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रविवार, अगस्त 30

गुज़रे छह महीने



गुज़रे छह महीनों ने पी है अथाह पीड़ा 
 पिछले सौ साल की त्रासदी की।
पीली पड़ चुकी है छरहरी काया इनकी 
हर दिन की सिसकियाँ सजी हैं ज़ुबाँ पर।

तुम्हें देख एक बार फिर हर्षाएँगे ये दिन  
छिपाएँगे आँखों के कोर में खारा पानी।
कभी काजल तो कभी सुरमा लगाएँगे 
बिंदी बर्दास्त न करेगी तुम्हें हर बात बताएगी। 

इनकी ख़ामोशी में तलाशना शब्द तुम 
मोती की चमक नहीं सीपी की वेदना समझना तुम। 
छह महीने देखते ही देखते एक साल बनेगा 
पड़ता-उठता फिर दौड़ता आएगा यह वर्ष 
इसकी फ़रियाद सुनना तुम।

भविष्य बन मिलोगे यायावर की तरह तुम 
कुछ पल बैठोगे बग़ल में अनजान की तरह। 
ये दिन-महीने तुम्हें अपने ज़ख़्म दिखाएँगे
  मरहम लाने का बहाना बनाकर
 उन्मुक्त पवन की तरह बह जाओगे तुम। 

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

मंगलवार, अगस्त 25

बाढ़


अखबार के खरदरे पन्नों की 
हैडिंग बदली न मौलिक तस्वीर 
कई वर्षों से ढ़ोते आए हैं ये  
बाढ़ के  पानी का बोझिल भार 
न पानी ने बदला रास्ता अपना  
न बहने वालो ने बदले घरों ने द्वार  
प्रत्येक वर्ष बदलती पानी की धारा 
कभी पूर्व तो कभी पश्चिम 
 बिन बरसात ही डूबते घर-बार  
 निर्बोध मन-मस्तिष्क
 देह के अस्थि-पिंजर बह जाते   
कटाव समझ के वृक्ष का होता
 आदि-यति सब बहते साथ   
कुछ बंजारे बीज संघर्ष के बोते 
 कुछ खोते जीवन की सूक्ष्म मेंड़ 
 न उठ पाते न उठने देते नियति के फेर 
उमसाए सन्नाटे में बढ़ी बाढ़ की डोर ।

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, अगस्त 20

बड़प्पन की मुंडेर


 बड़प्पन की मुंडेर पर बैठा है 
 आत्ममुग्ध गिद्धों का कारवाँ  
 नवजात किसलय नोंचते हुए 
लोक-हित क्षेत्र से वंचित करते 
कहते वर्जित अधिकार हैं आज 
  नज़रिए पर इतराते नज़र झुकाए क्यों हैं? 

दूब की नाल-सा फलता-फूलता 
वर्तमान के प्रगति पथ पर 
संर्कीणता का मनमाना राज्य 
जनता पर करते दोहरे अत्याचार 
की भारत की ऐसी हालत 
आबरु लुटा बेहयाई से विचरते क्यों हैं?

शर्म-हया व्यापार में लुटाई 
किसी की गर्दन दबोचने में व्यस्त 
 किसी के बाँधते हाथ-पैर 
ज़बान पर चुप्पी की मोहर का मंडन 
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीनते 
रसूख़दारों के उसूल भी बिकते क्यों हैं? 

 हवा में मनमानी का जोश 
 जनतंत्र जंज़ीरों में जकड़ा 
रौब के  उठते धुएँ में 
बर्फ़-सी पिघलती मानवता 
 भविष्य आज़ादी के लिए 
दुआ में उठाता हाथ तड़पता क्यों है? 

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

बुधवार, अगस्त 19

बिछुए


अनिर्वचनीयता
 आदर्श कृति में दृष्टि अंतर्मुखी 
जीवन मूल्यों की धनी 
ज़बान पर सुविचार  रखती 
संस्कार महकते देह पर 
अपेक्षा की कसौटी पर सँवरती 
सतकर्म हाथों में पहन  
मृदुल शब्दों का दान करती 
उलझनें पल्लू में दबा 
आँगन में चिड़िया-सी चहकती 
कोने-कोने से बटोरती प्रीत 
कभी पेट पकड़ भूखी सो जाती 
इच्छा की मौली बाँधते रिश्ते 
मनोकामना बन बरसती 
है संवेदनाओ से भरा कुंभ   
पथरीली डगर पर डग भरती 
संयोग में हर्षाती 
वियोग में विरहणी बन मुरझाती  
अँगुलियों में उलझे  बिछुए-सा 
नित-नित भाग्य अपना बटोरती।

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, अगस्त 16

घर से भागा लड़का



घर से भागा लड़का खो देता है 
जीवन भर का परिवार में कमाया विश्वास।
नकार दिए जाते हैं उतरन की तरह वह और 
 महत्वपूर्ण मुद्दों पर रखे उसके विचार।
अविश्वास की नज़रें घूरती हैं उल्लू की तरह 
 फ़रेबीपन का करवाती हैं एहसास।

जुड़ नहीं पाता अपने परिवार की जड़ों से 
खो देता है हक़ जिसका वह है हक़दार।
मल लेता है वह अपनी ही देह पर मटमैले दाग़  
और ज़िंदगी भर धोता रहता है निष्ठा के घोल से।
घर से भागा लड़का अभागा होता है।
अपने ही बनाए दायरे में खड़ा स्वयं से जूझता है। 

जीवन मूल्यों से बिछड़ बिखर जाता है 
गिर जाता है सफलता के एक और पायदान से।
समाज के वे तत्त्व भी अदृश्य हो जाते हैं 
जिन्होंने भागने में दिया था कभी उसका साथ। 
घर से भागा लड़का अंत में एक घर बसाता है 
और खटकने लगता है अपने परिवार की आँखों में।

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

बुधवार, अगस्त 12

बादल का एक टुकड़ा



मरुस्थल की अँजुरी में बैठी थी 
गुमान का ओढ़े ग़ुबार नागफनी। 
संघर्ष से जूझती स्वयंसिद्धा बन पनपी 
जिजीविषा का उदाहरण थी नागफनी।

बादल का एक टुकड़ा रोज़ साँझ ढले 
मरुस्थल को लाँघता हुआ गुज़रता।
कभी कपास से नहाया हुआ-सा 
कभी स्याह काला कर्तव्यबोध दर्शाता।

 चाँदनी-सी शीतल छाँव नसीब में देख 
 एक पल के ठहराव से इतराई नागफनी। 
 बादल की प्रीत में खोई-खोई बौराई 
 बरसा न गरजा जीवन पर रोई नागफनी। 

नुकीले काँटे हेय दृष्टि का भार बढ़ा 
सजी न सँवरी न आँगन का मान मिला। 
लू के थपेड़े पीठ पर ठंडी रेत का हाथ 
जग मरुस्थल आँधी का संसार मिला।

बादल का मुसाफ़िर होना गुज़र जाना 
समय के काग़ज़ पर लिखा यथार्थ था।
मरुस्थल के आरोह-अवरोह से जूझना 
नागफनी की रग-रग में बसा परमार्थ था।

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, अगस्त 9

क़लम की व्यथा

                                      
कहानी के वे अनगिनत पात्र भी 
गढ़ लेती है लेखनी
 जिनके क़दमों के 
नाम-ओ-निशान भी नहीं होते 
धरती के किसी ओर-छोर पर 
वह उनमें प्राण फूँकती है 
पनाह देती है अपने ही घर में 
 ज़िंदगी का हिस्सा बनते हैं वे 
 वो बातें जो कही ही नहीं गईं 
शब्द बन गूँजते हैं 
कानों में पुकार के जैसे 
वे बरसात की बूँदों-से होते हैं  
जिनका चेहरा नहीं होता 
सिर्फ आवाज़ आती हैं 
न कोई रंग न कोई रुप
 बस पानी की बूँदों-से बरसते हैं  
बादल भी गढ़ता हैं 
कभी-कभार आकार उनका
वे तारे बन चमकते हैं 
झाँकते हैं आसमान से 
कभी कोहरा बन 
अनुभव कराते हैं अपना 
 सूरज की किरणों के साथ
 फिर ओझल हो जाते हैं
उन किरदारों के हृदय में 
सुकून भरती है लेखनी
मिठास भरती है शब्दों में 
हँसी की खनक पॉकेट में रखती है  
सुनती है मर्मांतक वेदना 
फिर भी न जाने क्यों कई 
सरहद से घर नहीं लौटते?
कई बाढ़ के बहाव में बह जाते हैं 
कई प्लेन क्रेश में दम तोड़ देते हैं  
कई बम विस्फोट में 
राख का ढ़ेर बन जाते हैं
कई नौकरी न मिलने पर
 फंदे से लटक जाते हैं
क़लम उनके पंख लिखना चाहता है
 उड़ाना चाहता है परिंदों की तरह उन्हें 
परंतु वे वहीं दम तोड़ देते हैं
उड़ान भरने से पहले
एक मौन पुकार के साथ 
कभी न मिलने वाली 
मदद की उम्मीद के साथ ...।

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

शुक्रवार, अगस्त 7

ज़िंदगी


 मृगमरीचिका-सा भ्रम जाल फैलाती 
कभी धूप-सी जलाती है ज़िंदगी।
 बरसात बन भिगोती है कभी 
पेड़-सा आसरा बनती है ज़िंदगी।

सँकरी गलियों के मोड़-सी लगती 
 राह दिखाती है हाथ बढ़ाती हुई।
घनघोर निराशा में पीठ थपथपाती 
 तुम्हारी परछाई-सी है ज़िंदगी।

 दिवस को धकेलती-सी लगती 
 साँझ ढले लुटाती है अपनत्त्व।
कभी हर दिन का हिसाब माँगती
 फिर अँधरे में गुम हो जाती है ज़िंदगी।

 कभी आघात की बौछार करती 
 कभी अनुभव की सौग़ात थमाती
 तुहिन कणों-सी चमक लिए आती 
 दामन में सिमट हर्षाती है ज़िंदगी।

 दिनभर की बनती है थकान  
कभी अनायास मुस्कुराने लगती  
 तुम्हारे आने की आहट लिए  
अरमान बन खिल जाती है ज़िंदगी।


©अनीता सैनी 'दीप्ति'

मंगलवार, अगस्त 4

हल्का हवा का झोंका

                                                                            
प्राणवायु देते पेड़
 ठूँठ में तब्दील हो चुके हैं। 
कुछ पत्ते हैं उन पर पीले रंग के 
 झड़ते नहीं वृक्ष को जकड़े हुए हैं।
टहनियों की 
धड़कनों से रिसती है घुटन।
नमी का एहसास 
छूने से मिलता है आज भी।
फल खो चुके हैं 
प्राकृतिक स्वरुप व स्वाद 
वे स्वयं की गुणवत्ता लुटाकर 
मात्र एक नाम हैं।

कोई कहता पथप्रगति का 
कोई जामा पहनाता पश्चिमी प्रभाव का। 
हाँ ! हल्का हवा का झोंका ही है वह
 जिज्ञासा महत्वाकांक्षा 
तृष्णा के पँख उधेड़-बुन की गठरी
 सुविधा के नाम पर डंठल लाए है।
परिवर्तनशील मुख
धँसी आँखें और दाँत कुछ नुकीले 
भव्य ललाट पैरों से कुचलता संवेदना 
अट्टहास करता आया है। 

हाँ ! लेकर आया है वह झोंका 
वृक्षों की जड़ों में दीमक के बसेरे में 
 विस्मय से निर्बोध तक
 शून्य की समीक्षा तक गहन विचार।
ठूँठ बन चुके वृक्ष सजाएँगे  
शाखाएँ पनीले पत्तों से
 ऐसा विस्तृत स्पंदन करता आया है। 
 कुछ बुलबुले हवा में गढ़ता
सूनेपन की सिहरन दौड़ाता  
कुछ विचार अधरों पर रखता  
हल्की साँकल की ध्वनि-सा 
अंतस पर मढता प्रभाव लाया है
शिक्षकों के अभाव में 
 शिक्षा-नीति में नया बदलाव आया है।

©अनीता सैनी 'दीप्ति '

रविवार, अगस्त 2

रिक्त हुई समाज से रीत लौट आई है

                                           
बात हृदय पर लगे आघात की है 
शब्दों के भूचाल से उठे  बवंडर की है 
सूखी घास में लगाई जैसे आग की है 
लगानेवाले भी अपने ही किसी ख़ास की है 
किसी का गढ़ा द्वेष 
 किसी के सर मढ़ा जाएगा  
अन्य मुद्दे पिछड़ गए बात एक बात की है 
देखते ही देखते बातों-बातों में 
कितने ही छप्पर जलेंगे
कितने ही घरों की दीवारें ध्वस्त होंगीं 
पराए विचारों का मंथन कर 
 देह पर दाग़ मले जाएँगे 
 अनगिनत प्रश्नों के अंगारों पर  
रिक्त हुई समाज से रीत लौट आएगी 
उसकी रीड़ की हड्डी फिर  गढ़ी जाएगी 
विषकन्या कह पुकारगे औरतों को 
डाकन, चुड़ैल,कुलटा कह कुचली जाएगी।

©अनीता सैनी 'दीप्ति'