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रविवार, फ़रवरी 25

प्रेम


प्रेम का संकेत मिलते ही अनुगामी बन जाओ उसका

हालाँकि उसके रास्ते कठिन और दुर्गम हैं

और जब उसकी बाँहें घेरें तुम्हें

समर्पण कर दो

हालाँकि उसके पंखों में छिपे तलवार

तुम्हें लहूलुहान कर सकते हैं, फिर भी

और जब वह शब्दों में प्रकट हो

उसमें विश्वास रखो

हालांकि उसके शब्द तुम्हारे सपनों को

तार-तार कर सकते हैं- खलील जिब्रान


फिर भी तुम्हें प्रेम को 

जीवंत रखना होगा

वह मर जाता है

कुम्हल जाता है ततक्षण

इंतज़ार नहीं करता

उसे जीवंत रखना पड़ता है 

कि जैसे-

साँझ में सिमट जाता है दिन

बेपरवाह हो डूब जाता है

तुम्हें डूब जाना होगा

ढलती रात उतर जाती है

होले-होले भोर के कंठ में 

वैसे ही तुम्हें

प्रेम को उतार लेना होगा कंठ से हृदय में 

प्रेम के गर्भ की समयावधि नहीं होती

कि तुम पा सको उसे प्रत्यक्ष

एकतरफ़ा आत्मा 

जन्म जन्मांतर सींचती है

प्रेम सींचना ही पड़ता है 

जैसे-

सींचता है अंबर पृथ्वी को

गलबाँह में जकड़े

वैसे ही तुम्हें

प्रेम को जकड़ लेना होगा गलबाँह में

सींचना होगा जन्म जन्मांतर।

                             

रविवार, फ़रवरी 18

युद्ध

युद्ध  / अनीता सैनी

…..

तुम्हें पता है!

साहित्य की भूमि पर

लड़े जाने वाले युद्ध

आसान नहीं होते

वैसे ही 

आसान नहीं होता 

यहाँ से लौटना

इस धरती पर ठहरना 

मोगली का जंगल का राजा हो जाना जैसा है

पशु-पक्षी चाँद-सूरज और हवा-पानी

सभी उसका कहना मानते हैं

उसकी बातें सुनते हैं 

दायरे में सिमटा

 तुम्हारा

मान-सम्मान, मैं मेरे का विलाप व्यर्थ है

व्यर्थ है रिश्तों की दुहाई देना

व्यर्थ है

एक काया को सौगंध में बाँधना 

व्यक्ति विशेष से परे 

ये युद्ध 

आत्माएँ लड़ती हैं

वे आत्माएँ

जो बहुत पहले

देह से विरक्त हो चुकी हैं।

                              

रविवार, फ़रवरी 11

धोरों का सूखता पानी


धोरों का सूखता पानी / कविता / अनीता सैनी

….

उस दिन

उसके घर का दीपक नहीं

सूरज का एक कोर टूटा था

जो ढिबरी वर्षों से 

आले में संभालकर रखी है तुमने 

वह उसी का टुकड़ा है।


धोरों की धूल का दोष नहीं

सदियाँ बीत गईं

यहाँ! दुःख, पश्चात्ताप के पदचिह्न ही नहीं!

नहीं!! मिलते वे देवता

जो पानी के लिए पूजे जाते थे

इंसान ही नहीं!

पानी भी बहुत गहरे चला गया है

 तुम! पूछो रोहिड़े से

कैसे बहलाता है?भरी दुपहरी में अपने मन को।


तुम! ये जो बार-बार

पानी में डुबोकर

कमीज़ झाड़ रहे हो न

इस पर काले पड़ चुके अश्रु नहीं धुलेंगे

उस लड़की के पिता ने कहा है-

“मैं पिछले दो दशक से सोया नहीं हूँ।”


मंगलवार, फ़रवरी 6

पीड़ा

पीड़ा / कविता / अनीता सैनी

६फरवरी २०२४

……

उन दिनों

घना कुहासा हो या 

घनी काली रात 

वे मौन में छुपे शब्द पढ़ लेते थे

दिन का कोलाहल हो या

रात में झींगुरों का स्वर  

वे चुप्पी की पीड़ा

बड़ी सहजता से सुन लेते थे 

प्रेम की अनकही भाषा पर

गहरी पकड़ थी 

समाज के बाँधे बंधन

अछूते थे उसके लिए

यही कहा-

“तुम पुकारना, मैं लौट आऊँगा।”

परंतु जाते वक़्त सखी!

पुकारने की भाषा नहीं बताई।