अखबार के खरदरे पन्नों की
हैडिंग बदली न मौलिक तस्वीर
कई वर्षों से ढ़ोते आए हैं ये
बाढ़ के पानी का बोझिल भार
न पानी ने बदला रास्ता अपना
न बहने वालो ने बदले घरों ने द्वार
प्रत्येक वर्ष बदलती पानी की धारा
कभी पूर्व तो कभी पश्चिम
बिन बरसात ही डूबते घर-बार
निर्बोध मन-मस्तिष्क
देह के अस्थि-पिंजर बह जाते
कटाव समझ के वृक्ष का होता
आदि-यति सब बहते साथ
कुछ बंजारे बीज संघर्ष के बोते
कुछ खोते जीवन की सूक्ष्म मेंड़
न उठ पाते न उठने देते नियति के फेर
उमसाए सन्नाटे में बढ़ी बाढ़ की डोर ।
©अनीता सैनी 'दीप्ति'