को सौगंध में बाँधना
व्यक्ति विशेष से परे
ये युद्ध
आत्माएँ लड़ती हैं
वे आत्माएँ
जो बहुत पहले
देह से विरक्त हो चुकी हैं।
रविवार, फ़रवरी 11
धोरों का सूखता पानी
धोरों का सूखता पानी / कविता / अनीता सैनी
….
उस दिन
उसके घर का दीपक नहीं
सूरज का एक कोर टूटा था
जो ढिबरी वर्षों से
आले में संभालकर रखी है तुमने
वह उसी का टुकड़ा है।
धोरों की धूल का दोष नहीं
सदियाँ बीत गईं
यहाँ! दुःख, पश्चात्ताप के पदचिह्न ही नहीं!
नहीं!! मिलते वे देवता
जो पानी के लिए पूजे जाते थे
इंसान ही नहीं!
पानी भी बहुत गहरे चला गया है
तुम! पूछो रोहिड़े से
कैसे बहलाता है?भरी दुपहरी में अपने मन को।
तुम! ये जो बार-बार
पानी में डुबोकर
कमीज़ झाड़ रहे हो न
इस पर काले पड़ चुके अश्रु नहीं धुलेंगे
उस लड़की के पिता ने कहा है-
“मैं पिछले दो दशक से सोया नहीं हूँ।”
मंगलवार, फ़रवरी 6
पीड़ा
पीड़ा / कविता / अनीता सैनी
६फरवरी २०२४
……
उन दिनों
घना कुहासा हो या
घनी काली रात
वे मौन में छुपे शब्द पढ़ लेते थे
दिन का कोलाहल हो या
रात में झींगुरों का स्वर
वे चुप्पी की पीड़ा
बड़ी सहजता से सुन लेते थे
प्रेम की अनकही भाषा पर
गहरी पकड़ थी
समाज के बाँधे बंधन
अछूते थे उसके लिए
यही कहा-
“तुम पुकारना, मैं लौट आऊँगा।”
परंतु जाते वक़्त सखी!
पुकारने की भाषा नहीं बताई।
शनिवार, जनवरी 27
सुनो तो
सुनो तो / अनीता सैनी
२६जनवरी २०२४
…..
देखो तो!
कविताएँ सलामत हैं?
मरुस्थल मौन है मुद्दोंतों से
अनमनी आँधी
ताकती है दिशाएँ।
पूछो तो!
नागफनी ने सुनी हो हँसी
खेजड़ी ने दुलारा हो
बटोही
गुजरा हो इस राह से
किसी ने सुने हों पदचाप।
सुनो तो !
जूड़े में जीवन नहीं
प्रतीक्षा बाँधी है
महीने नहीं! क्षण गिने हैं
मछलियाँ साक्षी हैं
चाँद! आत्मा में उतरा
मरु में समंदर!
यों हीं नहीं मचलता है।
सोमवार, जनवरी 22
तुम्हारे पैरों के निशान
तुम्हारे पैरों के निशान / अनीता सैनी
२०जनवरी २०२४
…..
उसने कहा-
सिंधु की बहती धारा
बहुत दिनों से बर्फ़ में तब्दील हो गई है
उसके ठहर जाने से
विस्मय नहीं
सर्दियों में हर बार
बर्फ़ में तब्दील हो जम जाती है
न जाने क्यों?
इस बार इसे देख! ज़िंदा होने का
भ्रम मिट गया है
दर्द की कमाई जागीर
अब संभाले नहीं संभलती
पीड़ा से पर्वत पिघलने लगे हैं
दृश्य देखा नहीं जाता
दम घुटता है
ऑक्सीजन की कमी है?
या
कविता समझ आने लगी हैं।