छलावा / अनीता सैनी
२८जून २०२५
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प्रत्येक स्त्री जानती है —
हर दूसरी स्त्री की पीठ पर
जन्मजात
एक छलावा बैठा होता है।
फिर भी,
न जाने —
किस कवि की, किस कविता की
पंक्तियों के
सोए भाव बोल पड़े हैं—
कि वह,
गौखों और झरोखों से झाँकता
आसमान का एक टूटता तारा है,
जिसके कंधे पर मन्नतों की पोटली है।
उसके पास न पंख हैं, न आँखें —
फिर भी वह
देखना और उड़ना सिखाता है।
सूरज की
पहली किरण का रसपान कर
वह उठता है,
इसीलिए
पूर्णिमा के चाँद-सा चमकता है।
और अंततः —
स्त्री की दृष्टि में उतरकर
वह
एक नया आकाश रच देता है।
बहुत सुंदर रुप में व्यथा - कथा का निरुपण जो एक तरफ लुभाये भी तो एक तरफ दुखाये भी ...।
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