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शुक्रवार, जनवरी 12

नदी

नदी / अनीता सैनी ‘दीप्ति’
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कई-कई बार, कि हर बार 
तू बह जाने से रह गई?
कुछ तो बोल! क्रम भावों का टूटा 
आरोह-अवरोह बिगड़ा भाषा का 
कि कविता सांसें सह गई?

कैसे सोई धड़कन?
दरख़्त के दरख़्त कट गए!
हरी लकड़ियाँ चूल्हे में रोई नहीं?
मरुस्थल हुई मानवता या 
ज्वार नथुनों से बहा नहीं ?
क्वाँर की बयार कह गई 
कैसे रही तू ज़िंदा?
कैसे जीवन सह गई?

महामौन बिखरा अंबर का 
कैसे लौटी हवा आँगन की?
भावना विचलित बादलों की
गरजती हुए कह गई- “कि एक नदी के
सूखने भर की देर थी?
 कि जो भाषा न समझे उन्हें
प्रतिकों की परिभाषा समझ आने लगी?

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