Powered By Blogger

गुरुवार, अक्तूबर 31

तुम देख रहे हो साहेब



 उजड़ रहा है
 साहेब 
धरा के दामन से 
विश्वास 
सुलग रही हैं 
साँसें 
कूटनीति जला रही है ज़िंदा 
मानस 
  सुख का अलाव
 जला भी नहीं 
दर्द धुआँ बन आँखों में
 धंसता गया  
निर्धन प्रति पल हुआ
 बेचैन 
 वक़्त वहीं गया 
ठहर  
झगड़ता रहा
 मैं, मेरे का कारवां  
बिखर गये घरौंदे 
 परिवेश में घुलता रहा 
ज़हर 
सौंप गये थे जो धरोहर 
देश को 
छल रही है उसे 
सत्ता-शक्ति 
मोह देखो उसका 
अंधी बन स्वार्थ के हुई 
वह अधीन  
बिखर रहा है 
बंधुत्व का 
स्वप्न 
झुलस रहा है 
हिंद के दामन में 
प्रेम 
प्रकृति को रौंद रहे हैं  
दिन दहाड़े 
पग-पग पर हो रहा है
 भावनाओं का 
क़त्ल-ए-आम 
तुम देख रहे हो साहेब
 कितना बदल गया है 
इंसान |

©अनीता सैनी 

मंगलवार, अक्तूबर 22

आम आदमी उस वक़्त बहुत ख़ास होता है



आज जब मैंने 
तुमको तड़पते हुए देखा 
शक्तिहीन अस्तित्त्वहीन 
निःशस्त्र और दीन 
आँखों में आँसू 
माथे पर सलवटें  
भविष्य को सजाने की चाह में 
वर्तमान को 
कुचलता हुआ देखा 
प्रत्येक पाँच वर्ष में 
तुम उल्लासित मन लिये डोलते हो 
वे तुम्हारे विचारों का 
 झाड़ने लगते जाले 
 जन-गण  के 
पोतने लगते हैं 
 नाख़ून 
नीले रंग की 
चुनावी स्याही से  
शब्दों का खोखला खेल 
शै-मात का झोल 
ग़रीबों को गंवार कह 
बड़प्पन को बुख़ार 
चंद सिक्कों का लिये 
डोलते हैं ख़ुमार  
सिसकियों में 
सिमटते नज़र आये तुम 
और तुम ख़ामोश ही  रहना 
टाँग देना ज़ुबा पर ताला 
तपते रहना ता-उम्र 
जलाना अलाव मेहनत का 
 ढालते  रहेंगे वे तुम्हें 
मनचाहे आकार में 
पहना देगें 
चोला आम आदमी का 
तब तुम समझना 
तुम आम आदमी हो  
और वे बहुत ख़ास  हैं  
परन्तु तुम जानते हो 
खास आदमी पता नहीं क्यों 
चुनाव के वक़्त आम बन जाता है 
और तुम ख़ास बन 
जलाना शक्ति की ज्वाला 
और एक-एक कर बीन लेना अपने 
सभी स्वप्न 
क्योंकि तुम आम आदमी हो |

© अनीता सैनी 

सोमवार, अक्तूबर 21

बदल रही थी रुख़ आब-ओ-हवा ज़माने की




आहत हुए कुछ अल्फ़ाज़ ज़माने की आब-ओ-हवा में,  
लिपटते रहे  हाथों  से  और  दिल  में उतर गये, 
उनमें में एक लफ़्ज़ था मुहब्बत, 
ज़ालिम ज़माना उसका साथ छोड़ गया, 
  मुक़द्दर से झगड़ता रहा ता-उम्र वह, 
 मक़ाम उसका बदल दिया, 
इंसान ने इंसानियत का छोड़ा लिबास, 
 हैवानियत का जामा पहनता गया |

अल्फ़ाज़ के पनीले पुनीत पात पर, 
एक और लफ़्ज़  बैठा था नाम था  वफ़ा, 
तृष्णा ने  किया उसको तार-तार, 
अब अस्तित्त्व उसका डोल गया, 
कभी फुसफुसाता था उर के साथ ,   
लुप्त हुआ दिल-ओ-जिगर इंसान का, 
  मर्म वफ़ाई का जहां में तलाशता रह गया |

अल्फ़ाज़ के अलबेलेपन में छिपा था, 
एक और लफ़्ज़ नाम था जुदाई,  
एहसासात की ज़ंजीरों में जकड़ा, 
बे-पर्दा-सा जग में बिखरता  गया,  
बदल रही थी रुख़, 
आब-ओ-हवा ज़माने की, 
क्रोध नागफनी-सा, 
मानव चित्त पर पनपता गया |

 अल्फ़ाज़  से बिछड़ एक कोने में छिपा बैठा था,   

एक और लफ़्ज़ नाम था आँसू, 
शबनम-सा लुढ़कता था कभी ,  
दिल की गहराइयों में रहता था गुम, 
ख़ौफ़-ए-जफ़ा से इतना हुआ ख़फ़ा, 
आँखों से ढलकना भूल गया |

© अनीता सैनी 

गुरुवार, अक्तूबर 17

एक नज़्म टूट रही होती है



 तुम्हें मालूम है उस दरमियाँ, 
ख़ामोश-सी रहती कुछ पूछ रही होती है, 
मुस्कुराहट की आड़ में बिखेर रही शब्द, 
तुम्हारी याद में वह टूट रही होती है |

बिखरे एहसासात बीन रही, 
उन लम्हात में वह जीवन में मधु घोल रही होती है, 
 नमक का दरिया बने नयन,  
तुम्हें अब भी मीठी नज़रों से हेरती, 
धीरे-धीरे वह टूट रही होती है  |

बे-वजह रुठने से तुम आहतित न होना,  
वह दर्द अपना छुपा रही होती है, 
फ़रेब-सा फ़रमान लिख, 
 पहन लिबास-ए-हिम्मत,  
वक़्त से टकरा वह टूट रही होती है |

साज़िश रचते सपने, 
दृग अपने खोलते हैं उन्हें समझा रही होती है, 
ज़िंदगी की ज़िल्द पर जमे जाले झाड़ती, 
छूटी एक नज़्म टूट रही होती है |

©अनीता सैनी 

मंगलवार, अक्तूबर 15

करवा-चौथ के चाँद को निहारती



पावन प्रीत के सुन्दर सुकोमल सुमन, 
सुशोभित स्नेह से करती हर साल, 
अलंकृत करती हृदय में प्रति पल ,  
यादों का कलित मंगलमय थाल | 

  अखंड ज्योति प्रिये-प्रीत में सुलगती साँसों की,  
जीवन के प्रति दिन,दिन के प्रति पहर, 
फ़ासले सहेजती सीने में ,   
करती प्रज्वलित दिलों के दरमियाँ, 
प्रीत की राह में प्रेम के उजले दीप |

 कोमल कामना चिरायु की सजाये सीने में शिद्द्त से, 
करवा-चौथ के चाँद को निहारती,  
चाँद-चाँदनी बिछाये क़दम-क़दम पर राह में,  
 यही फ़रियाद करती सितारों से |

निर्जल देह से सिंचती प्रिये-पथ, 
 प्रति पहर करती पल्लवित,
आस्था के पनीले पत्तों की पावन बेल |

 टांगती पल-पल पात-पात पर, 
मधुर शब्दों में गूँथें विश्वास के मनमोहक गुँचे, 
 पावन प्रेमल प्रसून वह प्रार्थना में तुम्हारे |

© अनीता सैनी 

रविवार, अक्तूबर 13

उस मोड़ पर



 उस मोड़ पर
 जहाँ 
 टूटने लगता है
 बदन 
छूटने लगता है 
हाथ  
देह और दुनिया से
उस वक़्त 
उन कुछ ही लम्हों में 
उमड़ पड़ता है 
सैलाब 
यादों का 
 उस बवंडर में उड़ते  
नज़र आते हैं 
अनुभव
 बटोही की तरह राह नापता 
वक़्त 
रेत-सी फिसलती 
साँसें 
विचलित हो डोलती हैं 
तभी 
अतीत की 
 उजली धूप में   
उसी पल हृदय थामना 
चाहता है  
हाथ 
भविष्य का 
 अँकुरित हुए उस 
परिणाम के 
साथ
 र्तमान करता है 
छीना-झपटी 
एक पल के अपने अस्तित्त्व के 
साथ |

© अनीता सैनी 

बुधवार, अक्तूबर 9

प्रबल प्रेम का पावन रुप



थाईलैंड का  एक हिस्सा  
खाओ याई नेशनल पार्क  
बहता है वहाँ एक झरना नरक का 
स्थानीय लोगों ने दिया यह नाम  
 निगल रहा है वह 
 ज़िंदगियाँ मासूम हाथियों की 
सिहर उठा मन देख ज़िंदगी की जंग
नन्हें नाज़ुक हाथी के बच्चे की 
आह से आहतित 
आवाज़ में मर्म ममता का लिये  
 टपकते आँसू पाकीज़ा नन्हीं  आँखों से  
ठहर गयीं धड़कनें बिखर गयीं साँसें 
कूद पड़े प्रबल प्रेम के प्रतापी 
परिवार के सात अन्य हाथी 
अर्पित की सभी ने साँसें अपनी 
बचाने अपना एक नन्हा प्यारा साथी 
प्रखर प्रेम को सजोये सीने में  
सदियों से सहेजते और समझाते आये  
सबल समर्पण साँसों में लिये 
मसृण रस्सी से जीवनपर्यन्त बँधे आये   
अंतरमन को उनके 
उलीचती सृष्टि स्नेह की स्निग्ध धार से 
प्रेम के वाहक कहलाये 
करुणा के कोमल कलेवर कुँज के 
कृपाधार रहे ममता के
वशीभूत सस्नेह के गजराज 
दुरुस्त दिमाग़ के नहीं है दावेदार
कहलाये कोमल मन,विशाल तन
माँ के प्रथममेश्वर पहरेदार 
 पावन प्रेम से पल्लवित स्वरुप  
शाँत चित्त 
मानव मित्रता के सच्चे हक़दार 
 कविता कही न गढ़ी कल्पना 
मुखर हुआ यथार्थ के  मंथन से 
 प्रबल प्रेम का पावन रुप |

© अनीता सैनी 

सोमवार, अक्तूबर 7

दमे का शिकार चिन्तनशील पीढ़ी होने लगी




विश्वास के हल्के झोंकों से पगी 
 मानव मन की अंतरचेतना
 छद्म-विचार को खुले मन से
 धारणकर स्वीकारने लगी, 
हया की पतली परत 
 सूख चुकी धरा के सुन्दर धरातल पर 
जिजीविषा पर तीक्ष्ण धूप बरसने लगी |

 अंतरमन में उलीचती स्नेह सरिता
 बेज़ुबान सृष्टि 
बेबस-सी नज़र आने लगी, 
सुकून की चाँदनी को छिपाती निशा 
ख़ामोशी से आवरण
 उजाले का निगलने लगी |

हवा में नमी द्वेष की 
मनसूबे नागफनी-से पनपने लगे 
दमे का  शिकार
 चिन्तनशील पीढ़ी  होने  लगी, 
मूक-बधिर बन देख रहा
 शुतुरमुर्गी सोच-सा ज़माना 
 अभिव्यक्ति वक़्त की ठोकरें खाकर 
ज़िंदा शमशान पहुँचने लगी |

©अनीता सैनी 

शनिवार, अक्तूबर 5

वो चेहरा चिलमन में छिपाने लगे



फटी क़मीज़ की बेतरतीब तुरपन, 
आलम मेहनत का दिखाने लगे, 
देख रहे  गाँव के गलियारे, 
वो हालत हमारी भरी चौपाल में सजाने लगे |


सिमटने लगी कोहरे की चादर, 
उनके चेहरे भी नज़र आने लगे,  
जल्द-बाज़ी में जनाब ने की थी लीपापोती, 
अब वे दर्द की सिसकियाँ गिनाने लगे |

 समय की सख़्त समझाइश पर, 
बर-ख़ुरदार ने बहुतेरे पानी के बुलबले बनाये, 
सजा दिया गुलदान में उन्हें,
श्रेय की महफ़िल सजाने  लगे | 

ठहाकों  में  ठिठुरी संवेदना, 
इंसानियत को जामा रुपहला पहना दिया,   
चाल मद्धिम मन मकराना-सा, 
गुले-से पैंतरे अपने पैरों से दिखाने लगे |

दौलत का फ़लक तोड़, 
जमाने भर के जुगनू उसमें चमकाने लगे, 
 मज़लूमों का मरहम दर्द को बता, 
वो दर्द का पैमाना झलकाने लगे, 
ओझल हुई हया पलकों से देखो !
वो बरबस चेहरा चिलमन में छिपाने लगे | 

©अनीता सैनी 

गुरुवार, अक्तूबर 3

क़ुदरत की कही कहानी



उसकी ख़ामोशी खँगालती है उसका अंतरमन,  
वो वह  नहीं है जो वह थी, 
उसी रात ठंडी पड़ चुकी थी देह उसकी, 
ठहर गयीं थीं एक पल साँसें, 
हुआ था उस रात उसका एक नया जन्म,    
देख चुकी थी अवाक-सी वह, 
एक पल में जीवन का सम्पूर्ण  सार, 
उस रात मंडरा रहे थे बादल काल के, 
हो चुकी थी बुद्धि क्षीण व मन क्षुब्ध,  
विचार अनंत सफ़र के राही बन दौड़ रहे थे,  
कोई नहीं था साथ उसके, 
तब थामा था क़ुदरत ने उसका हाथ, 
प्रत्येक प्रश्न का उत्तर तलाशती थी जिस में,  
  भूल चुकी थी उसका साथ,  
पवन के हल्के झोंकों संग बढ़ाया,  
क़ुदरत ने अपना हाथ, 
 समझाया गूढ़ रहस्य अपना,
सिखाया जीवन का सुन्दर सार, 
त्याग की परिभाषा अब पढ़ाती है, 
क़ुदरत उसे हर बार, 
समझाती है सम्पूर्ण जीवन अपना, 
 दिखाती है अपना घर-द्वार और कहती है, 
खिलखिलाती धूप भी सहती हूँ,  
सहती हूँ सूरज की ये गुर्राहट भी, 
देख रही अनेकों रंगों में जिंदगियाँ, 
जीवन के सुन्दर रुप भी, 
गोद से झर रहे रुपहले झरने की झंकार भी, 
तपते रेगिस्तान की मार भी, 
त्याग की अनकही कहानी, 
क़ुदरत सुनाती है अपनी ही ज़ुबानी,  
क्यों बाँधना मन आँचल से, 
कहाँ छिपाया मौसम मैंने,कहाँ  छिपाया पानी |

© अनीता सैनी 

बुधवार, अक्तूबर 2

एक नन्हा-सा पौधा तुलसी का पनपा मेरे मन के कोने में



एक नन्हा-सा पौधा तुलसी का, 
पनपा मेरे मन के एक कोने में, 
प्रार्थना-सा प्रति दिन लहराता, 
सुकोमल साँसों का करता दान
सतत प्राणवायु बहाता आँगन में   
 संताप हरण करता हृदय का,   
संतोष का सुखद एहसास सजा,  
पीड़ा को पल में हरता वह हर बार |

मूल में मिला मुझे इसके अमूल्य सुख का,  
सुन्दर सहज सुकोमल सार,  
पल-पल सींच रही साँसों से, 
मन की मिट्टी में बहायी स्नेह की स्निग्ध-धार |

नमी नेह की न्यौछावर की, 
अँकुरित हुए पात प्रीत के, 
करुण वेदना सहकर बलवती हुआ,  
मन-आँगन में वह पौधा हर बार |

मनमोही मन मुग्धकर लहराता, 
पागल पवन के हल्के झोंकों संग,  
तब मुखरित हरित देव ने पहनाया, 
प्रेम से पनीले पत्तों का सुन्दर हार |

खनका ख़ुशी का ख़ज़ाना आँगन में, 
खिली चंचल धूप अंतरमन में,  
चित्त ने किया सुन्दर शृंगार, 
महका मन का कोना-कोना,  
 तुलसी का पौधा लहराया जब मन में हर बार |

© अनीता सैनी