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गुरुवार, जनवरी 30

दिलों में बहती शीतल हवा मैं...हवा हूँ...



 विपदा में बैठी उस माँ की फ़िक्र हूँ, 
महक ममता की लहू में बहूँ  मैं, 
बेचैन बाबुल के दिल की दुआ हूँ, 
यादों में झलकता नयन-नीर  हूँ मैं,
 दिलों में बहती शीतल हवा मैं...हवा हूँ...

भाई से बिछड़ी बहन की राखी मैं, 
स्नेह-बंधन में बँधी नाज़ुक कड़ी हूँ, 
बचपन खिला वह आँगन की मिट्टी मैं, 
गरिमा पिया-घर की बन के सजी हूँ, 
दिलों में बहती शीतल हवा मैं...हवा हूँ...

प्रीत में व्याकुल मन की सदा हूँ,
 ख़ुशी की लहर विरह की तपिश मैं,
सावन-झड़ी में मिट्टी की ख़ुशबू हूँ,
रिश्तों में झलके वो ओझल कला मैं,
 दिलों में बहती शीतल हवा मैं...हवा हूँ...

 ग्वाले के गीतों में गाँव की शोभा हूँ,
प्रगति में ढलती रौनक शहर की मैं,
पतझड़ में उड़ती शुष्क पवन हूँ,
 सुकूँ का हूँ झोंका तपन रेत की मैं,
 दिलों में बहती शीतल हवा मैं...हवा हूँ...

थाल पूजा का कर-कमल की मौली हूँ, 
कलश-शीश सजी दूब-रोली मैं, 
चाँद निहारते चातक-सी आकुल हूँ
पावस ऋतु में सतरंगी आभा मैं,
दिलों में बहती शीतल हवा मैं... हवा हूँ...

©अनीता सैनी 

मंगलवार, जनवरी 28

मीरा बाई थी वह



थार की धूल में
 पावन बयार बन बही
अभिमंत्रित अविरल
अभिसंचित थी जग में
महकी कुडकी की
मोहक मिट्टी में
कान्हा-प्रेम के प्रसून-सी
प्रीत के पालने में पली
 मीरा बाई थी वह।

झील के निर्झर किनारे पर
गूँज भक्ति की 
अंतरमन को कचोटती 
व्याकुल कथा-सी थी वह । 

 जेठ की दोपहरी
लू के थपेड़ों में ढलती 
खेजड़ी की छाँव को
तलाशती तपिश थी वह । 

सूर्यास्त के इंतज़ार में
जलती धरा-सी 
क्षितिज के उस पार
आलोकित लालिमा-सी थी वह। 

अकल्पित अयाचित
उत्ताल लहर बन लहरायी 
 मेवाड़ के चप्पे-चप्पे में
चिर-काल तक चलती 
हवाओं में गूँजती
 प्रेमल साहित्यिक सदा थी वह। 

 जग के सटे लिलारों पर लिखी
प्रेम की अमर कहानी   
उदासी, वेदना, करुणा की
एकांत संगिनी थी वह । 

 पीटती लीक पगडंडियाँ-सी   
प्रीत की पतवार से खेती नैया
  लेकर आयी मर्म-पुकार 
 रेतीले तूफ़ान में 
स्पंदित आनंदित हो ढली 
 शीतल अनल-शिखा थी वह। 

   © अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, जनवरी 26

चौपाल में हुक़्क़े संग धुँआ में उठतीं बातें

                                         
                                  
बेचैनी में लिपटी-सी स्वयं को सबला कहती हैं,  
वे आधिपत्य की चाह में व्याकुल-व्याकुल रहती हैं, 
सुख-चैन गँवा घर का राहत की बातेंकर,  
वे प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में दौड़ा करती हैं। 

शिक्षित हो या अशिक्षित वाक शक्ति में श्रेष्ठ स्वयं को कह
 ख़ुद-ग़र्ज़ी की हुँकार भर शेरनी-सी दहाड़ा करतीं हैं,  
कमनीय काया का कोहराम मचाती जग में, 
कर्मों की दुहायी दे स्वयं को पल-पल छला करती हैं। 

सजग समझदार तर्कशील कहतीं ख़ुद को, 
वे अहर्निश जुगाली द्वेष की करती हैं, 
 मोह ममता छूटी मन से प्रीत की तलब में, 
वे परिभाषा सुख की नित नई गढ़ा करतीं हैं। 

इच्छाओं के पँख फैलाकर उड़ान सपनों की भरा करतीं हैं, 
वे बना स्वार्थ को  साथी स्वयं को छला करतीं हैं,   
स्वयं-सुख को धारण कर परिवार से विमुख हो, 
 दासी क्रोध की बन क़दमों से जीवन कुचला करतीं  हैं। 

घर-बाहर वे दौड़ लगातीं कँधे से कँधा मिलाकर चलतीं,  
सहतीं रहतीं जीवनपर्यन्त जीवन को उनके युग छला करते हैं,
हाल हुआ क्या नारी के नारीत्व का ठहाके लगा बातों की उलझन,
हुक़्क़े संग चौपाल में पुरुषार्थ को साध धुँआ में खोला करते हैं। 

©अनीता सैनी 

गुरुवार, जनवरी 23

गणतन्त्र दिवस पर मिट्टी हिंद की सहर्ष बोल उठी



मिट्टी हिंद की सहर्ष जय गणतन्त्र बोल उठी है 
मिटी नहीं कहानी आज़ादी के मतवालों की, 
बन पड़ी फिर ठण्डी रेत पर उनकी कई परछाइयाँ, 
   आज़ादी के लिये जिन्होनें साँसें अपनी गँवायीं थीं
कुछ प्रतिबिम्ब दौड़े पानी की सतह पर आये,
कुछ तैर न पाये तलहटी में समाये,
कुछ यादें ज़ेहन में सोयीं थीं कुछ रोयीं थीं, 
 कुछ रुठी हुई पीड़ा में अपनी खोयीं थीं, 
मिट्टी हिंद की सहर्ष  बोल उठी, 
मिटी नहीं कहानी वे छायाएँ-मिट पायी थीं। 

बँटवारे का दर्द भूलकर,
कुछ लिये हाथों में तिरंगा दौड़ रही थीं, 
अधिराज्य से पूर्ण स्वराज का, 
सुन्दर स्वप्न नम नयनों में सजोये थीं,
नीरव निश्छल तारे टूटे पूत-से,
टूटी कड़ी अन्तहीन दासता के आँचल की थीं,
लिखी लहू से आज़ादी की
 संघर्ष से उपजी वीरों की लिखी कहानी थी, 
मिट्टी हिंद की सहर्ष  बोल उठी, 
मिटी नहीं कहानी वे छायाएँ-मिट पायी थी। 

बहकी हवा फिर बोल रही,
बालू की झील में शाँत-सी एक लहर उठी,
नव निर्माण के नवीन ढेर निर्मितकर,
उत्साह जनमानस के हृदय में घोल रही, 
एकता अखंडता सद्भाव के सूत्र, 
पिरोतीं विकास की अनंत  आशाएँ थीं, 
धरती नभ समंदर से चन्द्रभानु भी कहता है, 
लिख रहा हर भारतवासी, 
ख़ून-पसीने से गणतन्त्र की नई इबारत है, 
मिट्टी हिंद की सहर्ष  बोल उठी है, 
मिटी नहीं कहानी वे छायाएँ-मिट पायी थी। 

©अनीता सैनी  

मंगलवार, जनवरी 21

आस है अभी भी


लड़खड़ाते हौसलों में हिम्मत, 
दूब-सा दक्ष धैर्य धरा पर है अभी भी, 
कोहरे में डूबी दरकती दिशाएँ,  
नयनों में उजले स्वप्न सजोते हैं अभी भी, 
रक्त सने बोल बिखेरते हैं  हृदय पर, 
जीने की ललक तिलमिलाती है अभी भी । 

कश्मकश की कश्ती में सवार,  
तमन्नाओं की अनंत कतारें हैं अभी भी,  
बिखरी गुलाबी आँचल में, 
 सुंदर सुमन अलसाई पाँखें हैं अभी भी, 
सुरमई सिंदूरी साँझ में, 
विहग-वृन्द को मिलन की चाह शेष है अभी भी । 

घात-प्रतिघात शीर्ष पर, 
इंसानीयत दिलों में धड़कती है अभी भी,  
नयनों के झरते खारे पानी में , 
दर्द को सुकून मिलता है अभी भी,  
उम्मीदों के हसीं चमन में फूलों को 
 बहार आने की अथक आस है अभी भी । 
© अनीता सैनी 

रविवार, जनवरी 19

मैंने देखा है तुम्हें



 मैंने देखा ता-उम्र तुम्हें, 
   ज़िंदा है इंसानीयत तुममें आज भी, 
तुम निडर साहसी और बहादुर हो,  
इतने बहादुर कि जूझते हो स्वयं से ,   
तलाशते हो हर मोड़ पर प्रेम। 

 महसूस किया है तुम्हारे नाज़ुक दिल को मैंने 
अनगिनत बार छलनी होते हुए, 
 समाज के अनुरुप हृदय को ढालते,  
जतन पर जतन सजाते,  
स्वयं की सार्थकता जताते हुए। 

तुम्हारे कन्धों में सामर्थ्य है, 

सार्थक समाज के सृजन का, 
ऊबना भयावह सच की देख तस्वीर, 
तुम चलना मानवता के पथ पर, 
अपना कारवाँ बढ़ाते हुए। 

स्वार्थसिद्धि के उड़ते परिंदे हैं परिवेश में,  
तुम्हें विवेक अपना जगाना होगा, 
न पहनो मायूसी का जामा, 
रोपने होंगे तुम्हें बीज ख़ुशहाली के,  
दबे-कुचलों को राहत का मरहम लगाते हुए। 

©अनीता सैनी 


शुक्रवार, जनवरी 17

बर्फ़-सी पिघलती है पिपासा



वाक़िया एक रोज़ का... 
सँकरी गलियों से गुज़रता साया,
छद्म मक़सद के साथ था, 
कुछ देखकर अनायास ठिठक गया। 

राम के नाम पर विचरते  राहू-केतू,

आज नक़ाब चेहरे का उतर गया,
है अमर ज्योति गणतंत्र की वहाँ, 
दबे पाँव दहशत का अँधेरा उस राह पर छा गया। 

स्वतंत्रता की उजली धूप में मानुष, 
अँगूठा अपना दाँव पर लगा  रहा,  
पसार दिया अपना हाथ मैंने भी,
  उन्मादी मस्तिष्क नजात दर्द से पा गया। 

 कतार का हिस्सा बन झाँकती जहां में,

 उसी कतार से नाम अपना मिटा रही, 
बदलेगी दुनिया आत्ममंथन के बाद,  
नये चेहरों को कतार का मुखिया बना रही।  

बर्फ़-सी पिघलती है पिपासा मेरे मन में,
 कलकल बहती झरने-सी साँसों में, 
भरी अँजुरी से झरती देख भविष्य को, 
 पैरों से लिपट सार्थकता अँगूठे की बता रही। 

ज़िंदा हूँ मैं ज़िन्दगी मुझसे पूछती, 

ख़ामोशी में चेतना बन वह साया विहरता, 
पसारा था हाथ अवसाद में बनी आत्मवंचना
रोम-रोम उस मोड़ पर सिहरता रहा।  

©अनीता सैनी 

बुधवार, जनवरी 15

सफ़ेदपोशी



वे सजगता की सीढ़ी से, 
 क़ामयाबी के पायदान को पारकर,  
अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से, 
सुख का आयाम शोषण को बताने लगे। 

सुन्न हो रहे दिल-ओ-दिमाग़,   

दर्द में देख मानव को मानव अट्टहास करता, 
सूख रहा हरसिंगार-सा हृदय, 
पारस की चाह में स्वयं पत्थर-से बनने लगे। 

मूक-बधिर बनी सब साँसें, 

 सफ़ेदपोशी नींव पूँजीवाद की रखने लगी,  
आँखों में झोंकते सुन्दर भविष्य की धूल, 
अर्जुन-वृक्ष-सा होगा परिवेश स्वप्न समाज को दिखाने लगे। 

आत्मता में अंधे बन अहं में डूबते, 

 ख़ामोशी से देते बढ़ावा निर्ममता को , 
आत्मकेन्द्रित ऊषा की चंचल अरुणावली से, 
जग का आधार सींचने लगे। 

सौंदर्यबोध के सिकुड़ रहे हों  पैमाने,  

दूसरों का भी हड़पा जा रहा हो आसमां,  
तब खुलने देना विवेक के द्वार, 
ताकि पुरसुकून की साँस मानवता लेने लगे। 

© अनीता सैनी 

शुक्रवार, जनवरी 10

जिजीविषा की नूतन इबारत



अविज्ञात मलिन आशाओं को समेटकर, 
अनर्गल प्रलापों से परे,  
विसंगतियों के चक्रव्यूह तोड़कर, 
जिजीविषा की नूतन इबारत, 
मूल्यों को संचित कर वह लिखना चाहती है। 

भोर में तन्मयत्ता से बिखेरती पराग, 

विभास से उदास अधूरी कल्पना छिपाती, 
सुने-अनसुने शब्दों को चुन प्रसून महकाती, 
नुकीले कंटकों को सहते हुए वह मुस्कुराना चाहती है। 

कोहरे का कौतुहल मुठ्ठी में छिपा हिलमिल, 

प्रीत गीत गाती ग़लीचे में धूप को बातों में उलझाती,   
शबनम की उलझन मख़मली घास से सुन,  
नेह को निथार कर वह  सँवरना चाहती है। 

ज़िंदगी की झूलती डाल को धीर मन से थामे 
व्याकुल हृदय मुख पर आच्छादित भावशून्यता का 
अधीर आवरण गढ़े 
सुगढ़ अर्थवान शब्दों  की परवाज़ लिये, 
जतन की आवाज़ बन वह जीना चाहती है। 

©अनीता सैनी 

गुरुवार, जनवरी 9

मन भीतर यही आस पले



मन भीतर यही आस पले,  
प्रणय की आँधी चले, 
  थार के दिनमान जगे,   
मन संलग्नता से,  
विधि का आह्वान करे,  
अनल का प्रकोप रुठे,  
प्रकृति ज़िंदा न जले,  
सघन वन पर नीर बहा, 
गगन हरी देह धरा की करे। 

धूल भरी घनी काँटों से सनी, 
 गहरी शाब्दिक चोट,  
वेदना की टीसों के स्थान, 
तन्मयता से परस्पर, 
उनींदे प्रेम के निश्छल,  
पुरवाई के झोंकों से भरे।  

तुषार-सी शीतल निर्मल, 
वाक-शक्ति मरुस्थल की,  
ऊँघती संध्या-लालिमा-सी, 
अधमींची आँखों पर ठहरे, 
क्षुद्रता का अभिशाप हर, 
पलकों का बन सुन्दर स्वप्न,  
नन्हीं झपकी की गठरी बने, 
जीवन जीव का फूलों-सा, 
हृदय सरिता-सा झरे। 

©अनीता सैनी 


बुधवार, जनवरी 8

आदमी इंसान बनना चाहता



अदब से आदमी,आदमी होने का ओहदा, 
आदमीयत की अदायगी आदमी से  करता,  
आदमी इंसानियत का लबादा पहन,  
स्वार्थ के अंगोछे में लिपटा इंसान बनना चाहता। 

सूर्य के तेज़-सी आभा मुख मंडल पर सजा,  

ज्ञान की धारा का प्रारब्धकर्ता कहलाता,  
सृष्टि का लाडला सृष्टि को तबाह करने को उतारु,  
बुद्धि की समझ से आधुनिकता का पाठ पढ़ाता। 

जीवन मूल्यों की नई पहचान गढ़ता, 
स्वाभिमान के रुप में हथियार अहंकार का रखता,   
 रोबोट बनने की चाह में स्वयं को हैवान बन गँवाता,  
दुनिया को तबाही का भयावह मंज़र दिखाना चाहता। 

 ©अनीता सैनी 


रविवार, जनवरी 5

राजस्थान के शहर कोटा में



ज़िम्मेदारी के अभाव का घूँट, 
अस्पताल का मुख्यद्वार पी रहा,  
व्यवस्था के नाम पर, 
दम तोड़तीं टूटीं खिड़कियाँ,  
दास्तां अपनी सुना रहीं, 
विवशता दर्शाती चौखट,  
दरवाज़े को हाँक रही, 
ख़राब उपकरणों की सजावट,  
शोभा बेंच की बढ़ा रही, 
 लापरवाही की लीपापोती,  
प्रचार में हाथ स्टाफ़ का बढ़ा रही,  
ऑक्सीजन के ख़ाली सिलेंडर, 
उठापटक में वक़्त ज़ाया कर रहे,  
इमरजेंसी वार्ड की नेम प्लेट,  
रहस्य अपना छिपा रही,  
मरीज़ों की विवशता तितर-बितर, 
सर्द हवा में गरमाहट तलाश रही, 
पलंगों का अभाव, 
मरीज़ों के चेहरे बता रहे,  
चूहे-सुअर आवारा पशुओं का दाख़िला,  
बिन पर्ची सुनसान रात में हो रहा, 
राजनेता सेक रहे,   
सियासत की अंगीठी पर हाथ,  
पूस  की ठिठुरती ठंड में, 
नब्ज़ में जमता नवजात रुधिर, 
ठिठुरन से ठण्डी पड़ती साँसें, 
मासूमों की लीलती जिंदगियाँ, 
राजस्थान के शहर  कोटा में, 
अपंग मानसिकता का,  
अधूरा कलाम सर्द हवाएँ सुना रहीं। 

© अनीता सैनी  

शनिवार, जनवरी 4

दुआ में



परमार्थकारी पारिजात के फूलों-सा, 
सजायेंगे सलौना आशियाना, 
गुमनाम ग़मों से करेंगे सुलह, 
 नीड़ को निखार राह में स्नेहल फूल बिछायेंगे,  
प्रीत के पवित्र पथ से गुज़रना, 
अधरों पर मधुर मुस्कान सजायेंगे,   
ऐ  साहेब ! राह न भटकना जुगनू-सी चमक लिये
 ज्योतिर्मय जीवन हम जगमगायेंगे। 

सूनी पथरीली पगडंडियों पर, 
दूब पाँव के छाले सहलाएगी, 
जलते परिवेश को शीतल करने नील गगन में, 
 अब्र दुआ के उमड़ आयेंगे, 
रातरानी की मादक महक बढ़ाएगी,  
यामिनी का रहस्य, 
ज्यों मिलता है तम से घनघोर तम 
धरती-व्योम प्रेम यों बढ़ाएंगे। 

सफ़र में हो अलौकिक आलोक, 

 लौ प्रियतम प्रीत की उस सफ़र में जलायेंगे,   
आस  प्रज्ज्वलितकर जीवन पथ पर, 
तिमिर का सोया भाग्य जगायेंगे,  
तुम्हारी पाकीज़ा मुस्कान को, 
छू न पाये फ़रेब, 
दुआ में उठेंगे अनगिनत हाथ 
सज़दे में ख़ैरियत तुम्हारी उस ख़ुदा से चाहेंगे। 

© अनीता सैनी 


शुक्रवार, जनवरी 3

कलावन्त विहान में लीयमान



सुख-समृद्धि यश-वैभव दयावंत,  
वैभवचारी-सा चतुर्दिश सत-उजियारा,  
प्रिय प्रीत में प्रतीक्षामान थीं,   
उत्सुक आँखें अनिमेष भोर कीं,  
तन्मय-सी ताकती तुषार-बूंदें,  
मोहक नवल नव विहान को। 

खग-वृंद के कलनाद में अतृप्त,  

अनवरत ऊँघती अकुंचित व्याकुलताएँ,    
नादमय उन्मुक्त संसृति स्मृति,  
गूँजती घन घटाओं के आँगन में,  
पुनीत पल्लव कुसुमन पुलकित,  
क्षण-क्षण हुए शून्य में भाव-विभोर। 

 कृपापात्र छलका व्योम नैनन में, 
 निशा निश्छल थी अभिमन्त्रित,  
अनथक कामना लिये  हृदय में,
  नवांकुर प्रभामय पुलकित प्रभात,  
प्रीतप्रवण-सा शब्दविहीन था गुँजन,   
कृतकृत्य कलावन्त विहान में लीयमान। 

©अनीता सैनी 


बुधवार, जनवरी 1

बदलने लिबास वह जा रहा है



  दिन, सप्ताह, महीने  और वर्ष, 
आग़ोश में समेटे 2019 जा रहा है, 
शिकवा न शिकायत, 
जख़्म अनगिनत सीने पर लिये जा रहा है। 

 इबादत इंसानियत की मक़बूल किये, 

 बदलने स्वरुप इस जहां का जा रहा है,  
 2019 का अक्स 2020 को  कह पुकारेंगे,   
यही आँकलन समय किये जा रहा है।  

बदल रहा है धरा पर मानव, 
बदलने लिबास समय जा रहा है,  
क्षमाशीलता की ईख सृष्टि के, 
 हाथों में थमा परखता इंसां को जा रहा है। 

 ©अनीता सैनी