Powered By Blogger

शुक्रवार, जून 20

दरकन

दरकन
……

कविता / अनीता सैनी
१७ जून २०२५

आओ! कुछ देर बैठो!!
दिखाऊँ तुम्हें
एक टूटा हुआ आदमी —
हौसले को
रफ़ू करता हुआ।

अभावग्रस्त —
न ढांडस की डोर,
न अपनेपन का थान,
न पराएपन की कतरन।

"टूटा हुआ आदमी?
अभावग्रस्त?
ढांडस की डोर?
अपनेपन का थान?
पराएपन की कतरन?"
चश्मे से बाहर झाँकती
आँखें बोलीं।

हाँ!
आदमी अपने से
टूट जाता है,
दरक जाता है —
स्त्री थोड़ी है वह
जो तोड़ी जाएगी —
इस बार नाक-मुँह
एक साथ बोले।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें