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सोमवार, अक्तूबर 29

व्याकुल मन कि पुकार

                                                

कण-कण  में   गूँज  रही,
व्याकुल  मन  की   पुकार |

हर   पत्थर   सुना   रहा,  

प्रेम   भक्ति   का    सार |

अविरल   बहती   भक्ति,

जग   का   करे   उद्धार |

उर   से    उलझी    पीड़ा, 

सुलझी   कान्हा   के  द्वार |

प्रीत  पथ  पर   झूमे  जीवन, 

छिटका   द्वेष   का   द्वार |

सुख   वैभव  परित्याग  किया,

मिला   प्रेम   भक्ति   का   द्वार |

वक़्त    में    सिमटी   गाथा,
तड़पती    हृदय    के   पार  |

       -अनीता सैनी 

शुक्रवार, अक्तूबर 19

वजह


                                                       
                                           


एक  अरसा  गुज़र  गया  तुम्हें  मुस्कुराये    हुए, 
महफ़िल  में   ख़ामोशी   की  क्या  थी  वजह |

मायूसी  का   लिबास  लपेट  लिया   बदन  से ,
ख़ुमारी चढ़ी  मन  में  सादगी  की  क्या थी वजह |

मुक़्क़दर   में  नहीं  हम,  बहलाकर  ठुकरा  दिया, 
आज    पहलू  में   बैठने   की  क्या  थी   वजह  |


तुम   माँझी    मैं   पतवार,   ज़िंदगी   थी   नैया, 
बीच  मझधार  में   छोड़  चले  क्या  थी   वजह  |

दफ़्न  कर   दिया  यादों  के  मंज़र  को  यूँ  ही ताबूत में, 
 सिसक  रहा  दिल  तरसती  आँखों  की  क्या  थी  वजह |

                        -अनीता सैनी 

बुधवार, अक्तूबर 17

वक़्त का आलम



   
                                          
अपनेपन  का नक़ाब वक़्त रहते  बिखर  गया,
वक़्त का आलम रहा कि  वक़्त रहते सभँल गये |

हर   बार   की  मिन्नतों  से  भी वो  नहीं लौटे, 
 इंतज़ार में  हम, वो  दिल कहीं और  लगा बैठे|

 मयकशी  के  आलम   में  जलते  रहे    ता -उम्र,
 झुलस गयी  जिंदगी ,अँगारों  पर चलना सीख गये |

आलम   ही  ऐसा  बना  कि   बर्बाद  हो  गये ,
बर्बादी  ने  लगाये  चार चाँद, मशहूर  हो गये |

सारी   शिकायतें   सारे  शिक़वे  ख़त्म  हो  गये,
आज  हम  दानदाता  और  वह  मोहताज़  हो  गये |

               - अनीता सैनी 




शनिवार, अक्तूबर 13

ज़िदगी का फ़क़त खुलासा

                                         

कभी-कभी 
वह अपने विचारों की कंघी से, 
नाख़ुन कुरेदती हुई,
हौले से उसाँस में सिर्फ़, 
 हे राम ! हे राम !कहती, 
वह  अपनों  से  परेशान  न  थी ।
न वह उस वक़्त अपने प्रभु को, 
 स्मरण कर रही होती, 
न  शिकायतों का पिटारा, 
 उड़ेल कर बैठी, 
उसकी बुद्धि  क्षुब्ध और , 
विचार नये सफ़र के राही बन गये।
आज  वह तलाश  रही  अपना  वजूद,  
इस कोने से उस कोने में,
जो कभी तरासा  ही नहीं। 
कुछ  खोने का डर नहीं,
 न चाहत  उसे कल की, 
उसाँस में  फफक रहा  वक़्त, 
जो कही  गुम हो गया,
तलाश रही अपने  निशां,  
जो  उकेरे   ही  नहीं, 
विचलित मन से अपने ही, 
 क़दमों की आहट तलाश रही,
कहाँ  छूट  गया वह वक़्त, 
जो कभी उसका हुआ करता था? 
यह जिंदगी का वह दोराहा  है,
 जहाँ  कल नहीं  मिलता,
आज उसके  साथ नहीं रहता।
  साँसें चल रही,
आहटों  का कोलाहल न था,
 कहाँ  छूट  गया  वह वक़्त, 
जो कभी  जिंदगी रहा  उसकी ?
 यह  ज़िंदगी  का  वह फ़क़त खुलासा था,
 जो  ज़िंदगीभर उसने  ज़िंदगी  के साथ किया। 
              
       @ अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, अक्तूबर 11

उलझन

                                         
ज़माना   कहता,   उलझे-उलझे-से    रहते   हो,
 कैसे  कहूँ   यही  वो  मंज़र   जिसनें  चलना सिखाया? 


यूँ   तो  ज़िंदगी    ने   हमें   ख़ूब   नवाज़ा,
उलझन ही रही  मुक़्क़दर में, सुकूं  की छाँव न मिली।

मंज़िल   के   दरमियां  उलझनों   का  साथ  लाज़मी  था ,
चंद क़दम  हौसले   संग रखे,  सामने  मंज़िल  के  निशां थे |


 उलझनों  में  तमाम  मुश्किलों  के  हल   मिले ,
 टेढ़े-मेढ़े   रास्तों  पर  मंज़िल   के  निशां  मिले |


खारेपन  में   कोई   तलब    रही 
 होगी  वरना   यूँ,

 उलझनों  में उलझी  गंगा  ढूँढ़ें  न   सागर  के  निशां|

मुहब्बत    होने     लगी   उलझनों   से, कमबख़्त, 

बिगड़कर  जाती,  सँवर  कर  आती,और  सीने  से  लग जाती।

                              - अनीता सैनी 

बुधवार, अक्तूबर 10

दास्तां पिता की

                                         
तमाम  ख़्वाहिशें  सीने में  दफ़्न   किये  बैठा,
न  जाने  क्यों  वो  अरमान   जलाये   बैठा ?

आज को  गुमराह  कर  कल  को  महफ़ूज़  किये बैठा,
दिल  जला   शमा   बुझाये    बैठा |

 गणित  ज़िदगी  का  दोहराता  रहा   चारों   पहर,
उसके   आकड़े   फ़रेबी  नहीं    यही   वो  विचार |

न  जाने  कब  तू   दरवाज़े  पर  दस्तक  दे,
इसी   बहाने  कुंडी   हटाये    बैठा |

बातें  करता  तेरे  जाने  पर  सुकून  से  जीने  की,
यादों  को  सीने  से  लगा, अश्कों  में  डूबा बैठा |

उसके  फ़लसफ़े   का  कारण  भी  यही
कि  वो  ज़िंदगी   से ज़्यादा  तुझसे  मुहब्बत कर बैठा |

                     -अनीता सैनी 

मंगलवार, अक्तूबर 9

आख़िर क्यों ?



                                               
                                                        
विचारों का प्रलय  हृदय  को क्षुब्ध,
 मार्मिक  समय मन को स्तब्धता के,
  घनघोर  भंवर  में  डुबो बैठा,
गुरुर के  हिलोरे  मार  रहा मन,
स्वाभिमान दौड़ रहा  रग-रग में,
 झलकी  न आँखों  से  लाचारी,
 न   ज़िदगी   ने  भरा  दम,
 न लड़खड़ाये   क़दम।

अकेलेपन के माँझे में उलझी
 ज़िंदगी   से   करती  तक़रार
नहीं  वह  लाचार, 
समाज  के  साथ  चलने   का,
हुनर  तरासती  शमशीर  रही वह |

देश   ऋणी   उसका,
हर रिश्ते  की क़द्रदान   रही  वह,
उठते   मंज़र  को  साँसों   में  पिरोया,
हर बला  को  सीने   से  लगाया,
न त्याग  में   कटौती,
न  माँगी  ख़ुशियों  की  हिस्सेदारी,
फिर  क्यों  कहता  समाज,
शहीद  की  पत्नी   को ,
बेवा   और   बेचारी ?
सराबोर क्यों न  करें,
उस ख़िताब से,
जिसकी  वह  हक़दार ?

    -अनीता सैनी




रविवार, अक्तूबर 7

ॠतुराज

                                           
ख़ुशियों  का  संदेश  समेटे,  
ॠतुराज  धरा  पर  आया,
तरुओं   ने  नव  पल्लव  डाले,
 मुस्कान   धरा  की  खिल  उठी,
चिड़ियों  ने  भी    राग  सुनाये,
मधुर  स्वर  में   इठलायी  पवन,
मीठा-सा   संगीत   सुनाया ,
भँवरों   ने   भी   प्रीत   जताई ,
प्रीत  रंग  में   खिली   धरा,
पीला  आँचल  ख़ूब  लहराया,
प्रीत  रंग   में   नील  गगन,
हर्षोल्लास  की  बदरी  छिटकी,
ख़ुशियों  का  संदेश  समेटे ,
ॠतुराज  धरा  पर  आया  ।


शुक्रवार, अक्तूबर 5

ख़ामोशी

                                                                    

                              ज़ख़्म  दिल  का  आँखें  बरस  गयीं, 
                           मोहब्बत रही वो मेरी, क्यों ख़ामोश रही ?

                              जज़्बात दिल की दीवारों   में दफ़्न  हुए, 
                         आँखों में तैरते सपने  एक पल में ओझल हुए, 

                                 सहम गयीं   हवाएँ  यही  क़ुसूर  रहा,
                            ख़ौफ़  बेरहम आँधियों का न यक़ीन हुआ, 

                             वो  पैग़ाम -ए -उल्फ़त सीने में समा गये ,
                                    नहीं लौटोगे  तुम  यही बात रुला गयी 

                                              - अनीता सैनी        

गुरुवार, अक्तूबर 4

नारी (घनाक्षरी छंद)

                              

ठिठुर रहा वजूद, यह  न ध्यान रहा,
मैं करुणा की देवी, न स्वाभिमान रहा।  

लाचारी  की  दहलीज़, न ख़ैरात  की  पोटली,
स्वाभिमान हक़  मेरा, यही आज की  नारी ।
        
हुनर  को  तरासती, वजूद  को  संवारती,
बुलंदियों को छू रही,  देश की यही नारी ।
                
                      - अनीता सैनी 

बुधवार, अक्तूबर 3

हौसला - मन की शक्ति


भीख का कटोरा 
न मज़बूरी की दलील 
न लाचारी का ढिंढोरा 
हौसले  की उड़ान से 
बसर किया जीवन 
स्वाभिमान की पोटली 
रहती थी तन पर
न कहानी न कविता 
न शब्दों में कोई बंद 
ज़िंदगी आईना रही 
हौसला रहा बुलंद |

-अनीता सैनी

सोमवार, अक्तूबर 1

क्षितिज



पेड़ों की फुनगी पर  बैठी,
आज सुनहरी शाम,
हर्षित मन, नयन
उम्मीद के द्वार।

विचलित  मन,
तरसती आँखें, बेचैनी-सी 
हिये  के  पार,

धीरे-धीरे क़दम बढ़ाती,
मायूसी से करती तक़रार,
पहुँची निशा मिलने द्वार ।

अरमानों की बरसी बदरी,
गोधूलि  की बेला  छिटकी,
हुई  आहट  द्वार,
चित्रभानु मिलने पहुँचा,
अब धरा  के  द्वार 

पेड़ों  की फुनगी पर  बैठी,
आज सुनहरी शाम,
हर्षित  मन, नयन
उम्मीद  के  द्वार।

 @ अनीता सैनी