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शुक्रवार, मार्च 25

भावों की लहर कविता


रोम-रोम मेरे रमती  

श्वांसें कहती हैं कविता

साज सरगम हृदय सजती 

जैसे बहती है सरिता।।


मरु में नीर टोह भटकी 

मौन धार अविरल बहती।

धूप तपे आकुल मन में 

सुधियाँ मट्टी-सी ढहतीं ।

शब्द बंधे सुर-ताल में 

उर बहे बनके गर्विता।।


मेघमाला-सी बिखरती 

खेलती घर-घर गगन में।

बाट जोहती जोगनियाँ  

सांसें सींचती लगन में।

ओढ़ चाँदनी उतरी निशि 

ज्यों भाव लहरी नंदिता।।


रंग तितलियों को देती  

फूलों में मकरंद भरती।

बाँह लिपटी हैं रश्मियाँ 

तरूवर-सी छाँव झरती।

भाल वसुधा के सजाती 

कवित अरुणोंदय अर्पिता।।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, मार्च 17

टोह


स्मृति पन्नों पर बिखेर गुलाल

  हृदय से उन्हें लगाऊँ।

जोगन बन खो जाऊँ प्रीत में 

रूठें तो फिर-फिर मनाऊँ।


 साँझ लालिमा-सी संवरूँ 

टूट तारिका-सी लिपटू गलबाँह में।

धवल चाँदनी झरे चाँद से

अबीर बन सुख लूटूँ प्रीत छाँह में।


एक-एक पन्ने पर वर्षों ठहरुँ

मुँदे द्वार खोल माँडू माँडने।

अल्हड़ मानस की टाँगू लड़ियाँ

टूटे भावों को बैठूँ साँठने।


प्रीत पैर बँधु बन पैजनियाँ

थिरक बजूँ पी आँगन में।

टोह अन्तहीन पारावार-सी

व्याकुल पाखी की अंबर में।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

मंगलवार, मार्च 8

परछाई एक अकेली-सी



 हाथ दीप धर ढूँढे पगडंडी 

परछाई एक अकेली-सी।

बादल ओट छिपी चाँदनी 

जुगनू बुझाए पहेली-सी।


धीरज पैर थके न हारे 

सृजन नित नया रचाती।

होले-होले डग धरती भरे 

पथ सुमन छाँव जँचाती।


अनथके भावों की पछुआ 

घन गोद खिलखिलाती।

पानी बूँद बन धरा बरसे 

सुषुप्त स्वप्न को जगाती।


वह परछाई आग है

है बहते जल की धारा।

नहीं बँधी अब बेड़ियों में

नहीं ढूँढ़ती सहारा।


मिट्टी बन मिट्टी को साधे

प्राण फूँकती मिट्टी में।

सृष्टि, सृष्टा के पथ चलती 

मुक्त परछाई धरा मुट्ठी में।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'