कृशकाय पगडंडियों पर दौड़ते गाँवों को,
शहरों की सड़कें निगल गयीं |
अपनेपन की ख़ुशबू से खिलखिलाती,
गलियाँ राह शहर की भटक गयीं|
भूला मिट्टी की ख़ुशबू ,
शौहरत की महक दिल-ओ-दिमाग़ में छा गयीं |
मासूम दिल पर दिमाग़ ने क़हर ढा दिया,
छीन पीपल की छाँव, फ़ुटपाथ पर ज़िंदगी सो गयी |
मालिकाना हक़ का रौब , मुस्कुराती फ़सलें छोड़ ,
बन मज़दूर मज़दूरी को मुहताज़,
वही मेहनत पगार हाथों में थमा गया |
कठघरे में जिंदगी, स्वाभिमान की पगड़ी ले गयी,
दो वक़्त की रोटी , नशे का व्यापारी बना गयी |
शब्दों में सुभाशीष, हाथों में देश का भविष्य,
बदली शब्दों की लय, लाचारी सीने से लगा गयी |
हुआ घायल मन , तन ने साथ छोड़ दिया,
नशे ने जकड़ा, दीनता हाथ फैला गयी |
सोई मानवता जाग उठी, धूम्रपान से तन को छुड़ा,
इंसान को इंसानियत का पाठ पढ़ा गयी |
- अनीता सैनी