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बुधवार, मई 1

ब्लॉग पर एक साल



  आज ब्लॉग की दुनिया में क़दम रखे मेरा एक साल पूर्ण हुआ,  
सभी का स्नेह और सानिध्य मिला,
कहने को आभासी दुनिया पर दिल का रिश्ता सभी से जुड़ा  मिला |

###########

ख़ामोशियों संग अंतरमन से बातें करूँ, 
 सुनूँ   दिल  की  किसी से कुछ न कहूँ |

लोटे में बंद समुंदर  बन झाँक रही दुनिया,  
मुस्कुराये ये जहां मैं अदब से  देखती रहूँ |

 इसी  आदत ने  थमायी   हाथों में  क़लम, 
 सफ़र  अनजान   मैं  मुसाफ़िर बन रहूँ |

 काग़ज़,क़लम  संग  ज़िंदगी  मसि बन गयी, 
ख़ुशनुमा राह  लेखन  मैं डग भरती रहूँ  |

ब्लॉग जगत  में  गुज़रा एक साल 
जज़्बात  के समुंदर  में  बहती 
दुनिया को एक टक निहारती  रहूँ  |

स्नेह ,सम्मान का मिला भंडार 
बहन यशोदा का सानिध्य संजोती 
सखी श्वेता  के मार्गदर्शन में लिखती रहूँ |

कुसुम बहन ने ख़ूब सराहा
रेणु बहन ने दिया स्नेह
दुआ अनजानी दर्द हरती  रही 
रिश्ता प्रगाढ़ 
 मैं ब्लॉग संग सब की स्नेही बन रहूँ |

अँधेरी राह में  
आत्मविश्वास साथ चलने  लगा 
ख़ामोशियाँ  बातों  में  निमग्न 
तन्हाइयाँ    मुस्कुराने  लगी 
ज़िंदगी  भी अब कुछ बदल सी गयी 
मिले न मंज़िल इस सफ़र में मुसाफ़िर बन रहूँ |

--अनीता सैनी 



गुरुवार, फ़रवरी 21

ज़िंदगी मेरी


                                            
                    वक़्त  का  मरहम, 
           कभी सुना,आज ज़िंदगी  लगा गयी,  
                 ज़माने में थे कभी नक़्श-ए-क़दम , 
              आज यादों की परछाई  बन  गये |

                       मुस्कुराती  ज़िंदगी , 
             अचानक  शहादत का  ख़िताब दिला  गयी,  
                 भाग्य  रहा  यह  मेरा ज़िंदगी, 
                   देश  के  काम  आ गयी |

                       मुहब्बत की  मशाल, 
                आमजन के हाथों में थमा गयी, 
                    द्वेष पनप  रहा  जहां   में, 
                   मुहब्बत  का  पाठ पढ़ा गयी |

                       जला   दिलों  में  चिंगारी, 
                   दीपक  से   मशाल  बना   गयी,  
                      कितनों  की  सोई  आत्मा, 
                    कितनों का ज़मीर  जगा  गयी |


                       मक़ाम  यही  था  मेरा, 
                    शहादत   साथ  निभा  गयी, 
                    कुछ  को  किया  बेनक़ाब,  
                कुछ की  अक़्ल ठिकाने आ  गयी  |

                               - अनीता सैनी 

सोमवार, फ़रवरी 11

सत्य अहिंसा का पुजारी


                                                         
              सत्य-अहिंसा का पुजारी, बना आम  इंसान, 
           हक़ अपना बाँट रहा, सजी  रसूखदारों  की दुकान |

            दरियादिली में  गया  डूब ,ज़िंदगी को गया भूल ,
              महंगाई को सर पर बिठा,दर्द  में गया  झूल |

            मुहब्बत  की  मारामारी,सभी  को  एक  बीमारी, 
          हाथों में सभी के फोन, क्यों अकेलेपन  की  सवारी ?

           सोच-समझ में उलझा, दिन-रात गोते लगा रहा ,
           चक्रव्यूह  बनी ज़िदगी,ताना-बाना  बुन  रहा |

          आँखों  पर   पट्टी  प्रीत  की,  शब्द  मधुर  बरसाये, 
          मोह  रहे   शब्द  नेताओं  के,प्रीत  में  जनता  सोये |

             एक तबका दर्द  में  डूबा रहा,नेता फूल बरसा रहे, 
           मीठी-मीठी  बातों  से,पेट  की  आग बुझा  रहे |

                             -  अनीता सैनी 

बुधवार, फ़रवरी 6

यादों का झौंका

                 

                          

                                   

                     यादों के झौंके  संग 
                  मंद-मंद मुस्कुराती,आसमां को 
                        एक   टक  निहारती   
                       अतीत  के  पन्नों   को 
                        विचारों  की  कंघी  से 
                        धीरे-धीरे कुरेदती   
                        किन्हीं  ख़्याल में गुम  
                       वजुद  तलाशने  लगी 
                          कभी  तन्हा  रही 
                        आज सोई उम्मीद 
                     फिर  डग  भरने  लगी 
                       थामे  रहती  अँगुली 
                      लड़खड़ाते  थे  क़दम 
                   वो आज सहारा बनने लगा 
                     मुद्दतों  बाद  मुस्कुराई 
                      एक सुकून की साँस 
                  दामन में खिलखिलाने लगी, 
                       घनघोर  अंधरे  में 
                      रफ़्ता-रफ़्ता  महकी 
                     मेहनत  रंग भरने  लगी  
                     गुरुर  से धड़कता सीना 
                   उसके  कंधे  मेरे  कंधों को 
                     लाँघकर  जाने  लगे  
                     नम   हुई  आँखें  आज 
                 वात्सल्य  भाव  से मुस्कुराने लगी |

                          - अनीता सैनी     

गुरुवार, जनवरी 24

दमन अवसाद का




                 

          अपने  हिस्से  की  ज़िंदगी, मोहब्बत से गूंथने लगे ,    
             दमन  अवसाद  का,  तृष्णा  को  दबाने  लगे  |
        
            ज़िंदगी  की  दौड़  में,  कृत्रिमता  को  ठुकराने  लगे,
         किया क़दमों को मज़बूत ,अस्तित्त्व अपना बताने लगे |

            इंसान  हैं   हम,  इंसान  से  मोहब्बत  करने  लगे, 
              मशीनों  की  मोहब्बत, दोस्ती   ठुकराने  लगे   |

        तन की  थकान, मन के  अवसाद से  निजात पाने लगे , 
             हृदय    का   जुनून ,    चाहत   में    बुनने   लगे  |

                चाहतों  के   दरमियाँ   दायरे  बनने  लगे  ,
            क्यों  घसीटें  मन  को,  इंसानियत  समझने  लगे   ?

            बच्चों   से  मोहब्बत,  प्रतियोगिता  भुलाने  लगे , 
             बनें  नेक   इंसान, ठुकरेस  ठुकराने   लगे  |

          खा  रहे  इस  नश्ल  को,  वो   कीड़े  दफ़नाने  लगे  ,
           कृत्रिमता  को  ठुकरा,   प्रकृति  को  अपनाने  लगे  |


                                - अनीता 

मंगलवार, जनवरी 22

कोहरा



                   

           कोहरे  में  ठिठुरती  ज़िंदगी , मिला  अलाव  का सहारा ,
            कभी   ठंड   के   साये  में, कभी   धूप   ने  पुकारा |

         
               छिटका  द्वेष  का  कोहरा,  प्रीत   का  हुआ  सवेरा, 
           खिली   मुहब्बत   की   धूप,दर्द  का  मुस्कुराया    चेहरा | 

          
           ज़िंदगी   की  गर्दिश  ने, हर   चेहरे   का  रुप   निखारा,
          किसी  पर सजा  दिये आँसू , किसी  को  प्रीत  से  निखारा |


              उनकी   मुहब्बत    ने   तरासा   वजूद    हमारा  , 
         वो  तन्हाइयों   में  छोड़   गये,  हम  ने  महफ़िल  में  पुकारा |

         
           खिलखिलाती  धूप,  फूलों   की  ख़ुशबू , आसमां   हमारा, 
           कोहरे  ने  समेटी   ज़िंदगी, तड़पते  दिल  ने   पुकारा |

                                      - अनीता सैनी 

          

गुरुवार, जनवरी 17

याद -ए-माज़ी




                                       

नज़ाकत   भरी   निगाहों  से 
पिला  दिया  दर्द-ए-जाम,ज़िंदगी के मयख़ाने में,
ज़िक्र   हुआ  दिल  की  महफ़िल  में, 
रुख  किया  यादों  के  तहख़ाने   का|


 नाराज़  नहीं   तुझसे  ऐ  ज़िंदगी,  
उलझ  गयी    लम्हों   के   तहख़ने  में ,
एक  घूंट  जाम-ए-जिंदगी,  
मदहोश हो गये,ज़िंदगी  के मयख़ाने  में |

  मोहब्बत की डगर तलाश रहा  मन 
 हाथों  में    जाम-ए-ज़िंदगी ,  
क्यों   हुआ  वो  मोहब्बत   पर  फ़िदा  ?
नसीब  ही   उस    का   बेवफ़ा  रहा |


फिर   जी  उठी   इसी  बहाने  से 
तस्वीर उभर आयी याद-ए-माज़ी ज़िदगी के तहख़ाने   में, 
महक़  उठी   फ़ज़ा   में  हिज्र  की  शाम 
 ज़ाम-ए-ज़िंदगी,यादों  के   मयख़ाने  में |

                          -अनीता सैनी  

शुक्रवार, दिसंबर 7

गूँज शहनाई की...


                                                  
पुरवाइ   संदेश  लाई, 
   उपवन   महका, 
सूरज ने किरनें  बरसाई  ,
खग  ने  मीठी  राग  सुनाई,  
गूँज  उठी   मीठी   शहनाई ,

पीली  हल्दी ,  चमके  कंगना, 
लाल   चुनरियाँ,  सुर्ख   जोड़ा,  
सिंदूरी   मंद -मंद  मुस्काई 
सप्त   फेरों  की  रस्म  निभाई, 
रिश्तों   का  गंठबंधन  सुहाना,
अश्रु   से  भीगी   खुशियाँ, 
पुरवाई   संदेश     लाई ,
गूँज   उठी   मीठी   शहनाई, 


तङपता  ह्रदय , बेचैन  आँखें, 
माँ  के  मन  से  झलके  अश्रु , 
पिता   के  ह्रदय  ने  बात  बताई , 
    जग  ने  ऐसी  रीत  बनाई ,
चिड़ियाँ   मेरी   हुई   पराई ,
गूँज   रही   मीठी  शहनाई  ,

आँगन,  पीपल,  खेल,   खिलौने , 
सजें  द्वार  पर  आम  के   पात, 
विदा   गीत  अब  गाते  है, 
पुरवाई    संदेश    लाई, 
गूँज   रही    मीठी   शहनाई  ,

गुरुवार, दिसंबर 6

माँ...


कुछ तो कहेगें लोग.....


                              


समंदर की लहरों पर हमनें  भी  पैगाम लिखा, 
दर्द को छुपाया ,मोहब्बत को सरे आम लिखा !!

जंग  जिंदगी  की , क़त्ल   अरमानों   का   हुआ, 
सुर्खरु जनाजे में  नाम,दफ़न  प्यार का अफ़साना हुआ  !!


जिंदगी पर  तोहमत  कैसी , उम्र -ए -दराज़ मिले दिन चार ,
दो  में   बुनते  रहे  सपनें ,  दो  में  किया  इंतजार  !!

ज़माने   का  ये   हुनर,  अपनों    ने   आज़माया   है 
किसी  का  तीर,  किसी  की  कमान  से  चलाया  है  !!

हो  सितम की  इंतहा ,  रो   रही   जिंदगी , 
कहाँ   मिलेगा परवरदिगार , यही  कह रही बंदगी ? 

बुधवार, दिसंबर 5

मीम की दौड़


                                           

मनु मन की एठी   निगाहें 
ह्रदय  में  उफ़न रहा दर्द ,
मीम की दौड़ में शामिल,
ह्रदय की असीम वासना !!

लहरों सी ओझल मंजिल, 
गंतव्य की ओर डगमगाते, 
न बढ़ने वाले क़दमों  की गति  !!

विचारों  की थाह में , 
गुमराह हुआ अपनत्व,   
कामयाबी की सीढ़ी से,
 कुचल रहा  ममत्व  !!

नजर आ रहे धुआँ में, 
मायूसी के काले धब्बे,
जहा कभी उजालों ने, 
अंधेरों  को  दी  पनाह   !!

क्षण भर खुशियों का ठहराव, 
वही पीङा का रुबाव ,
ठिठुर रहा ह्रदय में, 
तृष्णा का असीम भाव बना, 
मीम से मनु का गहरा लगाव  !!

शनिवार, दिसंबर 1

उसूल


                                   


 परत दर परत नसीब पर बिछाते रहे , 
   ख़ामोशी भरी निगाहों से उसूल, 
       कहीं  हालात के  ,
   कहीं मन के रहे  उसूल   ,
      कुछ कर्म  से उपजे ,
     रहे  भाग्य की देन, 
      न  सह  पाई , 
     न  कह  पाई ,
समय के हाथों  उभर रहा ,
  खेला  हुआ यही  खेल !!

     दिल  कहें  यही  खेल,  
  ख़ामोशी  से  बैठी चौखट पर, 
  देख रही  कर्मो का खेल ,
     अहसास हुआ,
     मिला न कोई मेल !!

   एक पड़ाव और  गुज़रा , 
   ख़िला  एक नायाब फूल ,
      हर दिन  एक ख़्वाब 
     जिंदगी बनी  नायाब ,
  दोहरा  रही  हूँ वही  हिसाब, 
  जो बोया  मैं ने  हाथों  से, 
  निकले बन किस्मत के फूल, 
  क्यों  कहु  जिंदगी ने चुभोई कोई शूल  ?   


  

सोमवार, नवंबर 26

वो दो आँखें......


                                      
ख़ामोशी से एकटक ताकना,
उत्सुकताभरी निगाहें ,
अपनेपन से  धड़कती, 
 धड़कनों की  पुकार,
और कह रही  कुछ पल मेरे पास   बैठ  !
 एक कप चाय का बहाना ही क्यों न हो,
कुछ पल सुकून से उसके पास बैठना, 
उसकी ज़िदगी का अनमोल पल बन जाता, 
 उसका अकेलापन समझकर भी  नहीं समझ पायी !
उसकी वो आँखें तरसती रहीं ,
धड़कन धड़कती  रही, 
ख़ामोश शब्द बार-बार पुकार रहे, 
मैं व्यस्त थी, 
या एक दिखावा ,
  बड़प्पन के लिये 
 व्यस्तता का दिखावा लाज़मी था !
क्या माँगती  है माँ ? 
चंद शब्द  प्यार के, 
 दो जून की रोटी, 
ज़िदगी में लुटायी  मुहब्बत का कुछ हिस्सा  !
उसकी ज़िदगी के इस और उस,
दोनों छोर पर हम हैं, 
और हमारी ... 
वो कहीं  नहीं...
हमारी ज़िंदगी  में हर वस्तु का अभाव...
प्यार  कर नहीं पाते.. 
पैसे होते नहीं.. 
और मकान छोटा लगता..
और माँ. ...
एक चारपाई  पर पूरा परिवार समेट लेती है !


रविवार, नवंबर 25

मन ने थामी तृष्णा की डोर..


                
                             दिन को सुकून न रात को चैन , 
                              कुछ पल बैठ क्यों  है बेचैन  ?


                              मन  बैरी  रचता  यह  खेल, 
                                तन  बना   कोलू  का  बैल 


                                मन की दौड़ समय का खेस ,
                             ओढ़  मनु  ने  बदला  है वेश  !


                          मन की पहचान मन से छिपाता, 
                          तिल-तिल मरता,वेश बदलता !


                                 मनु को मन ने लूट लिया, 
                                जीवन उस का छीन  लिया !


                            बावरी  रीत परिपाटी का झोल, 
                             तन   बैरी   बोले   ये    बोल !


                                     तन  हारा  !
                            समय ने उसको  ख़ूब  लताड़ा,
                           बदल वेश जीवन को निचोड़ा !

                                          मन चंचल !
                                  सुलग रही तृष्णा की कोर , 
                                 थका मनु  न छूटी   डोर !

                                      -अनीता सैनी 






मंगलवार, नवंबर 20

आस्था

                          
    मासूमित  के  स्वरुप   में  सिमटी
   प्रेम के लिबास में लिपटी 
     होले  से  क़दम  बढ़ाती
      आँखों  में  झलकती 
        ह्रदय में  समाती 
     स्नेहगामिनी 
    मनमोहिनी 
   अपनत्त्व सहेजती 
     तुलसी-सी पावन 
     मन-मंदिर  में विराजित 
                             सहेज माम्तत्व  
                            अपनत्त्व  की बौछार 
                           शालीनता की मूरत 
                               ऐसी रही 
                          आस्था की सूरत |

                           समय की मार ने 
                           अपनों के प्रहार ने 
                          जल रही द्वेष की दावाग्नि में 
                           दोगले स्वार्थ ने 
                         अपना शिकार बनाया !
                          सोच-समझ के भंवर में गूँथी 
                           आज बिखर रही आस्था |

                          तपता रेगिस्तान 
                            जेठ की दोपहरी 
                              खेजड़ी के ठूँठ की 
                                  धूप न छाँव 
                               दुबककर बैठी आस्था 
                            उम्मीद के दामन को लपेटे 
                           दोपहरी ढलने का इंतजार 
                            चाँदनी रात की मनुहार 
                            चंद क़दम अस्तित्त्व का छोर  
                              मन में सुलग रही यही कोर 
                             महके गुलिस्ता हो एक नई  भोर |
             
                                        - अनीता सैनी 

                                

               

शनिवार, नवंबर 3

ख़्वाहिश - ए - ताबीर

                                          
                                              
                         

ख़्वाबों  की  नगरी, ख़ुशियों   की   बौछार ,
जहाँ   हो   ऐसा,  न  हो  ग़मों  का  किरदार |

आँगन   की   ख़ामोशी,   चौखट  की  पुकार , 
ना -मुराद इश्क़  करवाता रहा इंतज़ार |


ख़्वाहिशों   की    ताबीर   में   बसर   हुआ   हर   पहर ,
आँखों  में  तैरते  ख़्वाब  झलकते   दिल  के  पार |

फ़ौला  फ़ज़ा   में  प्यार ,   मौसम   भी   ख़ुशगवार, 
ज़िंदगी   में  रही  मायूसी, नसीब में  नहीं तुम्हारा प्यार |

नील   वियोग  में   फ़ज़ा ,   नीलाअंबर  भी   हारा ,
ताक    रही    टहनियाँ,   वादियों   ने    पुकारा |

                           -अनीता सैनी 

शुक्रवार, अक्टूबर 19

वजह


                                                       
                                           


एक  अरसा  गुज़र  गया  तुम्हें  मुस्कुराये    हुए, 
महफ़िल  में   ख़ामोशी   की  क्या  थी  वजह |

मायूसी  का   लिबास  लपेट  लिया   बदन  से ,
ख़ुमारी चढ़ी  मन  में  सादगी  की  क्या थी वजह |

मुक़्क़दर   में  नहीं  हम,  बहलाकर  ठुकरा  दिया, 
आज    पहलू  में   बैठने   की  क्या  थी   वजह  |


तुम   माँझी    मैं   पतवार,   ज़िंदगी   थी   नैया, 
बीच  मझधार  में   छोड़  चले  क्या  थी   वजह  |

दफ़्न  कर   दिया  यादों  के  मंज़र  को  यूँ  ही ताबूत में, 
 सिसक  रहा  दिल  तरसती  आँखों  की  क्या  थी  वजह |

                        -अनीता सैनी 

बुधवार, अक्टूबर 17

वक़्त का आलम



   
                                          
अपनेपन  का नक़ाब वक़्त रहते  बिखर  गया,
वक़्त का आलम रहा कि  वक़्त रहते सभँल गये |

हर   बार   की  मिन्नतों  से  भी वो  नहीं लौटे, 
 इंतज़ार में  हम, वो  दिल कहीं और  लगा बैठे|

 मयकशी  के  आलम   में  जलते  रहे    ता -उम्र,
 झुलस गयी  जिंदगी ,अँगारों  पर चलना सीख गये |

आलम   ही  ऐसा  बना  कि   बर्बाद  हो  गये ,
बर्बादी  ने  लगाये  चार चाँद, मशहूर  हो गये |

सारी   शिकायतें   सारे  शिक़वे  ख़त्म  हो  गये,
आज  हम  दानदाता  और  वह  मोहताज़  हो  गये |

               - अनीता सैनी