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शनिवार, जून 1

क़हर दिमाग़ ने ढा दिया



                                           
कृशकाय  पगडंडियों  पर  दौड़ते  गाँवों   को,  
 शहरों  की  सड़कें   निगल गयीं |

अपनेपन  की  ख़ुशबू   से  खिलखिलाती,  
गलियाँ  राह  शहर  की   भटक  गयीं|

 भूला    मिट्टी  की   ख़ुशबू ,
 शौहरत   की  महक दिल-ओ-दिमाग़  में  छा  गयीं  |

मासूम  दिल  पर  दिमाग़  ने  क़हर   ढा  दिया,  
छीन  पीपल  की  छाँव, फ़ुटपाथ  पर ज़िंदगी   सो  गयी |

 मालिकाना  हक़ का  रौब ,  मुस्कुराती  फ़सलें   छोड़ ,
बन  मज़दूर   मज़दूरी   को    मुहताज़, 
 वही   मेहनत   पगार  हाथों   में  थमा  गया |


कठघरे  में   जिंदगी, स्वाभिमान  की  पगड़ी  ले  गयी,  
दो  वक़्त  की  रोटी , नशे  का  व्यापारी  बना  गयी |


शब्दों   में   सुभाशीष,  हाथों  में   देश  का  भविष्य,   
बदली   शब्दों  की  लय,   लाचारी   सीने   से  लगा  गयी |


हुआ   घायल   मन ,  तन  ने   साथ   छोड़   दिया, 
नशे  ने   जकड़ा,    दीनता   हाथ   फैला   गयी |

सोई   मानवता  जाग  उठी,  धूम्रपान   से  तन  को  छुड़ा,  
इंसान   को   इंसानियत    का   पाठ   पढ़ा   गयी |

                      - अनीता सैनी