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शनिवार, नवंबर 28

चलिए कुछ विचार करते हैं

 

कृषि प्रधान
 कहे जाने वाले भारत  देश में 
जब किसानों का
 निवाला छीना जाता है 
बेहतर है 
इन्हें  मर जाना चाहिए।

कुछ  विचार करते हैं 
 मिल-बैठकर, समर्थन चाहिए!
अगर ये ऐसे नहीं मरते हैं   
इन्हें मिलकर मारते हैं  
ठंड को कह तुड़वा दे हड्डी या 
 कोरोना को कहे सीने पर बैठ जाए!

या फिर मूक-बधिर बन
  टी.वी. पर आँखें गड़ातें हैं 
नेताओं की रैली पर 
गुलाब के फूल बरसाते हैं  
 खेतिहर पर ठंडा पानी डाल
  तमाशा देखते हैं।

चलिए !  
चुपके से एक क़ानून बनाते हैं  
कुछ झूठ 
कुछ सच मिलकर फैलाते हैं  
नासमझ को नादानी में डुबोते हैं।

कहो तो मूर्खता को
 समझदारी के पैर लगाते हैं  
 फिर भी न मरे उन्हें 
 राजनीति की कसौटी पर कसते हैं  
चलो ! कुछ और न सही 
ग़रीबी की रस्सी बना गला घोंटते हैं।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, नवंबर 26

एक साया


 मैने देखा एक साया 

उड़ते खग की परछाई-सा 

अतृप्ति का भाव  दुखों को ओढ़े 

सागर-सा सूनापन सुषुप्तावस्था में 

तनाव की दरारों से शब्द बन झाँकता।


काल के क़दमों से तेज़  

तीव्र  वेग से दौड़ता कुंठित मन-सा 

सूखे पात-सा लिप्सा में लीन 

 तृष्णा  की टहनी पर बैठा 

 काया को कलुषित करता।

 

 दोष रुपी असंख्य रोगों को 

   आग़ोश में भरता 

  चिंता रुपी ज्वर से ग्रसित 

  मनवीय मूल्यों का हनन करता 

  नित नई संर्कीणता धारण करता।

  

 मन के कहे को गुमान से करता 

  विकराल रुप कुकर्मों का धरता 

 षड्यंत्र रुपी गुफा गढ़ता 

 भ्रम की पट्टी आँखों पर बाँधे 

 स्वयं सिद्धता दर्शाने आतुर रहता।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

मंगलवार, नवंबर 24

मूरत मन की

प्रसिद्द गायिका, संगीतकार एवं वरिष्ठ ब्लॉगर आदरणीया शुभा मेहता दीदी ने मेरे नवगीत 'मूरत मन की ' को अपना मधुर स्वर देकर संगीतबद्ध किया है। आदरणीया दीदी के स्वर में अपना नवगीत सुनकर मन भावविभोर हो गया।
आदरणीया शुभा दीदी का स्नेह और आशीर्वाद सदैव मेरे साथ बना रहे।
आप भी सुनिए मेरा नवगीत आदरणीया शुभा दीदी के सुमधुर कंठ से निसृत कर्णप्रिय स्वरलहरी-


मूरत मन की  पूछ रही है, 

नयनों से लख-लख प्रश्न प्रिये,

 जीवन तुझपर वार दिया है,

साँसें पूछ रहीं हाल प्रिये। 


समय निगोड़ा हार न माने,

पुरवाई उड़ती उलझन में,

पल-पल पूछूँ हाल उसे मैं,

नटखट उलझाता रुनझुन में

कुशल संदेश पात पर लिख दो,

चंचल चित्त अति व्याकुल प्रिये।। 


भाव रिक्त कहता मन जोगी,  

नितांत शून्य आंसू शृंगार,

भाव की माला गूँथे स्वप्न,

चेतन में बिखरे बारबार,

अवचेतन सँग गूँथ रहीं हूँ, 

कैसा जीवन जंजाल प्रिये।।


सीमाहीन क्षितिज-सी साँसें,

तिनका-तिनका सौंप रही हूँ,

आकुल उड़ान चाह मिलन की,

भाव-शृंखला भूल रही हूँ,

सुध बुद्ध भूली प्रिय राधिका, 

कैसी समय की ये चाल प्रिये।।

© अनीता सैनी

शनिवार, नवंबर 21

जन्मदिवस पर


लोरी

सोजा रानी गुड़िया रानी
माँ मीठी लोरी गायेगी 
चाँद चंदनिया झर झर करके
चंदन पलने बिछ जायेगी।।

तितली सी तू सोन परी है
मेरे घर की राजकुमारी।
फूलों जैसी कोमल कलिका
बाबा की ओ राज दुलारी।
हर करवट पर घुंघरु बजते
पायल झनकार सुनाएगी।।

चाँद चंदनिया झर झर करके
चंदन पलने बिछ जायेगी।।

तारों जड़ी चुनरिया सुंदर
ओढ़ नींद अब आती होगी।
उड़न खटोले में चढ़ कर तू
परीलोक तक जाती होगी।
चंदा के झूले पर चढ़कर
वही निंदिया फिर आयेगी।।

चाँद चंदनिया झर झर करके
चंदन पलने बिछ जायेगी।।

चंदा मामा खिड़की बैठा
ताक रहा है कब से नटखट
सो जाएगी जब तू बिटिया
किरणें लेकर जाए चटपट
बादलों की डोली चढ़ाके
तूझको बहुत हँसायेगी।।

चाँद चंदनिया झर झर करके
चंदन पलने बिछ जायेगी।।

कुसुम कोठारी'प्रज्ञा' 
--


जन्मदिवस पर 

तुम्हारी अनुपस्थित में 
कमज़ोर नहीं पड़े ममता के तार 
वात्सल्य ने गूँथा था पलना 
स्वप्न-डोर थामी थी चाँद-सितारों ने 
झुलाया था प्रीत ने झूला।

ख़ुशियोंभरा माहौल 
 आशीर्वाद आशीषमय मंज़र 
उपहारों का लगा था अंबार 
संगीत में गूँजते आँगन के 
 थिरक रहे  थे पाँव।
 
हँसी की झीनी चादर ओढ़े 
दायित्त्वपूर्ण आभास 
 लिए सुकून के मोती मुट्ठी में 
पलकों पर कुछ दृश्य अविस्मरणीय 
गुनगुना रहे थे  गान।

मन मायूस न था बेटी का 
नज़रें गूँथ रहीं थीं एक संसार 
भेंट नहीं मन्नत में माँगी थी दुआ 
अगले जन्मदिवस पर हो 
शीश पर तुम्हारा हाथ

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, नवंबर 19

बेटी बेल बाबुल आँगन की


जन्मदिवस एक विशिष्ट दिन जब शुभकामनाओं का अंबार लग जाता है।अपनी बिटिया के जन्मदिवस पर उसको समर्पित लोरी लिखकर मन को बड़ा सुकून मिला।
वरिष्ठ ब्लॉगर एवं जानी-मानी लेखिका, नवगीतकार 
आदरणीया कुसुम कोठारी जी ने इसे स्वर देकर अनूठा बना दिया है।
 आप भी सुनिए आदरणीया कुसुम दीदी की मधुर आवाज़ में इस प्यारी-सी लोरी को-


धींव बेल बाबुल अँगना की 
हिय धड़कन नैना बस जाए 
वैण मधुर तुलसी से पावन 
मन किसलय मधु रस छलकाए।।

पल्लव प्रीत सृजक धरणी-सी
चपल चंद्रिका आँगन चमके
कच्ची नींद  स्वप्न नैनन का 
मुखड़ा चंदा जैसा दमके
कुसुम कली-सी मंजुल मोहक
सुता तात बग़िया महकाए ‌।।

भाल तिलक रोली-सी सजती
होंठों की है वो स्मित-रेखा
नाज़ुक धागा बँधन स्नेह का 
मुक्ता जैसी जीवन लेखा
अमूल्य रत्न दुआ बन बरसे
प्रेम-पंथ दूर्वा लहलाए।।

उजली किरण भोर की बेला
अंतस उजियारा जुगनू-सी
आभा बन बिखरी जीवन में 
जगी आस झलकी टेसू-सी 
अल्पना देहरी पर रचती
ज्यों साँझ दीपक झिलमिलाए।।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

मंगलवार, नवंबर 17

कौन हूँ मैं ?


कौन हूँ मैं ?
पुकारने पर यही प्रश्न 
लौट आता है।
स्वयं को जैसे आज 
भूल चुकी हूँ।
ज़रुरत कहूँ कि ज़िम्मेदारी 
या  नियति का खेल।
कभी-कभी मैं एक 
पिता का लिबास पहनती हूँ 
कि अपने बच्चों की 
ज़रूरतों के लिए दौड़ सकूँ।
कभी-कभी ख़ामशी ओढ़े
मूर्तिकार का लिबास पहनती हूँ।
  कलेजे पर पत्थर रख
उन्हें दिन-रात तरासती हूँ। 
  कभी-कभी ही सही
कुछ देर के लिए 
  मैं एक माँ का लिबास पहनती हूँ ।
उन्हें ख़ूब लाड़ लड़ाती हूँ।
  सरल स्वभाव के साथ
प्रेम का मुखौटा लगाती हूँ।
  अपनी माँ को यादकर 
उसके पदचिह्नों पर चलती हूँ  
कि अपने बच्चों के लिए 
ख़रीद सकूँ ख़ुशियाँ।
कभी-कभी मैं 
ज़मीन से भी जुड़ती हूँ 
खेतिहर की तरह।
ख़ूब मेहनत करती हूँ 
कि पिता-पति के लिए ख़रीद सकूँ 
मान-सम्मान और स्वाभिमान।
परंतु फिर अगले ही पल 
स्वयं से यही पूछती हूँ 
कौन हूँ मैं ?

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

शुक्रवार, नवंबर 13

सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे लिए


थक-हारकर
 जब सो जाती है पवन 
दीपक की हल्की-सी लौ में 
मिलने आतीं हैं 
बीते लम्हों की 
कुछ हर्षित परछाइयाँ 
चहल-पहल से दूर 
ख़ामोशी ओढ़े एक कोने में 
कुछ सुनतीं हैंं  
कुछ सुनातीं हैं 
स्वप्न सजाए थाल में 
 बीते पलों के कुछ मुक्तक 
लिए आतीं हैं गूँथने
  हरी दूब-सा खूबसूरत हार 
चाँदनी रात में
 बरसती धुँध छानती हैं 
कुछ भूली-बिसरी स्मृतियाँ 
तुषार बूँदों में भीगे 
मिलने आ ही जाते हैं 
कुछ अविस्मरणीय दृश्य 
हाथों पर धरे अपने 
 अनमोल उपहार 
सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे लिए।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

बुधवार, नवंबर 11

आँखोड़ा


आँखों पर आँखोड़ा 
खुरों में लोहे की नाल को गढ़ा 
दौड़नेवाले की पीड़ा का आकलन नहीं 
दौड़ानेवाले को प्राथमिकता थी।

क्यों का हेतु साथ था ?
किसने बाँधी विचारों की ये पट्टी ?
प्रश्न का उत्तर ज़बान पर
हाथ में फिर वही प्रश्न  था।

ऊँघते हालात का देते तक़ाज़ा 
खीझते परिवर्तन के साथ दौड़ना
चुप्पी साधे समझ गंभीरता ओढ़े  
बुद्धि का यह खेल अलबेला था।

सदियों पहले जिसने भी बाँधी हो ?
कर्ता-कर्म बदले विचारों का भार वही 
समय के साथ रियायत मिली
चमड़े का पट्टा थ्री डी प्रिंट में था।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, नवंबर 8

ठग


गाँव के बाहर पीपल के नीचे 
अँधेरी रात में ओढ़े चाँदनी कंधों पर 
मुखमंडल पर सजाए सादगी की आभा 
शिलाओं को सांत्वना देता-सा लगा।

मुँडेर पर बैठा उदास भीमकाय पहर 
सूनेपन की स्याह काली रात में बदला लिबास 
षड्यंत्र की बू से फुसफुसाती पेड़ की टहनियाँ 
गाँव का एक कोर जलाता-सा लगा।

मूँदे झरोखों से झाँकती बेकारी की दो आँखें 
ज़माने के ज़हरीले धुँए का काजल लगाए 
मनसा की मिट्टी से लीपता मन की दीवार 
सपनों को चुराता चतुर लुटेरा-सा लगा।

प्रभाव प्रभुत्त्व समय के सितारों का साथ 
नासमझ ग्वाले उनकी समझ के दोनों हाथ 
कंबल में छिपाए सिक्के उनकी  खनक 
छद्म वाक्चातुर्यता ओढ़े ठगी वंचक-सा लगा।

प्रभात की आँखों से निकलते लाचारी के रेसे 
साँझ के हृदय में पनपती उम्मीद से लिपटते 
 सिमटती माया का सिलसिला समय अंतराल में 
ठग चेहरा दाढ़ी में छुपाता-सा लगा।

@अनीता सैनी  'दीप्ति'

गुरुवार, नवंबर 5

तुम्हारी याद में



यादों का आसमान 
स्मृतियों की दहलीज़  
अधखुले दरीचे से झाँकता चाँद 
तुम्हारी याद में।

मन की वीथियाँ  को
एहसास के ग़लीचे से सजाया 
भावनाओं के गूँथे बेल-बूँटे 
ख़ुशियों की झालर लगाई 
तुम्हारी याद में।

बिखरी बेचैनियों को 
लिबास दुल्हन का पहनाया 
मेहंदी-काजल से की मनुहार 
सिसकती चुप्पी को मनाया 
तुम्हारी याद में।

आँखों के खारे पानी से 
नित-नित धोए पैर रंगरेज़ समय के 
चाँदनी भर-भर अँजुरी में निखारा 
 जीवन का सारा अंह हारा 
तुम्हारी याद में।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, नवंबर 1

तुम देखो !

स्वच्छंद  आसमान तुम्हारा है 
नहीं है पंखों पर बंदिशों की डोर 
हवा ने भी साधी है चुप्पी 
गलघोंटू नमी का नहीं कोई शोर  
व्यथा कहती साहस से
तुम उल्लास बुन सको तो देखो!

समय बदला  बदले हैं सरोकार 
ऊँघते क़दमों की बदली है तक़दीर 
खेत-खलिहान से निकल धूल मिट्टी से सनी
आँखों ने बुने हैं स्वप्न रुपी संसार 
मेघाच्छादित गगन  गढ़ता है गरिमा 
तुम उत्साह उड़ान में भर सको तो देखो!

डैनों में उड़ान संयम बाँधती पंजों से 
तिनका-तिनका समर्पित साथी को 
मासूम चिड़िया है बहुत नादान 
डाल-डाल पर गूँथती आशियाना 
घरौंदों में भी सुरक्षित नहीं है गौरिया 
तुम कवच बन कठोरकर सको तो देखो!

माँ की हिदायतों में उलझी चहचहाती 
कोरे आकाश को घूर-घूर रह जाती 
साँझ ढले घर-आँगन  में लौट आना 
दोपहर में दानव भटकते गलियों में 
बारिश में न भीगना तेज़ाब है बरसता  
तुम मन को मार रस्सी से बाँध सको तो देखो !

@अनीता सैनी 'दीप्ति '