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गुरुवार, अक्तूबर 11

उलझन

                                         
ज़माना   कहता,   उलझे-उलझे-से    रहते   हो,
 कैसे  कहूँ   यही  वो  मंज़र   जिसनें  चलना सिखाया? 


यूँ   तो  ज़िंदगी    ने   हमें   ख़ूब   नवाज़ा,
उलझन ही रही  मुक़्क़दर में, सुकूं  की छाँव न मिली।

मंज़िल   के   दरमियां  उलझनों   का  साथ  लाज़मी  था ,
चंद क़दम  हौसले   संग रखे,  सामने  मंज़िल  के  निशां थे |


 उलझनों  में  तमाम  मुश्किलों  के  हल   मिले ,
 टेढ़े-मेढ़े   रास्तों  पर  मंज़िल   के  निशां  मिले |


खारेपन  में   कोई   तलब    रही 
 होगी  वरना   यूँ,

 उलझनों  में उलझी  गंगा  ढूँढ़ें  न   सागर  के  निशां|

मुहब्बत    होने     लगी   उलझनों   से, कमबख़्त, 

बिगड़कर  जाती,  सँवर  कर  आती,और  सीने  से  लग जाती।

                              - अनीता सैनी 

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