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गुरुवार, मार्च 25

फाग



 फाग में हर्षित हैं पुष्प 

 आसमां अबीर बरसा गया 

पात-पात भीगे प्रीत में 

 चेतना पर सौरभ छा गया।


पलाश पैर में बँधी झाँझरी

 हो मुग्ध,रागनी गुनगुना रहा

 शृंगार सुशोभित पुलकित है मन  

 बाट जोहती देहरी गान अनुतान में गा रही।


सुमन सेमल पथ पर बिछाती पवन 

पग-ध्वनि को झोंका तरसता रहा 

 अभिलाषित मन की हूक

 देखो! चकोर चाँद को निहारता रहा।

 

 गोरी कोरी  हथेलियों पर 

  रंग मेंहदी का कसूमल भा गया 

  कर्तव्य भार अंतस गहराया 

 पलक कोर स्मृति नीर बहा गया।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


रविवार, मार्च 21

दोहे


 श्याम श्याम राधे कहे

श्याम रंग शृंगार।

श्याम रंग ने ठग लिया

जोगन कह संसार।।


श्याम रंग का लहरिया

स्याह  प्रीत परिधान।

मोह साँवले ने लिया

बने श्याम अभिमान।।


मनमोहन मन में बसे

मन बहोत अनमोल।

मुरलीधर मन को हरे

नहीं प्रीत का मोल।।


छलिया छल की कोठरी 

मायावी है नाम।

कान्हा कान्हा जग कहे

मीरा के हैं श्याम।।


सुख-समृद्धि जग खोजता 

मिला न सुख का छोर।

 जिस मन में कान्हा बसे 

थामे सुख की डोर ।।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

बुधवार, मार्च 17

माँ कहती है


 औरतें बालकनी में टंगे 

 मिट्टी के झूमर की तरह होतीं हैं 

तभी वे हवा के हल्के स्पर्श से

 मोहनी सुर लहर-सी बिखर जातीं हैं।

 

  कभी मौळी तो कभी कँगन डोरी में

  जड़ी दीं जातीं हैं कोड़ियों के रुप में

  कभी-कभार बंदनबार में जड़ दी जातीं हैं 

  दहलीज़ की शोभा बढ़ाने के लिए।


वात्सल्य ममता की दात्री को

कभी रख दिया जाता है छत की मुँडेर पर

पानी से भरे मिट्टी के पात्र की तरह जो

अनेक पक्षियों को पुन: जीवनदान देता है।

  

  कुछ लोग उन्हें उपवस्त्र समझ 

 किवाड़ों  के पीछे हेंगर में टाँग देतें  हैं 

  विचारों में आई खिन्नता ही कहेंगे

  कि धूल-मिट्टी की तरह उन्हें झाड़ा जाता है।


 परंतु माँ कहती है

 औरतें गमले में भरी मिट्टी की तरह होतीं हैं

 खाद की पुड़िया उनकी आत्मा की तरह होती है 

 जो पौधे को पोषित कर हरा-भरा करती है।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, मार्च 14

निर्वाण (खग मनस्वी संवाद )


भाग-4 निर्वाण (खग मनस्वी संवाद )


वृक्ष पर बैठ खग  डाल से पँख खुजाते

मद्धिम स्वर में किस्सा पर्वत पार का सुनाया 

एक नगरी मानव की छाया है अविश्वास

मसी के छींटे उद्गार अंतस में उभर आया। 


 विरक्तता भाव बरसा था धरा के आँचल पर 

लो ! प्रकृति न दौंगरा समर्पण का बिछाया

अतृप्ति के भटके भाव में बिखरी चेतना

ज्यों पुष्प मोगरे पर रंग धतूरे का छाया। 


अहं द्वेष क्रोध अंतस के है कुष्ट रोग 

पीड़ा से मती मनोभावों की भ्रष्टता में भारी हुई 

नीलांबर के वितान पर उभरी कलझांईयाँ सी

वेदना की भीगी पंखुड़ियाँ क्षारी हुई। 


तीसरे पहर की पीड़ा क्षितज की लालिमा 

कपासी मेघों का हवा संग बिखर  जाना  

एकाएक झरने-से बहते जीवन में  ठहराव

हलचल अवचेतन की नयनों में उतर आना ।


 संवेदन हीन हैं विचार कलुषित मानव के 

पंख फैलाए व्याकुल मन से खग बोले 

  पलकों की पालकी पर भाव सजाए  

कहो न खग! मनस्वी ने नयनों के पट खोले।


हे सखी! गाथा विश्व में वैभव सम्पन्नता संग 

समझ के दरिया में डूबे मानव व्यवहार की

आत्मछटपटाहट प्राबल्यता प्राप्ती की मंशा 

खंडित चित्त के किवाडों के दुर्व्यवहार की।


 अनभिज्ञ मानव समझे स्वयं को आत्मज्ञानी

ज्यों कर्म कारवाँ बढ़े कोलाहल की झंकार 

सत,रज, तम ठूँठ हुए उजड़े चित्त के मनोभाव 

भ्रम यवनिका मन-दर्पण,धूल-मिट्टी मोह भार।


द्वेष क्रोध को धार लगाते, छूटा प्रीत का हार 

हृदय पाषाण, भाव मरु,लू के थपेड़े हैं स्वभाव

ताप बढ़े काया का ज्यों  किरणों का प्रहार 

स्वार्थसिद्धता पट्टी आँखों पर अतृप्त हैं भाव।


नहीं!नहीं!!नहीं!!!खग,मानव ज्ञाता, है विश्वास

जीवन कलाएँ अर्जित करना,है इसका स्वभाव

बोध-निर्बोध भाव तत्त्व बाँधे, बंधुत्त्व अंबार

पीड़ित पीड़ा में उलझा समझे न विकारों का प्रभाव।


निर्मल-निश्छल स्वभाव,है करुणा का अवतार 

भावों-अभावों से जूझता,टाटी सुखों की बाँधता 

बंजर जीवन भाता किसको? हे खग!

विचार उचटते अंतरमन के,सुख का छप्पर टूटता!


अविश्वास बढ़ा भू पर,देख! छाए बादल विश्वास के

पुरवाई प्रीत, बरसात आस्था के नवांकुर खिलाएगी

वृक्षों पर पात संबंधों के अंकुरित हो खिल जाएँगे 

डाली-डाली लदी फूलों से धरा दुल्हन-सी सज जाएँगी।


द्वेष धुलेगा एक दिन,मन-दर्पण रश्मियों-सा चमकेगा  

हे खग!आभा मुख पर,पुलकित मानवता हर्षाएगी

निश्छल झरना झरे कर्मण्यता का, हैं सौरभ से भाव 

शब्द सुमन सुवासित हो हृदय शीतल कर जाएँगी।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


'निर्वाण'

प्रथम द्वितीय एवं तृतीय भाग के लिंक 👇

१. निर्वाण (मनस्वी की बुद्ध से प्रीत) 

२. निर्वाण ( स्वप्न की अनुगूँज) 

३ निर्वाण (चित्त की भित्तियाँ) 

बुधवार, मार्च 10

निर्वाण (चित्त की भित्तियाँ)


(चित्त की भित्तियाँ -३ )


 विस्मित हो कहे मनस्वी!


फूलों ने स्वरुप स्वयं का बदला!

निशा से नीरस थे प्रभात में खिलखिलाए!

उषा में रंग कसूमल किसने है उड़ेला!

तेज़ रश्मियों ने या सुमन स्वयं मुस्कुराए।


आहा! एक बदरी आई स्नेह सजल हो

करुणा के सुमन खिलाए! ममता बरसाई

मिथ्या स्वप्न की डोरी में था चित्त उलझा

हर्षित पलों की दात्री प्रीत अँजुरी भर लाई।

 

झरना मानवता का मन की परतें भिगोता

वात्सल्यता की सुवास सृष्टि में उतर आई

करुणा की मूरत  उतरी मन आँगन में 

भोर की लालिमा आँचल में स्नेह भर लाई।


रश्मियों का तेज़ ज्यों डग भरती मानवता

चुनड़ी पर धूप ने जड़े सतरंगी सितारें

रेत पर पद-चिन्ह बरखान से उभर आए

दर्शनाभिलाषी भोर का तारा स्वयं को निहारे। 


शीतलता लिए था एक झोंका मरुस्थल पर 

ममत्व की प्रतीति निर्मलता शब्दों से संजोए

भाव-विभोर  मनस्वी के अंतस पर छवि उभर आई

नवाँकुर को छाँव संवेदना की बौछार से पात भिगोए।


 सहसा चिंतन में विघ्न!

 

वृक्ष पर बैठ खग  डाल से पँख खुजाते

मद्धिम स्वर में किस्सा पर्वत पार का सुनाया 

एक नगरी मानव की छाया है अविश्वास

मसी के छींटे उद्गार अंतस में उभर आया। 


 विरक्तता भाव बरसा था धरा के आँचल पर 

लो ! प्रकृति न दौंगरा समर्पण का बिछाया

अतृप्ति के भटके भाव में बिखरी चेतना

ज्यों पुष्प मोगरे पर रंग धतूरे का छाया। 


अहं द्वेष क्रोध अंतस के है कुष्ट रोग 

पीड़ा से मती मनोभावों की भ्रष्टता में भारी हुई 

नीलांबर के वितान पर उभरी कलझांईयाँ सी

वेदना की भीगी पंखुड़ियाँ क्षारी हुई। 


तीसरे पहर की पीड़ा क्षितज की लालिमा 

कपासी मेघों का हवा संग बिखर  जाना  

एकाएक झरने-से बहते जीवन में  ठहराव

हलचल अवचेतन की नयनों में उतर आना ।।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

'निर्वाण'

प्रथम द्वितीय भाग के लिंक 

१. निर्वाण (मनस्वी की बुद्ध से प्रीत) 

२. निर्वाण ( स्वप्न की अनुगूँज) 

शनिवार, मार्च 6

निर्वाण ( स्वप्न की अनुगूँज)

भाग -२ 

 स्वप्न की अनुगूँज


बुद्धतत्त्व की अन्वेषणा,मनस्वी कानन-कानन डोले

बुद्ध छाँव बने, बुद्ध ही बहता झरना बन बोले

हे प्रिय! पहचानो नियति जीवनपथ की

कंकड़-पत्थर झाड़-झंकार गति जीवनरथ की।


गरजते मेघों से क्यों चोटिल स्वयं को करना 

हवा की प्रीत बरसात के भावों को समझाना 

भांति-भांति के भ्रम भ्रमित कर भटकाएँगे

मृगतृष्णा नहीं जीवन में, ठहराव दीप जलाएँगे।


परीक्षा पृथ्वी पर प्रीत के अटूट विश्वास की

यों व्यर्थ न गँवाओ प्रिय! अमूल्य लड़ियाँ श्वाँस की

तुम पुष्प बन खिल जाना मैं बनूँगा सौरभ 

तुम पेड़ बन लहराना मैं छाँव बनूँगा पथ गौरव।


परोपकार में निहित मानवता की  सुवास हूँ मैं

फल न समझना प्रिय! रसों में मिठास हूँ मैं

काया के शृंगार का न बोझ बढ़ाना तुम 

जीवन के अध्याय विरह को लाड़ लड़ाना तुम।


हे प्रिय! तुम करुणा के दीप जलाना 

दग्ध हृदय पर मधुर शब्दों के फूल बरसाना 

अँकुरित पौध सींचना स्नेह के सागर से

प्रेम पुष्प खिलेंगे छलकाओ सुधा मन गागर से।


सहसा निंद्रा से विचलित हो उठी मनस्वी 

हाय! भोर रश्मियों ने क्यों लूटी मेरे स्वप्न की छवि 

प्रिय!प्रिय!! कह पुकार बौराई बियाबान में

अनुगूँज से सहमी ध्वनि थी स्वयं के अंतरमन में।


ओह! कलरव की गूँज लालिमा धरा पर छाई 

पात-पात हर्षाए ज्यों प्रकृति दुग्ध से नहाई 

मन चाँदनी झरी ज्यों शीतल आभा-सी बरस आई  

प्रीतम की पीर नहीं मद्धिम हँसी होठों ने छलक आई।


अंतस ज्योत्स्ना मुख पर दीप्ति उभर आई थी 

उलझी-उलझी फिरे अकुलाहट निख़र आई थी 

पर्वत पाषाण पादप पात जहाँ दृष्टि वहीं बुद्ध

 काँटों की चुभन से प्रीत, प्रतीति में गवाई सुध।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


प्रथम भाग का लिंक 

भाग-१  निर्वाण  

 निर्वाण (मनस्वी की बुद्ध से प्रीत) 

मंगलवार, मार्च 2

निर्वाण (मनस्वी की बुद्ध से प्रीत)


अंतस के विचारों  में मग्न मनस्वी

स्मृति पन्नों में टोहती स्वयं की छवि

आत्मलीन हो कहे- बियाबान ही साथी

एकांतवास विधना की थाती।


   जीवनपथ के सब साथी झरे 

ज्यों पतझड़ पेड़ से पाती झरे 

उलझीं-उलझीं जब जीवन लताएँ 

  रथ खींचे संग सत गाथाएँ ।

 

झाड़-झंकार के काँटे चुभे,जले पाँव 

वृक्षों की न छाँव मिली न मिली ठाँव 

जेठ दोपहरी की तपती रेत पर  

ज्यों हल जोते खेतिहर अदृश्य खेत पर।


कोरे आसमान ने सहलाया

चाँद-सितारे संगी-साथी सबने बहलाया।

पवन ने प्रीत से लाड़ लड़ाया 

रश्मियों ने पथ पर उजास छलकाया।


हाय! काली रात डराती बहुत थी

गोद चाँदनी की सुहाती बहुत थी

इच्छा-अनिच्छा का खेल था भारी

मुक्त हुई कैसे,न जानूँ क्रम अभी था जारी।


फिर-फिर दुख रुलाता रहता

हृदय भी नीर बहाता रहता

दुख बीता या नयना सूखे  

दुख-सुख हुए पाषाण अब न जीवन दुखे।


  कामना रही न कोई शेष  न कोई चाह   

 मन के संतोष को  मिली थी राह  

व्यग्र छलना अति चतुर रहती सवार 

हाय! उसी डगर पर मिलती बारंबार।


मन टूटा, तन टूटा,टूटा न अटूट विश्वास

मोह-माया का टूटा पिंजर मुक्त हुई हर श्वास

देह धरती पर जले दीप-सी आत्मा में उच्छवास

मनस्वी को मिला बुद्धत्व पहना उन्हीं-सा लिबास।


बुद्धतत्त्व की अन्वेषणा,मनस्वी कानन-कानन डोले

बुद्ध छाँव बने, बुद्ध ही बहता झरना बन बोले

हे प्रिय! पहचानो नियति जीवनपथ की

कंकड़-पत्थर झाड़-झंकार गति जीवनरथ की।


गरजते मेघों से क्यों चोटिल स्वयं को करना 

हवा की प्रीत बरसात के भावों को समझाना 

भांति-भांति के भ्रम भ्रमित कर भटकाएँगे

मृगतृष्णा नहीं जीवन में, ठहराव दीप जलाएँगे।


परीक्षा पृथ्वी पर प्रीत के अटूट विश्वास की

यों व्यर्थ न गँवाओ प्रिय! अमूल्य लड़ियाँ श्वाँस की

तुम पुष्प बन खिल जाना मैं बनूँगा सौरभ 

तुम पेड़ बन लहराना मैं छाँव बनूँगा पथ गौरव।


परोपकार में निहित मानवता की  सुवास हूँ मैं

फल न समझना प्रिय! रसों में मिठास हूँ मैं

काया के शृंगार का न बोझ बढ़ाना तुम 

जीवन के अध्याय विरह को लाड़ लड़ाना तुम।


हे प्रिय! तुम करुणा के दीप जलाना 

दग्ध हृदय पर मधुर शब्दों के फूल बरसाना 

अँकुरित पौध सींचना स्नेह के सागर से

प्रेम पुष्प खिलेंगे छलकाओ सुधा मन गागर से।


सहसा निंद्रा से विचलित हो उठी मनस्वी 

हाय! भोर रश्मियों ने क्यों लूटी मेरे स्वप्न की छवि 

प्रिय!प्रिय!! कह पुकार बौराई बियाबान में

अनुगूँज से सहमी ध्वनि थी स्वयं के अंतरमन में।


ओह! कलरव की गूँज लालिमा धरा पर छाई 

पात-पात हर्षाए ज्यों प्रकृति दुग्ध से नहाई 

मन चाँदनी झरी ज्यों शीतल आभा-सी बरस आई  

प्रीतम की पीर नहीं मद्धिम हँसी होठों ने छलक आई।


अंतस ज्योत्स्ना मुख पर दीप्ति उभर आई थी 

उलझी-उलझी फिरे अकुलाहट निख़र आई थी 

पर्वत पाषाण पादप पात जहाँ दृष्टि वहीं बुद्ध

 काँटों की चुभन से प्रीत, प्रतीति में गवाई सुध।


फूलों ने स्वरुप स्वयं का बदला!

निशा से नीरस थे प्रभात में खिलखिलाए!

उषा में रंग कसूमल किसने है उड़ेला!

तेज़ रश्मियों ने या सुमन स्वयं मुस्कुराए।


आहा! एक बदरी आई स्नेह सजल हो

करुणा के सुमन खिलाए! ममता बरसाई

मिथ्या स्वप्न की डोरी में था चित्त उलझा

हर्षित पलों की दात्री प्रीत अँजुरी भर लाई।

 

झरना मानवता का मन की परतें भिगोता

वात्सल्यता की सुवास सृष्टि में उतर आई

करुणा की मूरत  उतरी मन आँगन में 

भोर की लालिमा आँचल में स्नेह भर लाई।


रश्मियों का तेज़ ज्यों डग भरती मानवता

चुनड़ी पर धूप ने जड़े सतरंगी सितारें

रेत पर पद-चिन्ह बरखान से उभर आए

दर्शनाभिलाषी भोर का तारा स्वयं को निहारे। 


शीतलता लिए था एक झोंका मरुस्थल पर 

ममत्व की प्रतीति निर्मलता शब्दों से संजोए

भाव-विभोर  मनस्वी के अंतस पर छवि उभर आई

नवाँकुर को छाँव संवेदना की बौछार से पात भिगोए।

 

वृक्ष पर बैठ खग  डाल से पँख खुजाते

मद्धिम स्वर में किस्सा पर्वत पार का सुनाया 

एक नगरी मानव की छाया है अविश्वास

मसी के छींटे उद्गार अंतस में उभर आया। 


 विरक्तता भाव बरसा था धरा के आँचल पर 

लो ! प्रकृति न दौंगरा समर्पण का बिछाया

अतृप्ति के भटके भाव में बिखरी चेतना

ज्यों पुष्प मोगरे पर रंग धतूरे का छाया। 


अहं द्वेष क्रोध अंतस के है कुष्ट रोग 

पीड़ा से मती मनोभावों की भ्रष्टता में भारी हुई 

नीलांबर के वितान पर उभरी कलझांईयाँ सी

वेदना की भीगी पंखुड़ियाँ क्षारी हुई। 


तीसरे पहर की पीड़ा क्षितज की लालिमा 

कपासी मेघों का हवा संग बिखर  जाना  

एकाएक झरने-से बहते जीवन में  ठहराव

हलचल अवचेतन की नयनों में उतर आना ।


 संवेदन हीन हैं विचार कलुषित मानव के 

पंख फैलाए व्याकुल मन से खग बोले 

  पलकों की पालकी पर भाव सजाए  

कहो न खग! मनस्वी ने नयनों के पट खोले।


हे सखी! गाथा विश्व में वैभव सम्पन्नता संग 

समझ के दरिया में डूबे मानव व्यवहार की

आत्मछटपटाहट प्राबल्यता प्राप्ती की मंशा 

खंडित चित्त के किवाडों के दुर्व्यवहार की।


 अनभिज्ञ मानव समझे स्वयं को आत्मज्ञानी

ज्यों कर्म कारवाँ बढ़े कोलाहल की झंकार 

सत,रज, तम ठूँठ हुए उजड़े चित्त के मनोभाव 

भ्रम यवनिका मन-दर्पण,धूल-मिट्टी मोह भार।


द्वेष क्रोध को धार लगाते, छूटा प्रीत का हार 

हृदय पाषाण, भाव मरु,लू के थपेड़े हैं स्वभाव

ताप बढ़े काया का ज्यों  किरणों का प्रहार 

स्वार्थसिद्धता पट्टी आँखों पर अतृप्त हैं भाव।


नहीं!नहीं!!नहीं!!!खग,मानव ज्ञाता, है विश्वास

जीवन कलाएँ अर्जित करना,है इसका स्वभाव

बोध-निर्बोध भाव तत्त्व बाँधे, बंधुत्त्व अंबार

पीड़ित पीड़ा में उलझा समझे न विकारों का प्रभाव।


निर्मल-निश्छल स्वभाव,है करुणा का अवतार 

भावों-अभावों से जूझता,टाटी सुखों की बाँधता 

बंजर जीवन भाता किसको? हे खग!

विचार उचटते अंतरमन के,सुख का छप्पर टूटता!


अविश्वास बढ़ा भू पर,देख! छाए बादल विश्वास के

पुरवाई प्रीत, बरसात आस्था के नवांकुर खिलाएगी

वृक्षों पर पात संबंधों के अंकुरित हो खिल जाएँगे 

डाली-डाली लदी फूलों से धरा दुल्हन-सी सज जाएँगी।


द्वेष धुलेगा एक दिन,मन-दर्पण रश्मियों-सा चमकेगा  

हे खग!आभा मुख पर,पुलकित मानवता हर्षाएगी

निश्छल झरना झरे कर्मण्यता का, हैं सौरभ से भाव 

शब्द सुमन सुवासित हो हृदय शीतल कर जाएँगी।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

प्रथम द्वितीय एवं तृतीय भाग के लिंक 👇

१. निर्वाण (मनस्वी की बुद्ध से प्रीत) 

२. निर्वाण ( स्वप्न की अनुगूँज) 

३ निर्वाण (चित्त की भित्तियाँ)